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कोरोना पे ये राहुल का रोना….

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बिना किसी बहस मुबाहसे के राहुल के इस फैसले का मैं दिल से स्वागत कर सकता था। बशर्ते वे पश्चिम बंगाल से पहले केरल, तमिलनाडू, असम और पांडिचेरी में भी कोरोना के कारण प्रचार नहीं करने के ऐसे ही साहस का प्रदर्शन कर चुके होते। तय है कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के लिए कोई संभावना दूर तक नहीं है। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस ने उस सीपीएम के साथ गठबंधन करके अपना अस्तित्व बचाने की कोशिश की है, जिसके खिलाफ केरल में वो मुख्य प्रतिद्धंद्धी है। पांच राज्यों के इन चुनावों में कांग्रेस के लिए सीधी संभावना असम, पांडिचेरी में ही है। इसके अलावा उसके गठबंधन की केरल और तमिलनाडू में भी उम्मीद की जा सकती है। तो इन राज्यों में राहुल गांधी ने प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कोरोना तो देश के इन राज्यों में भी फैला हुआ है। इन पांच राज्यों के चुनाव की घोषणा के साथ ही राहुल यदि ये साहसी फैसला ले चुके होते तो उनके सामने सब बौने साबित हो जाते। लेकिन राहुल ने पश्चिम बंगाल के चौथे चरण में आकर यह एलान किया है तो जाहिर है यहां उन्हें अपने बौने कद का अहसास है। इसलिए भी राहुल को छोड़ कर कांग्रेस के बाकी नेता बकायदा प्रचार में लगे हुए हैं। हां, ये ज्यादा बेहतर हो सकता है कि राहुल के फैसले के मीनमेख निकालने के बजाय भयावह होते कोरोना में सभी राजनीतिक दल भीड़ भरी रैलियां, रोड़ शो जैसे प्रचार के साधन छोड़ कर वर्चुअल तरीके से प्रचार शुरू कर दें। कोरोना ने जिस तेजी से देश में ढाई लाख मरीज रोज का बेकाबू होता आंकड़ा पार किया है, उसमें हमारी चुनाव प्रणाली और राजनीतिक दलों का बड़ा योगदान है।





पर फिर भी राहुल गांधी के अब पश्चिम बंगाल में प्रचार नहीं करने के फैसले से एक साथ कई खेमों में मायूसी फैल सकती है। भारतीय जनता पार्टी अपने अप्रत्यक्ष प्रचार में कमी महसूस कर रही होगी। आम लोगों में से बहुत बड़ी संख्या मनोरंजन की कमी की आशंका से जूझने में लगी होगी। सोशल मीडिया के ट्रोलर्स हाथ आता एक सुनहरा मौका पहले ही छिन जाने की शिकायत कर रहे होंगे। वे अजूबानुमा आशावादी तो स्वाभाविक रूप से निराशा में डूब गए होंगे, जिन्हें आज भी यह यकीन है कि बात कुछ और होती तो उनकी पार्टी/विचारधारा के हक में कम से कम इस बार तो क्रांतिकारी परिवर्तन हो ही गया होता।

राहुल के बाद दीदी भी नहीं करेंगी चुनाव प्रचार

नि:संदेह, यह बहुत अनुकरणीय शुरूआत है, बशर्ते इसके मूल में यही एक कारण होता, जो कांग्रेस बता रही है। बात अकेले पश्चिम बंगाल की नहीं है। कोरोना तो तब भी चरम पर था, जब इस राज्य के अलावा असम, केरल, पांडिचेरी या तमिलनाडू में राहुल और प्रियंका मेहनत कर रहे थे। इस वायरस का आतंक तब भी सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता जा रहा था, जब बिहार के अलावा मध्यप्रदेश में 28 सीटों के विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस ने नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ पूरी ताकत झोंक रखी थी। अभी दमोह में भी यही स्थिति है। तो फिर पश्चिम बंगाल के चौथे चरण में आकर राहुल के इस अचानक हुए हृदय परिवर्तन कितनी गंभीरता से लिया जाना चाहिए, ये एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।

पश्चिम बंगाल के चुनावी परिदृश्य में कांग्रेस केवल खानापूर्ति के लिहाज से सक्रिय दिख रही है। यहां विधानसभा की कुल 294 सीट हैं। फिलहाल इनमें से 23 सीटें कांग्रेस के पास हैं। पार्टी इस समय राज्य की केवल 92 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। बाकी यह साफ है कि मुख्य मुकाबला सीधे-सीधे तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच होना है। वामपंथी ताकतों का कभी गढ़ रहे इस राज्य में वे भी अब सियासी गलियारों में अतीत की बात बनकर रह गए हैं। कांग्रेस जानती है कि न तो वह तृणमूल के वोट कम कर सकती है और न ही भाजपा के कमिटेड वोटर को अपनी तरफ खींचने की उसकी क्षमता है। वह अपने केवल उन जबरदस्त असर वाले इलाकों में ही कुछ चमत्कार की उम्मीद कर सकती है, जिन इलाकों में भी उसकी पकड़ उल्लेखनीय तरीके से कमजोर होती जा रही है। उस पर राहुल गांधी देश के इस राज्य में भी क्राउड पुलर नेता वाली हैसियत नहीं रखते हैं। यहां तक कि कांग्रेस के साथ सियासी मधुमास वाले दिनों में भी ममता बनर्जी ने राहुल से अधिक तवज्जो सोनिया गांधी को ही दी थी। पश्चिम बंगाल में अब तक हुए मतदान में कहीं भी कांग्रेस की लहर तो दूर, हवा को कोई झोंका भी उसके पक्ष में अंगड़ाई लेता तक नहीं दिख रहा है। अपनी 23 सीटों में से भी वो कितनी बचा पाती है या बढ़ा पाती है, फिलहाल तो यही एक बड़ा सवाल है। इसलिए बहुत मुमकिन है कि कोरोना के नाम पर कांग्रेस ने सम्मानजनक तरीके से खुद को मैदान में पीछे करने वाला अस्त्र चला है। रणनीतिक तौर पर भी ऐसा करने से यदि ममता बैनर्जी का फायदा होता हो तो भाजपा को नुकसान पहुंचाने के लिए लिहाज से राहुल के इस फैसले की तारीफ की जा सकती है। पर ये चुनाव परिणाम आने के बाद पता चलेगा।




शाह का ममता पर हमला: बोले- दीदी शर्म करो

हालांकि तृणमूल कांग्रेस या बीजेपी की भीड़ भरी रैलियों को सही ठहराने का तो सवाल ही नहीं उठता है। लेकिन यह देश की राजनीतिक प्रणाली का रोना है जिसमें सत्ता हासिल करना किसी भी राजनीतिक दल का अकेला सबसे बड़ा उद्ेश्य होता है। कोरोना की विभीषिका के बीच यकीनन भीड़ वाल प्रचार खतरनाक है। अब तो ममता बैनर्जी ने भी कह दिया है कि वे भी भीड़ भरी रैलियां नहीं करेंगी। जाहिर है ममता ने यह फैसला भी भाजपा पर दबाव बनाने के लिए लिया होगा। लेकिन दूर तक आसार नहीं है कि भाजपा पर इस सबका कोई असर होगा। असम और पश्चिम बंगाल ही उसके लिए इन पांच राज्यों में महत्वपूर्ण हैं। पश्चिम बंगाल के रेगिस्तान में कुंआ खोदने में वो पिछले लोकसभा चुनाव में कामयाब हो गई थी तो अब तो उसके पीछे हटने का सवाल ही नहीं उठता। वैसे भी राजनीति साम,दाम,दंड, भेद के कारण निर्मोही और क्रुर होती है। फिर चाहे राजनीति नरेन्द्र मोदी की हो या राहुल, ममता या किसी और नेता या कांग्रेस, भाजपा या किसी और दल की। जब बात मरो या मारो वाली हो जाए तो राजनीतिक स्वार्थ सभी पर समान रूप से हावी होते हैं। मध्यप्रदेश में कोरोना के प्रसार के शुरूआती समय में यदि कमलनाथ ने सरकार बचाने की कोशिशों की बजाय इस दिशा में ध्यान दिया होता तो शायद आज राज्य के हालात इतने बुरे नहीं होते। लेकिन तब तत्कालीन मुख्यमंत्री नाथ का सारा फोकस कोरोना के बजाय अपने विधायक दल में पनपे बगावत के वायरस से निपटने में लगा हुआ था। फिलहाल यही एकाग्रता की स्थिति तृणमूल और बीजेपी के लिए भी पश्चिम बंगाल में बनी हुई है। यकीन मानिये यदि कांग्रेस इस राज्य में सरकार बनाने या फिर बीजेपी को आगे बढ़ने से रोकने में जरा भी सक्षम होती तो फिर राहुल गांधी की रैलियां स्थगित करने के निर्णय का सवाल ही नहीं उठता था। राजनीति में सिर्फ और सिर्फ सत्ता का महत्व है, लोगों की जान का नहीं। राजनीति का यह आदिम सिद्धांत है।

 

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