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किशोर का इंकार और कांग्रेस का रुख

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आप चाहें तो इसे सच का सही एसेसमेंट (assessment) कह लें, या फिर अपने एडजेस्टमेंट (adjustment) का प्रबंध कह लें। बात यह कि प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) ने कांग्रेस (Congress) में शामिल होने से इंकार कर दिया है। पता नहीं कि किसने और किस असंदिग्ध विश्वास के साथ यह लिखा था कि पीके कांग्रेस की कार्यसमिति (Congress Working Committee) की बैठक में पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष (national vice president) बनने के आत्माभिमान से चूर होकर आये थे। इसे मिथ्याभिमान कहना तो गलत होगा। क्योंकि तमाम मिली-जुली सफलताओं के बावजूद किशोर ने खुद को देश में चुनावी राजनीति (election politics) के लिहाज से कुछ हद तक रणनीतिकार (strategist) और बाकी संपूर्ण हद तक उपसंहार की सफलता का हकदार बनाने में तो महारत हासिल कर ही ली है। और ऐसे में कांग्रेस ही नहीं, बाकी कोई भी कमजोर राजनीतिक दल (weak political party) कुमार के सामने नतमस्तक होने में यकीनन अपना भला समझ सकता है। राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और प्रियंका वाड्रा (Priyanka Vadra) की समझ में श्रेष्ठता का भाव तलाशने की बचकाना नाकाम कोशिश के बीच यह बिलकुल समझा जा सकता है कि सोनिया गांधी जी (Sonia Gandhi) ने ही पीके के लिए एक लक्ष्मण रेखा खींची होगी और उन्हें यह बता दिया होगा कि वह मैनेजर से आगे अपने उस विस्तार की चेष्टा न करें, जो अंततः एक बार फिर कांग्रेस के लिए डैमेजर जैसा मामला साबित हो।

कॉलेज के दौर में एक सर इतिहास सिखाते हुए पूरे एक्सप्रेशन (expression) के साथ कहते थे, ‘हिटलर दांत किटकिटा के रह गया, लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के बाद की अपनी नाकामियों की छांव से खुद को कलंकित होने से नहीं बचा पाया।’ यह नहीं कि यहां किशोर की तुलना हिटलर (Hitler) से की जा रही हो, किन्तु यह तो अवश्य है कि वह वर्ष 2014 से लेकर अब तक दांत किटकिटाते हुए स्वयं की क्षमताओं के आभामंडल से बाहर हो जाने के दंश से पीड़ित होंगे। इस लिहाज से उनका कांग्रेस के लिए पदाधिकारी के तौर पर चयन सही था। क्योंकि लाख इफ और बट के बाद आज भी यह पार्टी ही वह दिखती है, जिससे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा (BJP) सर्वाधिक चौकन्नी है। स्वयं नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले और आज तक अपनी राजनीतिक चांदमारी में कांग्रेस को ही निशाने पर कायम रखा है। लेकिन मोदी कांग्रेस के भीतर नहीं गए, और शायद सोनिया सहित राहुल और प्रियंका के अंतःपुर या दीवाने-ख़ास में प्रवेश के बाद प्रशांत किशोर यह भांप गए कि उन्हें बिखरे हुए इरादे तथा कमजोर होकर बुरादे की शक्ल ले चुकी कांग्रेस में प्रवेश का जोखिम लेकर खुद के लिए अपनी राजनीतिक संभावनाओं के निर्गम का द्वार नहीं खोलना है।

यदि इस सबके बाद भी आज परिवार और उसकी पादुकाएं ढोने वाली Congress इन्हीं प्रशांत किशोर के आगे नतमस्तक होगी तो फिर यह तय मान लीजिये कि एओ ह्यूम से लेकर कांग्रेस के आने वाले समस्त शुभचिंतकों की आत्मा की शांति हेतु राहुल गांधी को अपनी नानी के घर से लेकर दुनिया के कई और हिस्सों में अज्ञातवास करते हुए क्षमाप्रार्थना करना होगी। बात केवल कांग्रेस की इस वैचारिक दुर्दशा की नहीं है। बात देश के हर उस राजनीतिक दल की है, जिसे यह मूर्खता सुहाने लगे है कि चुनाव का कोई मैनेजर उनका तारणहार बन सकता है। दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) तो मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में अपने दूसरे कार्यकाल में यह खुल कर कहने लगे थे कि चुनाव काम से नहीं, बल्कि मैनेजमेंट से जीता जाता है। उनकी इस सोच ने कांग्रेस को वह दर्द दिया कि फिर पूरे पंद्रह साल तक वह चुनाव जीतना तो दूर, विधानसभा में सीटों की सम्मानजनक संख्या पाने तक के लिए तरस कर रह गयी। यह कांग्रेस की राज्य स्तर की असफल आत्ममुग्धता थी जो यही दल आज राष्ट्र स्तर पर अपनाने पर फिर से तुला है। कांग्रेस में न आने की बात कहकर किशोर ने जो संकेत दिया है, शायद सोनिया गांधी उसे समझ सकें, बाकी उनके बंटी और बबली से तो इस अक्लमंदी की उम्मीद ही नहीं की जा सकती है। किशोर ने अपने इंकार से इस दल को जिस तरफ इशारा क्या है, वह समझने लायक है।

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