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भाजपा के कांग्रेसीकरण की कोशिशों का इलाज जरूरी

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‘पार्टी विद डिफरेंस (party with difference)’ की पहचान बनी रहती तो ऐसा होता भी। लेकिन अब क्या यह इतना आसान है। मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में भाजपा संगठन और सरकार (BJP organization and government) के लिए यह ‘डोज’ बहुत जरूरी तो था। राष्ट्रीय सह-संगठन महामंत्री शिवप्रकाश (Shivprakash) ने शुक्रवार को भोपाल में जो तेवर दिखाए, यदि उनका सही में असर हुआ (पालन के साथ) तो यह कई मायनों में दिशा से भटककर पंजा छाप भाजपाइयों पर नकेल कसने की इस दल की जरूरत को पूरा करेगा। पंद्रह साल और उसके बाद के पंद्रह महीनों पश्चात फिर मिली सत्ता का गुरूर भाजपा में साफ दिखने लगा है। लेकिन ऐसा अकेले मध्यप्रदेश में ही नहीं है। भाजपा में तो ये बीमारी दिल्ली से नीचे तक है। आखिर अब केन्द्र की सत्ता में भी तो बहुमत के साथ सात साल पूरे हो ही गए हैं। अब बात क्योंकि शिवप्रकाश ने भोपाल में कही है और मध्यप्रदेश के संदर्भ में है तो इसे दिल्ली तक खींचने में ये दूर तलक चली जाएगी।

भोपाल सहित पूरे प्रदेश में कहीं भी चले जाइए, ढेरों पार्टी नेताओं के लक्जरी वाहन के आगे शान से उसके मालिक के पद वाली बड़ी प्लेट लगी दिखेगी। होर्डिंग तथा पोस्टरों के जरिये अपने श्रीमुख को जनता की आंख में ठूंसने की जैसे होड़ मची हुई है। इन भारी-भरकम कीमत वाले वाहनों को देखकर उन असंख्य सच्चे भाजपाइयों की याद दु:ख के साथ आती है, जिन्होंने सादगी के साथ और बगैर इस तरह के किसी तामझाम को अपनाते हुए पार्टी को मजबूत करने में जीवन खपा दिया। इन होर्डिंग और पोस्टर छाप नेताओं (billboards and posters imprint leaders) के चलते वह अभागा थैला चलन से बाहर कर दिया गया है, जिसमे रखे चने-चबैने का ही सेवन करते हुए कार्यकर्ताओं ने किसी समय भाजपा के प्रचार और प्रसार के लिए जीवन के सभी सुखों का परित्याग कर दिया था। कालांतर में तो चने या चबैने की जगह अपनी-अपनी जेब में भरे काजू-बादाम ने ले ली। पैदल चलकर पूरे प्रदेश की खाक छान लेने वाले समर्पित और अब गुमनाम हो चुके चेहरों का स्थान फर्राटा भरकर धूल उड़ाते वाहनों वाले नेताओं ने ले ली है। सच कहें तो ‘चेहरों’ से लेकर ‘नेताओं’ तक वाला यह खतरनाक सफर BJP के किसी डेड एंड का ही रास्ता खोल रहा है।

मैंने भोपाल में पुराने शहर में पीरगेट का वह पूर्व भाजपा कार्यालय (BJP Office) देखा है, जहां यह पार्टी दरी बिछाते अपने किसी वरिष्ठ के पसीने से सींची जाती थी। जहां से जारी किसी प्रेस विज्ञप्ति को अखबारों के कार्यालय तक पहुंचाने वाला इस के लिए किसी वाहन की प्रतीक्षा नहीं करता था। पैदल से लेकर साइकिल या सार्वजनिक बस में सवार होकर वह इस जिम्मेदारी को पूरा करता था। किसी भी शिकायत के बगैर। और आज ये स्थिति है कि शिवप्रकाश जिलाध्यक्षों को इस बात के लिए फटकार रहे हैं कि क्यों उन्हें दौरा करने के लिए गाड़ी की जरूरत है? यदि राष्ट्रीय सह-संगठन महामंत्री National Co-Organization Secretary General() को यह स्पष्ट करना पड़े कि नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) का ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’ वाला वाक्य 11 करोड़ भाजपाइयों पर भी लागू होता है, तो स्पष्ट है कि ‘खाने नहीं दूंगा, लेकिन खुद खाऊंगा’ वाला तत्व कैसे दीमक की तरह BJP के आदर्शों को खोखला करने लगा है। जिनकी कभी बात सुनाई तो देती थी। अब तो बात भी बंद है। आखिर सब देख ही रहे हैं कि चुनाव में धन खर्च करने में भाजपा कब की कांग्रेस (Congress) को पीछे छोड़ चुकी है। लेकिन ये बात भला शिवप्रकाश भी ऊपर से कहां शुरू कर पाते होंगे। इसके लिए मध्यप्रदेश ठीक है।

अगर मंत्रियों को यह ताकीद की जाए कि वह अपने प्रभार वाले जिलों में जाने का क्रम बढ़ाएं तो यह इंगित करता है कि कैसे इस दल में संवादहीनता की खरपतवार बढ़ती ही जा रही है। फिर शिवप्रकाश ने बन्दर की कहानी सुनाई, वह उन भाजपाइयों के लिए कड़ी चेतावनी है, जिनकी पार्टी के लिए सक्रियता नारेबाजी से लेकर होर्डिंग और पोस्टरबाजी तक ही सिमट कर रह गयी है। फोड़ा पकने लगे तो फिर चीरा लगाने की बेहद दर्दनाक प्रक्रिया के माध्यम से ही उसका मवाद बाहर निकाला जाता है। भाजपा के विशेषत: नयी पीढ़ी के नेताओं में से अधिकांश का खांटी कांग्रेस जैसा आचरण इस पार्टी के समर्पित तबके को निश्चित ही मवाद के कसैलेपन से भर देता होगा। फिर यहां तो नौबत किसी फोड़े के नासूर का स्वरूप लेने तक पहुंच गयी है। तो इस दल के लिए जरूरी हो गया है कि शिवप्रकाश की मंशा के अनुरूप या तो गलत लोग खुद ही सुधर जाएं या फिर उन्हें चीरा लगाने जैसी अनिवार्य क्रूरता के साथ अलग कर दिया जाए।

इस स्थिति का बहुत ही हास्यास्पद पहलू यह भी कि शिवप्रकाश के कथन में जिन के लिए चेतावनी छिपी हुई है, उनमें से कमोबेश एक भी चेहरा वह नहीं है, जिसके चलते BJP को प्रदेश में ताकत मिली हो। ये वे कुकुरमुत्ते हैं, जो कुशाभाऊ ठाकरे (Kushabhau Thackeray) से लेकर शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) तक की मेहनत से पार्टी को नसीब हुई सफलता की बरसात के चलते यहां-वहां पनप गए हैं। ठाकरे और शिवराज के बीच और बाद में भी बहुत सारे नाम हैं जिन्होंने भाजपा को यहां तक पहुंचाने के लिए खुद को खपाया है। लेकिन अब हावी कुकरमुत्ते किसी अमरबेल की तरह पार्टी पर काबिज होकर उसका सत्व चूसने में लगे हुए हैं। शिवप्रकाश का संगठन से जुड़ा लंबा तथा निर्विवाद अनुभव है। साफ है कि उन्होंने अपनी पारखी दृष्टि से जो देखा, उसे बेकाबू होता पाकर ही वह ऊपर बतायी गयी बातें कहने के लिए विवश हुए होंगे। अब यह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तथा प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा (State President VD Sharma) की बड़ी जिम्मेदारी हो गयी है कि वह ठाकरे जी के मध्यप्रदेश में सत्ता तथा संगठन के ‘कांग्रेसीकरण’ में जुटे तत्वों को चिन्हित कर उनका स्थाई इलाज करें। फोड़े के नासूर बनने से पहले ऐसा किया जाना जरूरी हो गया है। इसकी शुरूआत वहां से करनी होगी, जब किसी सच्चे भाजपाई ने कार्यालय या पार्टी के किसी कार्यक्रम में दरी बिछाते/झाड़ू लगाते समय किसी पद या लाभ की कोई लालसा नहीं की होगी। यह भाजपा के लिए उसी झाड़ू के हत्थे या दरी के सिरे को पकड़ने वाले प्रशिक्षण की एक बार फिर बड़ी आवश्यकता बन गयी है।

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