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भाजपा के लिए जरूरी है कि याद रखे ठाकरे को

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दो बड़े सवाल हैं। भारतीय जनता पार्टी (BJP) अपने पितृ-पुरुष कुशाभाऊ ठाकरे (Kushabhau Thackeray) का केवल स्मरण कर रही है? या फिर उनका जन्म शताब्दी वर्ष(birth centenary year) वाकई नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए अनुसरण करने का माध्यम भी बनेगा? बात कुशाभाऊ ठाकरे के आदर्श को महज भाषणों में दोहराने तक सिमट कर रह जाएगी, या मामला उन आदर्शों को अपनाने के रूप में भी दिख सकेगा?

भोपाल के इसी दीनदयाल उपाध्याय परिसर (Deendayal Upadhyay Complex) में मैंने ठाकरे जी के 75 वें जन्मदिन पर उनका अमृत महोत्सव (Amrit Mahotsav) देखा था। कार्यक्रम में दिवंगत प्रमोद महाजन (Pramod Mahajan) भी आये थे। उन्होंने नसीहत देने की शैली में कार्यकर्ताओं को ठाकरे से जुड़ा एक संस्मरण सुनाया। कहा कि काफी पहले उन्हें कुशाभाऊ के साथ रेल में सफर का अवसर मिला। ठाकरे के पास पानी की एक बोतल थी, जो महाजन को बहुत पसंद आयी। महाजन ने कई बार बोतल की प्रशंसा की और हर मर्तबा इसे सुनने के बाद भी ठाकरे की भाव-विहीन प्रतिक्रिया ही सामने आयी। कुशाभाऊ का स्टेशन महाजन से पहले आना था। जब गाड़ी वहां पहुंची तो महाजन सो चुके थे। सुबह जब नींद खुली तो महाजन ने पाया कि ठाकरे अपनी वह बोतल चुपचाप उनके सिरहाने रख गए थे।

कुशाभाऊ अब इस दुनिया में नहीं हैं। भाजपा के जो लोग उनके नाम की आज तक कसमें खाते हैं, उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि ठाकरे उन सभी के सिरहाने पर जो सीख रख अपनी जीवन यात्रा पूरी कर गए, उस सीख की क्या उन्हें जरा-सी भी सुध है? कुशाभाऊ से लेकर प्यारेलाल खंडेलवाल (Pyarelal Khandelwal) जैसे खांटी भाजपा नेताओं की एक पूरी पीढ़ी का अवसान हो चुका है। वे सब आज की भाजपा के नीवं के पत्थर थे। उनके साथ ही BJP में तेजी से वह मूल्य और सिद्धांत भी तिरोहित कर दिए गए, जिनके बल पर ठाकरे या खंडेलवाल आदि ने भाजपा को दिशा दी। ये तो मध्यप्रदेश की बात है, इस पार्टी में देश भर में ऐसे कई कार्यकर्ता हुए हैं। शायद ऐसे ही लोगों ने इस दल को न सिर्फ ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ बनाया, बल्कि आजन्म इस स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए खुद को खपा दिया।

अब भाजपा औरों से बहुत अलग होने के इस भाव से कदम-कदम पर समझौता कर रही है। वह ऐसा करने की अभ्यस्त हो चुकी है। ये नेताओं तथा कार्यकर्ताओं की मौज वाली फौज है। कैलाश विजयवर्गीये (Kailash Vijayvargiya) ने अगर ठाकरे जी को याद करते हुए ये कहा है कि पार्टी के प्रति समर्पण का भाव मिसिंग लग रहा है तो गलत नहीं था। या नरेन्द्र सिंह तोमर (Narendra Singh Tomar) ठाकरे जी को याद करके यह कह रहे थे कि निर्णय लेने की प्रक्रिया छोटी होती जा रही है या कुछ लोगों में सिमट रही है तो यह उनका अनुभव है। सत्ता सुख के लिए घोर विपरीत विचारधारा को भी गले लगा लेना। ये लकदक वाली राजनीति। और भी ऐसे कई बदलाव इस दल में आ चुके हैं, जिन्हें मरने के बाद भी ठाकरे या खंडेलवाल दिल से नहीं स्वीकार पा रहे होंगे। फिर सत्ता में आने के बाद अब भाजपा के नेता तथा कार्यकर्ताओं में आये भारी बदलाव को देखकर तो यह लगता ही नहीं है कि यह सचमुच कभी पार्टी विथ डिफरेंस हुआ करती थी। यदि इस स्वरुप को वापस पाना है तो फिर भाजपा को कुशाभाऊ ठाकरे को हमेशा याद रखना होगा। किसी जन्मशताब्दी वर्ष के कर्मकांड के माध्यम से नहीं, बल्कि सच्चे अर्थों में उनके बताये मार्ग पर चलना होगा।

निश्चित ही दलीलों में बड़ी ताकत होती है। इस आधार पर भाजपा के बदलाव के हिमायती यह कह सकते हैं कि किसी अन्य दल की सरकार के कमजोर होने पर जनाधार बढ़ाने के लिए मौका लपक लेना गलत नहीं है। आप अयोध्या विध्वंस (Ayodhya Demolition) के बाद सुंदरलाल पटवा सरकार (Sunder Lal Patwa government) को अपदस्थ करने की बात याद दिलाकर भी इस तरह की ‘बदले वाली प्रवृत्ति’ को सही ठहरा सकते हैं। किन्तु क्या ये वाकई सही है? किसी राजनीतिक नैतिकता, यदि राजनीति का नैतिकता से वास्ता हो तो, नहीं भी है लेकिन यदि आप बात करते हो तो ये वास्ता पैदा होता है। सोचना पड़ेगा कि क्या वो अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) गलत थे, जिन्होंने महज एक सांसद के वोट के कमी जैसे मामूली फैक्टर को भी नजरंदाज करते हुए PM पद से इस्तीफा दे दिया था?

एक बहुत विस्मयकारी बदलाव और देखने मिल रहा है। वह यह कि भाजपा पर से इसकी मातृ इकाई राष्ट्रीय स्वयं सेवक (RSS) की पकड़ कम हो रही है। अब संघ हर मामले में तो भाजपा में सीधा दखल देता नहीं है लेकिन यहां तो उसे ही चिंता करना पड़ेगी। यह ध्यान रखते हुए कि सत्ता का असर उसके खुद के प्रचारकों के चरित्र पर भी छींटे डाल रहा है। कम से कम मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) के स्तर पर तो ऐसा खुलकर हो रहा है। संघ यहां भाजपा को उसके मूल से डीरेल होता देखने के बाद भी अक्सर या तो मौन दिखता है और या फिर अपनी जवाबदेही जितनी सख्ती नहीं दिखा पा रहा है। सरकार तथा संगठन के समन्वय की कमी की बात हो या हो चर्चा सरकार तथा संगठन का पार्टी के कार्यकर्ताओं से मेलजोल का, भाजपा इस सभी मामलों में कुशाभाऊ की सीख से बहुत दूर जा चुकी है। यह बहुत कुछ ऐसा है, जिसकी आलोचना करने का पुरजोर तरीके से मन करता है। फिर भी गनीमत है कि संघ के चलते ही भाजपा अब भी कई स्तर पर लांछनों से बची हुई है। इस दल में भी बढ़ती परिवारवाद की फितरत को संघ के चलते ही अन्य दलों जितना बढ़ावा नहीं मिल पा रहा है। कम से कम यह तो हो ही रहा है कि यदि कोई वरिष्ठ नेता अपने परिवार के लिए जगह बनाता है तो फिर इसकी कीमत उसे खुद का स्थान छोड़कर ही चुकाना पड़ रही है। आप बेशक विश्वास सारंग, दीपक जोशी या राजेंद्र पांडे का नाम अपवाद के रूप में गिना सकते हैं, लेकिन आप यह नहीं भुला सकते कि इन तीनों ने ही छात्र राजनीति से अपना सफर शुरू किया और संघर्ष के माध्यम से ही अपनी जगह बनायी।

अंग्रेजी में एक कहावत है कि आप किसी घोड़े को पानी के स्रोत के नजदीक ला सकते हैं, किंतु आप उसे वह पानी पीने ले लिए मजबूर नहीं कर सकते। दिवंगत महाजन जी के लिए मेरे दिल में पूरा सम्मान है, किन्तु उन्होंने भी कुशाभाऊ से पानी की वह बोतल तो प्राप्त कर ली थी, लेकिन कालांतर में खुद महाजन भी ठाकरे की सीख से बहुत अलग जाकर भाजपा के फंड मैनेजर में बदल गए थे। यह संक्रमण इस दल में बुरी तरह जड़ें जमाता जा रहा है। फिर भी, यह भाजपा है। उसमें अपने भीतर 360 डिग्री वाले कोण से बदलाव लाने की क्षमता आज भी मौजूद है। यह परिवर्तन उसके सुखद भविष्य के लिए अनिवार्य भी है। लेकिन एक सवाल और है, भाजपा यह तब्दीली सत्ता में रहते हुए ही ला पाएगी या फिर इसके लिए उसे उसी दीर्घावधि वाली पाठशाला में फिर जाकर बैठना पड़ेगा, जिसे विपक्ष कहते हैं?

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