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कहां जरूरत है भाजपा को शिवराज का विकल्प तलाशने की…..

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सचमुच यह तूफान से कश्ती को सुरक्षित तरीके से निकाल लाने जैसी बात है। ऐसा करिश्मा शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) ने कर दिखाया। शिवराज के इस करिश्मे और पार्टी की जीत की खुशी के बावजूद कई उन लोगों के लिए ये परिणाम निराशाजनक साबित हुए जिन्हें प्रदेश की सत्ता में बदलाव का इंतजार है। उपचुनाव (by-election) में भारतीय जनता पार्टी (BJP) को मिली जीत आसान नहीं थी। यह देश में हुए तीन लोकसभा और बाकी राज्यों के विधानसभा चुनावों ने भी साफ कर दिया है। भाजपा के लिए अखरने वाली हार हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) के मंडी लोकसभा सीट (Mandi Lok Sabha seat) की है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा (JP Nadda) के गृहप्रदेश में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले की यह हार भाजपा के लिए अलार्मिंग है। लेकिन मध्यप्रदेश में एक लोकसभा और तीन विधानसभा सीटों में से तीन पर जीत दर्ज कर शिवराज ने साबित कर दिया कि मध्यप्रदेश में उनकी मौजूदगी पार्टी की चुनावी सफलताओं के लिए जरूरी है।

जरूरी चीजों की महंगाई, खासकर पेट्रोल-डीजल (petrol-diesel) के दामों में लगी आग ने निश्चित ही जनता को परेशान कर रखा है। स्थिति स्वाभाविक रूप से जन आक्रोश पनपने जैसी है। फिर भी यदि मतदाता ने भाजपा को जिताया है तो स्पष्ट है कि उसने अपनी इन समस्याओं की तुलना में उन समाधानकारी योजनाओं को महत्व दिया, जिन्हें केंद्र की नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) की शिवराज सिंह चौहान सरकार (shivraj singh chauhan government) ने लागू किया है। आम जनता को सीधे लाभ पहुंचाने की गरज से मकान के लिए पैसा, गैस कनेक्शन और किसानों के खाते में सम्मान निधि डालने की योजनाओं को मध्यप्रदेश के मतदाता ने आज अपना समर्थन प्रदान कर दिया है। मध्यप्रदेश में तो किसानों के खाते में दस हजार रूपए साल आ रहे हैं। यूं भी किसान आंदोलन (farmers movement) का मध्यप्रदेश में कोई असर नहीं रहा और अन्नदाता को दस हजार रुपए की सम्मान निधि देकर भाजपा उसका विश्वास कायम रखने में सफल रही है। जाहिर है कि कम से कम प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में महंगाई लोगों के लिए मुद्दा नहीं बन सकी। ये शिवराज की छवि, संगठन से तालमेल बैठाने की उनकी आदत और चुनाव में जीतोड़ मेहनत करने से ही संभव हो सका है।

वे तमाम लोग वैचारिक रूप से एक बार फिर निठल्ले हो गए हैं, जो आये दिन अफवाहों की रेहड़ी लगाकर शिवराज को हटाए जाने की बात करते हैं। क्योंकि इस नतीजे ने एक बार फिर साफ कर दिया है कि मध्यप्रदेश में शिवराज के किसी विकल्प को तलाशने का कोई तुक ही नहीं है। मुख्यमंत्री ने दमोह की हार से सबक लिया और कांग्रेस (Congress) ने इसी सीट पर जीत के चलते मुगालते पालने की बहुत बड़ी गलती कर दी। कांग्रेस ने दमोह के उपचुनाव में अपनी जीत को सरकार के प्रति जनता की नाराजगी (public displeasure) से जोड़ लिया। इस उपचुनाव में भी कमलनाथ (Kamalnath) और कांग्रेस यही प्रचारित करते रहे कि वे दमोह पेर्टन पर चुनाव लडेंगे। जबकि हकीकत यह है कि दमोह भी कांग्रेस का कोई पेर्टन तो था ही नहीं जो कुछ था वो राहुल सिंह लोधी (Rahul Singh Lodhi) से नाराजगी थी। इस बार भाजपा में उम्मीदवारों के चयन को लेकर थोड़ा आंतरिक संघर्ष जरूर हुआ लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो सका जिसे दमोह पेर्टन की सफलता के तौर पर कांग्रेस दोहरा पाती। यह तय है कि यदि राहुल सिंह लोधी उस समय कांग्रेस से ही दोबारा चुनाव लड़ते, तब भी उनका हारना तय था। इस सच को न मांनने का आज कांग्रेस ने खामियाजा भुगता है। दमोह की हार के बाद शिवराज ने सत्ता और संगठन के बीच जिस तरह से संतुलन कायम किया, वह भाजपा की जीत के रास्ते खोलने की महत्वपूर्ण कुंजी बना है। भाजपा ने जोबट (Jobat) और पृथ्वीपुर (Prithvipur) की दोनों सीटें कांग्रेस से छीन ली हैं लेकिन रैगांव (raigaon) की अपनी सीट कांग्रेस के हाथों गंवा दी है। खंडवा में भी जीत का अंतर अगर पचास हजार पर ही सिमट गया है तो इसका विश्लेषण करने का काम भाजपा संगठन (BJP organization) को करना पड़ेगा। सरकार की तरफ से शिवराज ने चारों सीटों पर धुआंधार तरीके से सभाए लीं। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा भी उनके साथ पूरे समय सक्रिय रहे। इधर, भाजपा चुनाव प्रबंध समिति के संयोजक (Convenor of BJP Election Management Committee) और मुख्यमंत्री के विश्वसनीय भूपेंद्र सिंह (Bhupendra Singh) ने पूरी खूबी के साथ सत्ता तथा संगठन के इस संयोजन को और ताकत प्रदान की। कुल मिलाकर इस को-आर्डिनेशन तथा चुनाव प्रबंधन से शिवराज ने स्वयं को ‘आल टाइम ग्रेट’ वाली लाइन में ससम्मान ला बिठाया है।

इस समीक्षा को प्रशंसा से न जोड़ा जाए। बल्कि यह स्थापित फैक्ट है कि शिवराज ने आम जनता के बीच से लेकर संगठन तक अपनी महारत से भाजपा को ये बड़ी सफलता दिलाई है। ये उनका प्रबंधन ही है कि वह जोबट, पृथ्वीपुर और रैगांव में भाजपा प्रत्याशियों के लिए पार्टी के भीतर ही उपजे असंतोष को भी समाधानकारी तरीके से समाप्त कर सके। खंडवा में तो भितरघात की काफी ‘वरिष्ठ स्तरीय’ परिस्थितियां आकार लेने लगी थीं, लेकिन वहां भाजपा को जिस बड़े अंतर से जीत मिली, उससे स्पष्ट है कि शिवराज की छवि का दम अब भी बाकी है और उनसे आगे निकलने की कोशिशों में विपक्ष को दम फूलने के अलावा और कुछ हासिल नहीं हो सकेगा।

भाजपा ने यहां कांग्रेस से दो सीटें छीनीं और जिस रैगांव को उसने खोया है, उसमें भी कांग्रेस की ताकत की बजाय भाजपा की आतंरिक गुटबाजी का ही ज्यादा असर हुआ है। यदि राष्ट्रीय परिदृश्य की समीक्षा की जाए, तो यह स्पष्ट समझा जा सकता है कि शिवराज ने कितनी विपरीत परिस्थितियों को भाजपा के लिए अनुकूल बना दिया। हिमाचल प्रदेश में अपनी सरकार होने के बाद भी भाजपा नाकाम रही। वहां सभी सीटों पर कांग्रेस जीती है। राजस्थान (Rajasthan) में भाजपा को जैसे एंटी इनकंबेंसी भुनाना ही नहीं आया। पश्चिम बंगाल में तो खैर इस पार्टी के पास कोई खास संभावनाएं थी ही नहीं। हां, अपनी सरकार वाले असम में भाजपा की कुछ इज्जत बच गयी। इन सभी नतीजों के मुकाबले मध्यप्रदेश की चार में से तीन सीटें सम्मानजनक अंतर से जीतकर शिवराज ने यह साबित कर दिया है कि विरोधी दलों के साथ ही साथ वह पार्टी के भीतर भी अपने कई समकक्षों से काफी आगे चल रहे हैं।

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