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न कट्टरता फैलाइए न ही ऐसी कायरता भी

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सब्यसाची मुखर्जी (Sabyasachi Mukherjee) कोई इकलौता नाम नहीं है। उन्हें केवल एक फैशन डिजाइनर (fashion designer) के तौर पर मत जानिये। ये गलतफहमी तो अपने आसपास भी मत भटकने दीजिये कि मंगलसूत्र को अपमानित करने वाला विज्ञापन (advertisement) हटाने का मतलब उन्हें कोई ग्लानी या पश्चाताप हुआ है। या विज्ञापन हटने से मुखर्जी की पराजय हो गयी है। क्योंकि केवल एक विज्ञापन हटा है। महज एक शख्स को अपने कदम पीछे लेने पड़े हैं। वो तमाम रक्तबीज शायद ही कभी खत्म हो सकेंगे, जिनका ताजा प्रतिनिधित्व मुखर्जी ने किया है। पूर्व में उस जैसे अनंत लोग ऐसा कर चुके हैं और आने वाले समय में भी इसी रक्तबीज के और चेहरे आपको इसी तरह की मानसिकता का प्रसार करते हुए दिखेंगे। ऐसा इसलिए कि हिन्दूओं की सहिष्णुता (tolerance of hindus) को उनकी कायरता के रूप में पहचान मिल गयी है।

हिन्दू स्त्री (Hindu woman) के सुहाग का प्रतीक मंगलसूत्र  यदि नग्नता के पलड़े पर तौल दिया जाए तो यह निश्चित ही आपत्तिजनक (objectionable) है। मुखर्जी ने ऐसा ही किया। उन्होंने मंगलसूत्र को लेकर किसी सी ग्रेड फिल्म के पोस्टर की ही तरह का विज्ञापन बना दिया। आज के दौर में आप हिन्दू मान्यता (Hindu belief) सहित धर्म से जुड़ी किसी भी बात को बहुत आसानी से लांछित कर सकते हैं। ये सिलसिला पुराना है। और वह नयेपन से भी साजिशन जोड़ दिया जाता है। मसलन, यदि सलीम-जावेद (salim-javed) की लिखी शोले में नायक को मंदिर में नायिका पर डोरे डालते दिखाया गया था तो कालांतर में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने बयान दिया कि लड़के मंदिर में लड़कियों को छेड़ने जाते हैं। अगर गुजरे दौर में सुल्तान अहमद (sultan ahmed) की फिल्म ‘हीरा’ में ‘मैं तुझसे मिलने आयी मंदिर जाने के बहाने’ वाला गीत शामिल किया गया तो बाद में यह भी हुआ कि उज्जैन के महाकाल मंदिर (Mahakal Temple) में एक महिला मादक अंदाज (intoxicating style) का नाचते हुए वीडियो बना गर्इं।

ये सब ऐसे ही चलता चला आ रहा है। स्कूली शिक्षा में पर्दा प्रथा की बुराई खूब पढ़ी, लेकिन ये बात समाज की पाठशाला ने ही बतायी कि कुप्रथाओं में तो तीन तलाक, हलाला और बुर्का भी शामिल हैं। इसी को विस्तार दिया अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan) ने। कौन बनेगा करोड़पति (Who wants to be a millionaire) के एक शो में एक महिला के सिर ढंकने को बच्चन ने गलत करार दिया। जबकि इसी कार्यक्रम में बुरका पहनकर आयी दो प्रतिभागियों का वह हाथ जोड़कर अभिनन्दन करते नजर आये। हिजाब पर एक भी शब्द बोले बगैर। एक एमएफ हुसैन (MF Hussain) को हिन्दू देवियों (Hindu Ladies) का नग्न चित्रण करने पर तथाकथित हिन्दुओं का ही समर्थन मिला। इस बढ़ावे के चलते ही हिम्मत इतनी बुलंद हुई कि हाल ही में दिल्ली एम्स (Delhi AIIMS) में शोएब आफताब ने रामलीला के नाम पर हिन्दू मान्यताओं का मजाक बना दिया।

ये सब इसलिए नहीं कि हिन्दू सहिष्णु है, बल्कि इसलिए कि उसने सहिष्णुता (tolerance) की चादर में अपनी वैचारिक नपुंसकता को ढंकने के अलावा और कुछ भी नहीं किया है। ये तो कतई नहीं होना चाहिए कि धर्म पर आघात के विरुद्ध हिंसा का सहारा लिया जाए, किन्तु यह भी तो नहीं होना चाहिए कि इसके विरुद्ध आवाज ही न उठे। और जो स्वर उठते हैं वे भी कबीरदास जी (Kabir Das Ji) के ‘देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात’ की तरह ही क्षणभंगुर प्रवृत्ति के होते हैं। धर्म के अपमान से व्यथित अधिकांश लोग सोशल मीडिया (social media) पर इसका विरोध करते हैं और जैसे ही आरोपी अपने किए से पीछे हटता है, हम सब भूलकर चुपचाप बैठ जाते हैं। जबकि आज तक की घटनाओं से साफ है कि आरोपी एक कदम पीछे हटकर दो कदम आगे बढ़ने की तैयारी ही करता है। अंतर केवल इतना है कि इसके बाद वह स्वयं नहीं, बल्कि अपनी इस फितरत को आगे बढ़ाता है। किसी दूसरे चेहरे की शक्ल में। ये उस तरह की रिले रेस है, जिसके ट्रैक से एक मकबूल फिदा हुसैन हटता है तो अपनी जगह किसी शोएब आफताब (Shoaib Aftab) को दौड़ने का माहौल प्रदान कर देता है। आज एक सब्यसाची मुखर्जी इस दौड़ से हटा है और कल उसकी जगह कोई और हिन्दुओं की किसी और तरीके से बेइज्जती करता हुआ दिखेगा।

ये गिरोह निश्चिन्त है कि मामूली विरोध से ज्यादा उसका और कुछ नहीं बिगाड़ा जाएगा। कम से कम हिन्दू समाज (Hindu society) की तरफ से तो वह इस बात के लिए पूरी तरह बेफिक्र है। दरअसल हमारी रीढ़ इतनी कमजोर है कि उसकी यदि उसकी छड़ी बन गयी तो हम खुद भी उसके सहारे खड़े नहीं हो सकेंगे। ऐसी मानसिकता के विरुद्ध कट्टरता नहीं तो कम से कम कायरता भी नजर नहीं आना चाहिए। यह नहीं कर सकते तो कम से कम वह बेवकूफाना हिम्मत ही रोक लीजिए जो कई हिन्दू ही करते हैं। करवा चौथ (karva chauth) पर एक बार फिर इस पर्व से जुड़े लतीफों की सोशल मीडिया पर झड़ी लग गयी। लिखने वाले लगभग सभी हिन्दू। लाइक और फॉरवर्ड करने वालों की भी ज्यादा संख्या हिन्दुओं की ही। क्या इसे हिम्मत कह सकते हैं? अपनी परम्पराओं और आस्थाओं पर यह मजाक शर्मनाक है। जब खुद हम ही अपनी मान्यताओं का सम्मान नहीं रख सकते तो फिर एजेंडाधारियों को तो इससे एक कदम आगे जाकर अपना काम करने का मौका मिलेगा ही।

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