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‘माले-मुफ्त’ पर फिर से विचार करना होगा केजरीवाल को

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गुजरात, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के चुनाव में ‘फील गुड’ फैक्टर समान रहा। गुजरात ने भाजपा को अपरंपार जीत दी तो हिमाचल ने कांग्रेस की बुझती उम्मीदों को नई रोशनी प्रदान कर दी। एमसीडी ने एक और नयी जगह स्थान दिलाकर आम आदमी पार्टी को नए जोश से भर दिया। लेकिन यही आम आदमी पार्टी गुजरात में सरकार बनाने का दावा करने के बाद भी केवल पांच सीट पा सकी। अलबत्ता यह उसके लिए संतोष वाली और सचमुच बड़ी उपलब्धि रही कि 185 में से 35 सीटों पर वह कांग्रेस को पीछे धकेलकर भाजपा के मुकाबले दूसरे नंबर पर पहुंच गयी।

लेकिन क्या यह वाकई ‘आप’ की निजी उपलब्धि है? नतीजे आने से एक दिन पहले अरविंद केजरीवाल का आत्मविश्वास देखते ही बनता था। उन्होंने लिखित में दिया कि ‘आप’ गुजरात को फतह करने जा रही है। मगर हुआ यह कि उसके मुख्यमंत्री पद के दावेदार ईसुदान गढवी ही हार गए। पराजय की कठोरता का आलम यह कि 128 सीटों पर इस पार्टी के प्रत्याशियों की जमानत राशि पर भी मतदाता ने झाड़ू फेर दी। केजरीवाल मुतमइन थे कि उनकी मुफ्त वाली राजनीति गुजरात में भी लाभ का सौदा बन जाएगी। लेकिन वह इस बात को शायद भांप नहीं सके कि किस तरह अनजाने में ही सही, ‘आप’ गुजरात में भाजपा के लिए ‘बी टीम’ बन कर रह गयी।

इसकी शुरूआत उस समय खुलकर हो गयी, जब केजरीवाल सरकार के तत्कालीन मंत्री राजेंद्र पाल गौतम हिन्दू-विरोधी गतिविधियों के चलते विवाद में आ गए। चुनावी वेला में इस अमंगल को केजरीवाल तुरंत भांप गए। लेकिन इससे पहले कि वह गौतम वाले कांटे को अपने रास्ते से हटाते, भाजपा ने गुजरात में केजरीवाल के लिए कांटे बिछाने का भरपूर बंदोबस्त कर दिया। बकायदा पोस्टर लगाकर उन्हें हिंदू-विरोधी बताया गया। केजरीवाल भले ही अतुलनीय स्तर के लचीली रीढ़ वाले हों, लेकिन भाजपा ने उन्हें इतना उकसा दिया कि वह गुजरात की जंग में इस दल को सबक सिखाने की खातिर पूरे दिल से उतर गए। भारतीय करेंसी पर लक्ष्मी और गणेश जी छापने की मांग शायद उनकी इस कोशिश का ही एक हिस्सा था।

यह बात और रही कि पूरी तैयारी से न वह उतर सके और न ही इसके लिए उस वक्त तक गुजरात में ‘आप’ के लिए कोई स्कोप था। भाजपा ने केजरीवाल को भड़काया और एक झटके में कांग्रेस यहां के मुकाबले से जैसे नजर आना ही बंद हो गयी। यूं भी पार्टी की ज्यादातर शक्ति राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में लगी हुई है। उस पर कमल और झाड़ू के बीच तल्खी इस स्तर तक बढ़ती चली गयी कि पंजा परिदृश्य से नदारद होने लगा। शायद भाजपा चाहती भी यही थी। बीते चुनाव में कांग्रेस ने इस राज्य में अपनी स्थिति में बहुत सुधार किया था। हालांकि उसका कारण हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी के तत्कालीन आंदोलन ज्यादा थे।

कांग्रेस की पिछली स्थिति कायम रहने पर भाजपा को नरेंद्र मोदी और अमित शाह के गृह राज्य में जीत के बावजूद कुछ कमजोर हालात का सामना करना पड़ जाता। लेकिन उधर खुद कांग्रेस कुछ उदासीन थी और ज्यादातर सीटों पर उसके वोट को ‘आप’ ने अपनी तरफ खींच लिया। नतीजा यह कि भाजपा के हाथ न लग पाने वाली सीटों पर भी किसी एक विरोधी का कब्जा नहीं हो सका और अब यह पार्टी राज्य में अपने दो प्रतिद्वंदियों के मुकाबले अकेली ही बहुत अधिक शक्तिशाली हो गयी है। भाजपा ने तो अपनी कोशिशों से पचपन फीसदी वोट हासिल कर ही लिया।

‘आप’ की लच्छेदार घोषणाओं में यदि वाकई दम होता तो यह संभव नहीं था कि गुजरात जितनी ताकत झोंकने के बावजूद उसे हिमाचल प्रदेश में खाता खोलने का भी अवसर नहीं मिलता। इस प्रदेश की 68 में से 67 सीटों पर ‘आप’ ने प्रत्याशी उतारे और इन सभी की जमानत जब्त हो गयी। एमसीडी की जीत के पीछे काफी हद तक ‘आप’ की अपनी ताकत ने काम किया है, लेकिन यह भी सही है कि भाजपा के खिलाफ लगातार पंद्रह साल की एंटी इंकम्बेंसी, भाजपा के पास स्थानीय नेतृत्व की कमी, मोदी पर निर्भरता और, दंगा-प्रभावित इलाकों में ‘आप’ के पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण और ‘पॉश इलाकों’ के मतदाताओं की मतदान के लिए अरुचि ने नतीजों को ‘आप’ के पक्ष में करने में अहम भूमिका निभाई। फिर भी, जीत तो जीत है। इसके लिए ‘आप’ को बधाई।

लेकिन यह तय है कि दो राज्यों के नतीजों के बाद केजरीवाल को अपने माले-मुफ्त वाली थ्योरी पर दोबारा विचार करना पड़ जाएगा। ‘आप’ अब राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा पा चुकी है लेकिन उसकी राजनीति का फिलहाल कोई स्थायी वैचारिक आधार नहीं है। दिल्ली के अलावा ‘आप’ अभी कहीं और भाजपा को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में नहीं है लेकिन कांग्रेस की कमजोर स्थिति ने उसके इस साहस को बढ़ाया है कि कई राज्यों में जहां कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधी जंग है, वहां ‘आप’भाजपा विरोधी वोटों में सेंध लगाकर अपना वोट प्रतिशत तो बढ़ा ही सकती है। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के मतदाताओं ने अभी तक किसी तीसरी राजनीतिक ताकत को अजमाने पर भरोसा नहीं किया है। ‘आप’ आने वाले साल में इन राज्यों में क्या कर पाएगी, यह देखना दिलचस्प होगा। खासतौर पर यह कांग्रेस के सावधान और सर्तक रहने का समय है। (समाप्त)

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