नूतन: चाँद फिर निकला, मगर तुम न आये

दूरदर्शन के एकाधिकार वाले समय की बात है। उस रात ‘चित्रहार’ का पहला गाना शुरू होते ही ट्रांसमिशन अटक गया। स्क्रीन पर नूतन (Nutan) थीं। सितार थामी हुई। सब थमा हुआ था। नूतन की आंखें एक ख़ास कोण पर ठिठकी हुई। कुछ बोलने (गाने) की तैयारी में उठ रहे होंठ। सितार पर रुकी हुई अंगुलियां। तब मैं नहीं समझ सका कि वह क्या था, जिसने इन ठहरावों के बीच मेरे भीतर अंतहीन छटपटाहट भर दी थी। ज़रा देर में ही ट्रांसमिशन बहाल हो गया। नूतन पर फिल्माए गए ‘मरना तेरी गली में’ के बोल और दृश्य शुरू हो गए।जब गीत ख़त्म हुआ, तो मुझे वाकई लगा कि गाने की शुरूआत का वह ठहराव कोई बाधा नहीं, बल्कि मुझे इस बात के लिए मानसिक रूप से तैयार करने की वजह था कि अब वह देखो, जो शायद ही कभी भूल सको। ऐसा ही हुआ। इस गीत के जरिये नूतन के बेहतरीन अभिनय की यात्रा सैंकड़ो बार तय कर चुका हूं। फिर भी हर बार यही लगता है कि सफर में कुछ छूट गया है। यह अधूरापन ही वह तथ्य है, जो बताता है कि नूतन की अदाकारी के तिलिस्म को संपूर्ण रूप में समझा जाना अब भी बाकी है।
नूतन को प्रोटागोनिस्ट कहना मेरी समझ से उनकी अपूर्ण व्याख्या है। ना, ये मत समझिये कि ये विचार ‘बंदिनी’ (Bandini) ‘सीमा’ (Seema) ‘सोने की चिड़िया’ या ‘सुजाता’ (Sujata) के रूप में नूतन को मुख्य पात्र के रूप में कम आंक रहे हैं। संपूर्णता यह है कि नूतन ‘प्रोटागोनिस्ट विद फुल परफेक्शन’ वाली नायिका रहीं। उन्होंने अपने लगभग सभी किरदारों को न केवल जिया, बल्कि उनका रस भी इस तरह पीया कि वह उत्कृष्ट अभिनय की मादकता के रूप में दर्शकों पर छाता चला जाता था। यदि यह अतिशयोक्ति लगे तो कभी ‘मयूरी’ या ‘कस्तूरी’ देख लीजिए। इन चित्रों में नूतन ने अधेड़ चरित्रों की जद्दोजहद और चुनौतियों को जिस तरह जिया, वह देखकर उस समय जवान अवस्था वाले दर्शक भी इन किरदारों के लिए आसक्ति यानी इनफेचुएशन वाले भाव से नहीं बच पाते थे। जबकि ‘मयूरी’ में यह एक ब्याहता स्त्री का मामला था और ‘कस्तूरी’ में तिल-तिल मरते अपने पति की चिंता में घुलता चरित्र आपके सामने था। ‘सौदागर’ में तो नूतन सौंदर्य से लेकर मादकता तक के मामले में अपनी सौत बनी पद्मा खन्ना से बहुत पीछे दिखाई गईं, फिर भी उन्होंने माजू बी के चरित्र को यूं उकेरा कि वह ग्लैमर पर ठेठ ‘बहन जी कट’ अंदाज़ के बाद भी भारी पड़ गयीं। ख़ास तौर पर हिंदी फिल्मों के चलन के हिसाब से यह एक चरित्र के दूसरे पर हैरत कर देने वाली जीत रही, जिसका श्रेय नूतन को ही जाता है।
नूतन की इन्हीं असंख्य बार दिखी खूबियों के चलते उस अनजान शख्स के लिए मन श्रद्धा भर जाता है, जिसने पहली बार उनके लिए ‘नूतन:एक संपूर्ण अभिनेत्री’ लिखा था। ‘लाट साब’ और ‘पेइंग गेस्ट’ की चुलबुलाहट से लेकर ‘सरस्वतीचंद्र’ या ‘मेरी जंग’ के दर्द को नूतन ने जिस तरह अजर-अमर बना दिया, वह अद्भुत है। ‘छलिया’ एक औसत फिल्म थी। यदि उस दौर के इस जैसे ही बाकी चित्रों को आपने देखा हो तो यह जल्दी ही समझ आ जाता है कि छलिया में भी नायिका अंततः पति के साथ ही चली जाएगी। मेरा मत है कि निर्देशक मनमोहन देसाई एक दृश्य से इस फिल्म का अंत ‘भीतर तक छू जाने वाला’ बना सकते थे। चित्र की शुरूआत में ट्रेन की खिड़की की धुंध को साफ़ करती हुई नूतन का मासूमियत के साथ खिलखिलाता चेहरा दिखता है। यदि फिल्म के अंत में पति के साथ जाती नूतन को मुड़कर आख़िरी बार राज कपूर को देखते हुए बताया जाता तो छलिया के शुरू वाले और अंत वाले उनके किरदार के भावों का जबरदस्त वैपरीत्य दर्शकों के दिमाग को यकीनन मथ सकता था। नूतन की अभिनय क्षमता के चलते यह पूरी तरह संभव था। यह प्रयोग वैसे ही किया जा सकता था, जैसा सत्यजीत रे ने ‘देवी’ में किया था। फिल्म का एक दृश्य सीधी-सादी गृहस्थन शर्मीला टैगोर द्वारा बच्चे को सुनायी जा रही कहानी के पहले वाक्य ‘एक थी डायन’ पर पर ख़त्म हो जाता है। फिर फिल्म के अंतिम पलों में उसी बच्चे की मौत पर उसकी मां जब शर्मीला टैगोर के लिए कहती है, ‘उस डायन ने मेरे बेटे को मार डाला’ तो आप आरंभ तथा अंत के दो दृश्यों के बीच वाले इस कंट्रास्ट से हिल जाते हैं। ये दोनों ही चित्र वर्ष 1960 में बने थे और इस एक दृश्य की बदौलत ही सार्थक सिनेमा तथा मुख्य धारा की सिनेमा के बीच की सोच के विराट अंतर को समझा जा सकता है।
नूतन का अभिनय आपको बेसाख्ता उनकी तरफ खींचता है। ठीक वैसे ही, जैसे आप किसी प्लेटफॉर्म के किनारे पर खड़े हों और ठीक बगल से गुजरती ट्रेन आप को अपनी तरफ खींचती है। मैं हमेशा जिस तरह ऐसी ट्रेन से बचता आया, वैसा ही नूतन की फिल्मों को देखते समय भी बचता हूं। क्योंकि यदि उनके द्वारा निभाए गए किसी एक चरित्र की ही ‘चपेट’ में आ गया तो फिर नूतन के बाकी वाले चरित्रों का रसास्वादन कैसे कर सकूंगा! ‘यादगार’ फिल्म में ‘जिस पथ पे चला’ में नायक के पदचिन्ह से लेकर उसकी पेशानी तक के लिए समर्पण का जो भाव नूतन ने दिखाया, वह उनके अभिनव अभिनय की एक और मिसाल है। नूतन मानव जीवन के उस पथ पर चली गई, जहां से फिर कोई वापस नहीं आता है, लेकिन उस पथ पर बेहद उम्दा अदाकारी के जो पदचिन्ह उन्होंने छोड़े हैं, वह आने वाले कई युगों तक किरदार में ढल जाने की मिसाल बनकर कायम रहेंगे। ‘पेइंग गेस्ट’ में ‘चाँद फिर निकला, मगर तुम न आये’ गीत को भी नूतन ने अभिनय की अमरता प्राप्त की और उनके तमाम चाहने वाले आज भी हर शाम चांद निकलने पर नूतन को याद कर यही शिकवा करते हैं, ‘…मगर तुम न आये।’