नज़रिया

मनोरंजन से मनोरोगी बनाने के ये षड़यंत्र

इनमें से एक सच्चा किस्सा है. दूसरा सच  में किस्सा ही है. लेकिन दोनों को ठोस और व्यावहारिक उदाहरण के रूप में बेशक अपनाया जा सकता है. सच यह कि सांप के जहर की काट तलाशने के लिए आखिरकार इस जहर के भीतर ही उतरना पड़ा. तब कहीं जाकर विज्ञान सर्पदंश का इलाज तलाश सका. प्रक्रिया खतरनाक थी. वैसी ही जैसे प्राकृतिक शहद पाने के लिए मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने वाला जोखिम उठाना ही होता है.

अब बात किस्से की. एक काफी बड़े हौद में तीन लोगों को बंद कर दिया गया, वह ऊपर से बंद था. भीतर तीन विशालकाय पाइप लगे थे. उन पाइप के माध्यम से हौद में पानी भरना शुरू हो गया. शेष दो लोग दम घुटने से मर गए. किन्तु तीसरा सुरक्षित बाहर आ गया. ऐसा इसलिए कि उसने हौद में गिरते पानी का लेवल पाइप के मुंह के ऊपर तक आने की प्रतीक्षा की. जैसे ही पाइप पर बाहरी पानी का दबाव बढ़ा,  वैसे ही उसके भीतर से आ रहे पानी का वेग घट गया. हौद में बंद तीसरे युवक ने इसी कम हुए दबाव का फायदा उठाया। वह पाइप के भीतर घुसा और पानी को चीरता हुआ बाहर आ गया.

ये दो उदाहरण सोद्देश्य याद आये. भारतीय समाज में मनोरंजन के रूप में ‘परदे’ का हमेशा से बहुत महत्व रहा है. रंगमंच की यवनिका, सिनेमाघर का रुपहला पर्दा और टीवी तथा मोबाइल फ़ोन की स्क्रीन, ये सभी असंख्य लोगों के मन को बहलाने के सशक्त और सर्व-स्वीकार्य माध्यम बन चुके हैं. किन्तु देश के लिए सकारात्मक माध्यम तो कालीकट (Kozhikode) का वह समुद्र तट भी था, जो वास्को डिगामा (Vasco de gama) के रूप में अंततः अंग्रेजों के इस विशाल भू-भाग पर अनाधिकार अधिकार का कारण बन गया. या फिर इस रत्नगर्भा धरती एवं विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति को अपनी इन योग्यताओं के कारण ही मुग़ल आक्रांताओं (Mughal infiltrators) के दंश को भी झेलना पड़ा. तो अब मनोरंजन वाला पर्दा भी इसी तरह की हानिकारक घुसपैठ/अतिक्रमण का बहुत बड़ा माध्यम बनता चला जा रहा है. विषय बहुत विस्तृत है, इसलिए आज केवल एक माध्यम, ओवर दि टॉप यानी ओटीटी प्लेटफार्म, (OTT Platform) की चर्चा करेंगे। वह भी उसके लिए बनाये जा रहे हिंदी कार्यक्रमों पर.

टीवी की स्क्रीन पर इस प्लेटफार्म की टेलीविज़न श्रृंखलाओं का नियंत्रण स्थापित हो चुका है. किन्तु वहां आपको कुछ भी नया नहीं मिल रहा है, हाँ, कुछ बारीक विश्लेषण करें तो एक बात साफ़ दिखती है. वह यह कि इन कार्यक्रमों  से एक तयशुदा एजेंडा हमारे समाज को परोसा जा रहा है. वह भी कलुषित मानसिकता के श्रम विभाजन के माध्यम से. जैसे, यदि अपराध कथा है तो उसमें सबसे काबिल पुलिस वाला शराबी, सूखा नशा करने वाला ही दिखाया जाएगा। उसे उसकी कानून हाथ में लेने की फितरत के चलते ‘बेचारे’ या ‘पीड़ित’ के तौर पर प्रस्तुत  किया जाता है. फिर यदि ये सीरीज पारिवारिक ताने-बाने की बात कहती है तो तय मानिये कि उसमें घर की ब्याहता स्त्री को पर-पुरुष से मानसिक और शारीरिक संबंध (Illicit relationship) रखने वाला ही दिखाया जाता है. पात्र स्त्री हो या पुरुष, समलैंगिकता (Homosexuality/lesbianism) वाली बात दिखाई जाना इस स्क्रीन पर आम हो चला है. परिवार के लड़के और लड़कियों को यौन संबंधों की लालसा में डूबा हुआ और एक न एक नशे का शिकार अनिवार्य रूप से दर्शाया जा रहा है. इन सीरीज में अपशब्दों (Abusive Language) को ठूंसने का काम भी किया जा रहा है. अब तो नाबालिगों के नशा करने तथा आपस में जिस्मानी संबंध बनाने को भी किसी फैशन के तरह सामने रखने का मामला भी शुरू हो गया है. ये श्रम विभाजन है. क्योंकि इसमें हमारे सिस्टम से लेकर परिवार और आचार-विचार की समस्त विद्रूपताओं को आम चलन बनाकर  दर्शकों को ये बुराइयां आत्मसात करने के लिए प्रेरित करने का दुष्चक्र चल रहा है. और ये सब घर-घर में धड़ल्ले से दिखाया/देखा जा रहा है. बच्चों से लेकर किशोरवय और बालिगों के बीच इस सारी गंदगी से बजबजाता परनाला पूरे वेग से बह रहा है. यहां तक कि मोबाइल फ़ोन पर एक क्लिक मात्र से भी इन कार्यकर्मों को देखा जा सकता है. यानी तमाम आपत्तिजनक प्रसंग, दृश्य और संवाद उन सिनेमाघरों से बाहर भी घर-घर की कहानी बना दिए गए हैं, जिन सिनेमाघरों में कम से कम ऐसे चित्रों के प्रदर्शन के दौरान ‘केवल वयस्कों के लिए’ वाली बाध्यता का पालन किया जाता था.

निःसंदेह, अब ओटीटी  प्लेटफार्म पर भी नकेल कसी जा रही है. किन्तु बीप के जरिये आधे किये गए अपशब्द (जिनका संपादन इस चतुराई से किया जाता है कि अपशब्द का पूरा अर्थ समझने के लिए किसी भी विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है) अब चलन में आ गए हैं. अनैतिक संबंधों वाले दृश्य इस कौशल से फिल्माए जा रहे हैं, कि कोई बच्चा भी उन्हें देखकर समझ जाए कि वास्तव में वहां क्या दिखाने  का प्रयास किया जा रहा है. बाकी शराब और शबाब से संबंधित दृश्यों के प्रदर्शन के आगे तो सभी प्रतिबंधात्मक उपाय  पूरी तरह असफल ही दिख रहे हैं.

इस सबका असर देखिये। पश्चिम की पूरी संस्कृति ही कलुषित नहीं है. किन्तु हमारे महानगरों में आरंभ से ही उस संस्कृति के कुसंस्कारों को फैशन की तरह अपनाया। और अब यह विषैली हवा छोटे शहरों से लेकर हमारे कस्बों  और गाँव तक का वातावरण दमघोंटू कर चुकी है.  ये सब करने वाले जिस मानसिकता से परिपूर्ण हैं, उसके  चलते ये तय मानिये कि सरकारी रोक और प्रतिबंधों का भी ये शीघ्र ही खुद के हक में कोई तोड़ निकाल ही लेंगे।

तो मनोरंजन के नाम पर  परिवारों की छत के नीचे तक क्रियाशील इन षड़यंत्रों के विरुद्ध सुविचारित रणनीति आज की महती आवश्यकता बन चुकी है, और इसका निदान आरंभ में बताये गए उदाहरणों के अनुरूप ही किया जा सकता है. यानी या तो जहर से जहर को काटिये और  या फिर गन्दगी उगलते इन तरह-तरह के पाइपों के भीतर ही प्रवेश कर एक साफ़ हवा और वातावरण वाले निर्गम का मार्ग प्रशस्त कीजिये। एक भ्रम से हमें अब बाहर निकलना होगा। वह यह कि आज की पीढ़ी को अरुणि कुमार(Aruni Kumar), भक्त प्रह्लाद (Bhakt Prahlad), बालक ध्रुव (Dhruv) अथवा वीर शिवाजी (Shivaji the warrior) के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर बने चित्र दिखाने का कोई विशेष अर्थ नहीं रह गया है. कारण यह कि तर्क प्रधान सोच के चलते इन प्रसंगों के सच्चे होने के बावजूद उनसे जुड़ी आज की पीढ़ी की कई जिज्ञासाओं को शांत करना आसान नहीं रह गया है. तो हमें अपने बीच से नरेंद्र कोहली (Narendra Kohli) तथा रामकुमार भ्रमर (Ramkumar Bhramar) की शैली वाले यथार्थवादी रचनात्मक विद्वान् तलाशने होंगे। कोहली ने रामकथा एवं भ्रमर ने महाभारत (Mahabharata) को यूं प्रस्तुत किया कि उनकी मूल आत्मा सुरक्षित रही और उनसे जुड़े सभी संदर्भ पश्चिमी पूर्वाग्रहों से ग्रसित विपरीत तर्कों की धार को भी भोथरा करने में सफल रहे. इसके लिए एक धारदार विचार प्रक्रिया को तराशने की आवश्यकता महसूस की जा रही है, हमें परिवर्तन को समझकर उसके अनुसार आगे बढ़ना सीखना ही होगा। दूरदर्शन(Doordarshan) पर वह समय भी था, जब धारावाहिक ‘रामायण’ तथा ‘महाभारत’ को किसी पूजन विधि जैसी श्रद्धा के साथ अंगीकार किया गया. किन्तु बीते वर्ष के लॉकडाउन को याद करें। जब यही धारावाहिक पुनः प्रसारित किये गए तो आज की पीढ़ी उनके के सोपानों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाती नजर आयी. वजह यह कि रामायण वाले रामानंद सागर (Ramanand Sagar) और महाभारत वाले बीआर चोपड़ा (BR Chopra)  के पास कोहली या भ्रमर जैसी तर्कशील समझ का अभाव था. हम अपनी मान्यताओं की वैज्ञानिक व्याख्या में काफी हद तक सफल रहे हैं. ऑक्सीजन के स्रोत के माध्यम से पीपल की पूजा वाली बात को हम जस्टिफाई कर चुके हैं. कोरोना के संक्रमण ने हमारी प्रणाम सहित प्राणायाम और यज्ञ तथा दाह संस्कार वाली मान्यताओं को सारे विश्व में किसी  अनिवार्यता की तरह स्थापित कर दिया है. हम हनुमान चालीसा  के ‘युग सहस्त्र जोजन पर भानू’ को धरती से सूरज की दूरी नापने में सक्षम प्राचीन भारतीय दर्शन की वैज्ञानिकता से जोड़ चुके हैं. हमने वेद की ऋचाओं के आधार पर दुनिया को बता दिया है कि गैलिलियों (Galileo) से भी हजारों साल पहले हमारे ऋषि-मुनि यह जान चुके थे कि सूरज ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है और पृथ्वी उसके चक्कर लगाती है. तमिलनाडु (Tamilnadu) और श्रीलंका (Sri Lanka) के बीच समुद्र की छाती चीरकर ली गयी सैटेलाइट इमेज सिद्ध कर चुकी हैं कि त्रेता युग (Treta Age) में भी भारतीय इंजीनियरिंग कितनी समृद्ध थी. त्रेता युग वाला ही रावण(Ravana) का पुष्पक विमान (Pushpak Aeroplane) आज के जेट युग की शुरूआत का महत्वपूर्ण चरण माना जाने लगा है. ये सब इसलिए हुआ कि हमने आधुनिक अवधारणाओं की कसौटी पर अपने प्राचीन ज्ञान को सही सिद्ध कर दिया है. अब ऐसे ही प्रयास ओटीपी की अम्ल वर्षा को रोकने के लिए करना आवश्यक हो गया है. मनोरंजन को  भारत में  नाना भांति के मनोरोग बनाने वाले गिरोहबद्ध प्रयासों के विरुद्ध आज ऐसा करके भी हम अपने कल को और संवार सकते हैं,

 

 

 

 

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