निहितार्थ

गांधी वाले बरगद तले कुम्हलाती कांग्रेस

संकेत गंभीर हैं लेकिन शुरूआत थोड़ी हल्के मूड़ में। बारात के विवाह (marriage) के बाद घर वापस लौटने के साथ ही दुल्हन के ससुराल (Laws house) में एक अघोषित रस्म शुरू हो जाती है। इधर बहु ने ससुराल में ठीक से कदम रखा भी नहीं और उधर एक समूह उसके गुण/अवगुण गिनाने का काम शुरू कर देता है। सब जानते हैं कि ये कवायद व्यर्थ है। फिर भी इसमें रस सभी को आता है। यह बात और है कि दुल्हन कैसी है, यह कुछ समय बाद ही पता चल पाता है। यही हिसाब एग्जिट पोल्स (Exit poles) का है। खबरिया चैनल (News channel) आचार संहिता (Code of conduct) का चक्र घूमना बंद होते ही नतीजों का जैसे ऐलान ही कर देते हैं। कई मौकों पर यह पूवार्नुमान गलत भी साबित होते देखे हैं। मगर देखने वालों को इसमें बड़ा रस आता है। फिर यह वोटों की गिनती होने के बाद ही पता चलता है कि वास्तव में नतीजे क्या आये हैं।

तो पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों (Assembly election results) को लेकर एक बार फिर ऐसी ही प्रक्रियाएं शुरू हो गयी हैं। एग्जिट पोल कह रहे हैं कि पश्चिम बंगाल (West Bengal) में तृणमूल कांग्रेस (TMC) और भाजपा (BJP) के बीच कांटे का मुकाबला है। असम में एक बार फिर कमल खिलने जा रहा है। अनुमान यह भी है कि केंद्रशासित प्रदेश पुंडुचेरी ()Punducherry में भाजपा सरकार (BJP Government) बना लेगी। केरल में जहां वामपंथी गठबंधन (Left alliance) के कायम रहने के संकेत मिल रहे हैं तो तमिलनाडु (Tamil Nadu) की फिजा कह रही है कि वहां द्रविड़ मुनेत्र कषगम (DMK) को विजयश्री मिलने जा रही है। तमिलनाडू में कांग्रेस या भाजपा की कोई औकात नहीं है। कभी इस राज्य में कांग्रेस सत्तासीन हुआ करती थी पर अब बरसों बरस बीत गए। वो कभी एआईडीएमके तो कभी DMK की पिछलग्गू बनी नजर आती है। बीजेपी तो बस अभी पांव रखने की जगह ही तलाश रही है। सो, उसे तमिलनाडू में कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।





अब अनुमानों के इस दौर और शोर का सच तो 2 मई को पता चल ही जाएगा। मगर एग्जिट पोल्स की कुछ बातों पर तो गौर करना गलत नहीं होगा। पश्चिम बंगाल और पुंडुचेरी में कभी भी भाजपा की सरकार नहीं रही, जबकि इन दोनों ही स्थानों पर कांग्रेस की सत्ता सहित जनाधार भी रहा है। पश्चिम बंगाल में तो कांग्रेस करीब चार दशक से सत्ता से बाहर है। बाद में ममता बैनर्जी (Mamata Banerjee) के अलग होने के बाद एक, दो, तीन जैसी गिनती से भी गायब हो गई। इन प्रदेशों में बीजेपी के पास खोने को कुछ नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) में पश्चिम बंगाल के रेगिस्तान में बीजेपी कुआं खोदने में कामयाब रही थी और अगर अभी ममता सत्ता में वापसी भी कर लें तो इतना तो तय है कि इस राज्य का मुख्य विपक्षी दल बनने से बीजेपी को कोई नहीं रोक रहा। यानि कांग्रेस (Congress) और वामपंथी (Left) किसी भी दौड़ से बाहर नजर आ रहे हैं। इन स्थानों पर लुटे अवसर और छिनी जमीन को वापस लेने की चुनौती कांग्रेस के सामने मुंह बायें खड़ी है। फिर बात तार-तार हुई इज्जत को दोबारा हासिल करने वाली दुरूह चुनौती की भी है। राहुल गांधी (Rahul Gandhi) केरल के वायनाड (Wayanad) से सांसद हैं, इस राज्य सहित पुंडुचेरी में भी उन्होंने चुनाव में बहुत ताकत लगाई। असम में तो कम से कम कांग्रेस को सत्ता में वापसी कर ही लेनी चाहिए थी। वहां पिछली बार बीजेपी ने पहली बार सरकार बना ली थी। सबसे अच्छे समीकरण कांग्रेस के लिए असम में ही हैं। लेकिन एक्जिट पोल कुछ और ही कहानी बयां कर रहे हैं। तो फिर एग्जिट पोल्स के नतीजे यदि इनमें से किसी भी राज्य में कांग्रेस को जीत तो दूर, सम्मानजनक हार वाली स्थिति में भी नहीं बता रहे तो इस दल के लिए चिंता और चिंतन, दोनों के लिहाज से यह करो या मरो वाला समय है।

कांग्रेस के पास बहुत कुछ खोने और बहुत कम पाने का दुर्योग जैसे चिपक गया लगता है। देश के जिन राज्यों में आज भी उसका मुख्य मुकाबला भाजपा के साथ है, वहां से ज्यादातर जगहों पर पंजे में झुर्रियां साफ दिखने लगी हैं। और पश्चिम बंगाल सहित बिहार, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, आंध्र, तेलंगाना, झारखंड, दिल्ली और उत्तरपूर्व के छोटे पहाड़ी राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों की मजबूती ने कांग्रेस को ही अधिक नुकसान पहुंचाया है। वजह यह कि ये दल अनुसूचित जाति (scheduled caste) और जनजाति सहित मुस्लिम मतदाताओं (Muslim voters) को कांग्रेस के मुकाबले बहुत तगड़ा विकल्प देने में सफल रहे थे। और हिन्दू तो यूं ही कांग्रेस से भरे बैठे थे। नतीजा कि अब वह भाजपा से जुड़ गए हैं। अब ये सब एक दिन में या एक चुनाव भर के लिए तो हुआ नहीं। फिर भी कांग्रेस ने हालात के ईमानदार और कठोर तरीके से आंकलन की कभी कोशिश तक नहीं की। जबकि भाजपा बहुत ही सधे कदमों से आगे बढ़ी। उसने सामाजिक समरसता के अभियान चलाये। तीन तलाक के खिलाफ बड़ी लड़ाई की अगुआई की। राम मंदिर (Ram temple) पर अदालत के फैसले को ज्यों का त्यों लागू कर बीजेपी ने हिंदुओं (Hindus) के प्रोग्रेसिव वोट (Progressive vote) को भी अपनी तरफ खींचा है। अपने किसी भी एजेंडे से उसकी कोई दूरी नहीं है। दूसरी ओर कांग्रेस में इस दिशा में प्रयास कभी नजर ही नहीं आये। अब तो ये समझना भी मुश्किल है कि कांग्रेस राजनीति में किसलिए है। उसकी विचारधारा को तो समझना कठिन है ही। और उसके दिग्विजय सिंह जैसे जो नेता आज भी कांग्रेस को जनआंदोलन बताते हैं वो पता नहीं क्यों भूल रहे हैं कि इस समय कांग्रेस में न किसी आंदोलन का पता है और न ही जन का। वरना मोदी सरकार के छह साल में कोई सुर्खाब के पर तो लगे नहीं थे जो कांग्रेस कोई बड़ा आंदोलन लीड नहीं कर पाई होती। वो तो अब इस मामले में भी जो जन आंदोलन हो रहे हैं, उनकी भी पिछलग्गू होती जा रही है। तो आखिर ऐसा क्यों हो रहा है।





पीवी नरसिंहराव (PV Narasimha Rao) के बाद की कांग्रेस को जरा याद कीजिये। इस पार्टी की दशा किसी मुर्दे जैसी हो गयी थी। वह मुर्दा जिसे इस उम्मीद में जिंदा रखा जाता है कि किसी के चमत्कारी स्पर्श से उसमें फिर जान आ जाएगी। इस चमत्कार की उम्मीद केवल गांधी-नेहरू परिवार से लगायी जा रही थी। तो फिर हुआ यूं कि यह दल भाट चारण के प्रभात और संध्याकालीन वंदन से ही गूंजने लगा। उन रत्नाकर पांडेय की परंपरा को आगे बढ़ाने की होड़ मच गयी, जो सोनिया गांधी (sonia gandhi) की चप्पल के लिए अपनी चमड़ी का दान देने को व्याकुल हो उठे थे। जब सोनिया दरबार में चमचत्व की फिल्म हॉउसफुल (Film houseful) हो गयी तो बचे भाई लोगों में से कुछ को राहुल और शेष को प्रियंका (Priyanka) में संभावनाएं नजर आने लगीं। लेकिन इस भीड़ में कोई भी ऐसा नहीं था, जो पार्टी की चिंता कर रहा हो। 2004 और 2009 की केन्द्र की मिली जुली सरकारों के नेतृत्व को लेकर मुगालते में आए कांग्रेसी इस पर विचार नहीं कर सके कि अपने अकेले के दम पर वे अब कभी सत्ता में आ पाएंगे या नहीं? ऐसा भला होता भी क्यों? जब सच्चा कांग्रेसी होने का एकलौता आधार एक परिवार के नाम को ही ओढ़ना और बिछाना हो गया हो तो फिर बाकी और किसी प्रयास हेतु मेहनत करना मूर्खता का ही परिचायक कहलाता।

स्वर्गीय सीताराम केसरी (Sitaram Kesari) को अब कांग्रेस में याद करने का जोखिम तो कोई उठाएगा नहीं। यदि कांग्रेस अध्यक्ष (Congress president) के तौर पर अंतिम बार पहने गए उनके कुर्ते को उठाकर देखें तो उसकी तशरीफ के आसपास वाले हिस्से पर पाद प्रहार के अनगिनत निशान मिल जाते। इन कांग्रेसी लातों ने बुढ़ापे में केसरी की ऐसी मट्टीपलीद कर सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के श्रीचरण पार्टी अध्यक्ष पद तक आने की खुशी के इजहार में ही ऐसा किया था। इतना जरूर हुआ था कि सोनिया गांधी के आने के बाद कांग्रेस का गिरता ग्राफ जहां का तहां थमा रह गया था। इसलिए कांग्रेसियों को वाकई यह बदलाव सुखद लगा होगा। मगर यूपीए की सरकार के सन 2014 में जाने तक सोनिया गांधी सहित राहुल गांधी का जादू पूरी तरह ढल चुका था। रही-सही कसर में 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रियंका वाड्रा (Priyanka Vadra) की इज्जत का पानी उत्तरप्रदेश (uttar pradesh) की जनता ने उतार कर बंद मुट्ठी को खाक का साबित कर ही दिया।

 

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यह सब भारतीय राजनीति (Indian politics) के लिए दुख का विषय है। देश में एक गैर कांग्रेसी राजनीतिक दल (Congress political party) के राष्ट्रव्यापी उभार को लोकतंत्र के लिए सुखद माना जा सकता है। तो कांग्रेस के कमजोर होते जाने को लोकतंत्र के लिए खतरा भी मानना चाहिए। क्योंकि इस देश को कांग्रेस की जरूरत हमेशा है। लोकतंत्र (Democracy) में एक मजबूत विपक्ष की कमी को यह दल ही पूरा कर सकता है। जिसकी देश में व्यापक पहचान और एक निश्चित समर्थन तो हमेशा रहेगा। मगर एक बात तय दिखती है। वह यह कि सच्चे कांग्रेसजन जब तक गांधी परिवार नामक बैताल को अपने काँधे पर ढोते रहेंगे, तब तक मामला ठीक होने वाला नहीं है। सोनिया गांधी का स्वास्थ्य पहले की तरह उनका साथ नहीं दे रहा। वैसे भी वे इस कांग्रेस का बोझ लगभग 21 साल से ज्यादा से ढोती चली आ रही हैं। कुछ अरसा राहुल के अध्यक्ष कार्यकाल का छोड़ दें तो। राहुल गांधी का राजनीतिक स्वास्थ्य रह-रहकर उनकी पार्टी को ही वेंटिलेटर (Ventilator) पर ले आता है। प्रियंका की सियासी जमीन को उनके पतिदेव का जमीन प्रेम ही खराब करे दे रहा है। और यदि ऐसा नहीं भी है,तब भी श्रीमती वाड्रा तमाम तरह से यह साबित कर ही चुकी हैं कि दादी जैसी नाक होने भर के दम पर ही पार्टी की नाक को बचाया नहीं जा सकता है। यह स्थिति बयान कर रही है कि गांधी-नेहरू परिवार (Gandhi-Nehru Family) जैसे बरगद के आगे पार्टी की हैसियत किसी पौधे जितनी हो चुकी है। बरगद के नीचे और कोई पौधा नहीं पनप सकता, इस बात को अब कांग्रेस के हितेषी हर पार्टी कार्यकर्ता को समझना ही होगा। चाहे तो फिर देश के असली कांग्रेसी और भाजपा विरोधियों को भले ही कांग्रेस के नाम से भी पीछा क्यों न छुड़ाना पड़े। इस पर आगे बात अब कल फिर।

प्रकाश भटनागर

मध्यप्रदेश की पत्रकारिता में प्रकाश भटनागर का नाम खासा जाना पहचाना है। करीब तीन दशक प्रिंट मीडिया में गुजारने के बाद इस समय वे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश में प्रसारित अनादि टीवी में एडिटर इन चीफ के तौर पर काम कर रहे हैं। इससे पहले वे दैनिक देशबंधु, रायपुर, भोपाल, दैनिक भास्कर भोपाल, दैनिक जागरण, भोपाल सहित कई अन्य अखबारों में काम कर चुके हैं। एलएनसीटी समूह के अखबार एलएन स्टार में भी संपादक के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं। प्रकाश भटनागर को उनकी तल्ख राजनीतिक टिप्पणियों के लिए विशेष तौर पर जाना जाता है।

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