भाजपा जिस तरह अपनी विचारधारा के किसी समय के विरोधियों को पार्टी की मुख्यधारा में स्थान दे रही है, उससे पार्टी के भीतर ही निराशा और क्रोध की उस धारा का संचार भी होने लगा है, जो इस दल के लिए किसी भी तरह शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता।
राहुल जिस तरह पानी पी-पीकर हिंदुओं और हिंदुत्व को कोस रहे थे, उसके चलते यह तय था कि यदि उनकी आक्रामकता का यही रुख जारी रहने दिया जाता तो वह बोलने के रौ में हिंदुओं को लेकर खुद और अपनी पार्टी की विचारधारा को एक्सपोज कर देते। आखिर भाजपा को हाल ही में बीते लोकसभा चुनाव में चौबीस करोड़ वोट और 240 सीटें मिली हंै। कांग्रेस को भाजपा से पूरे दस करोड़ वोट कम मिले हैं।
राहुल गांधी ने भले ही किसी समय सदन में मोदी के गले लगने के बाद आंख मारते हुए अपने अपरिपक्व व्यवहार का परिचय दिया था, लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि वह इसी सदन में मोदी के गले किसी मुसीबत की तरह पड़ने जा रहे हैं। अब घटनाक्रम आंख चलाने नहीं, बल्कि पूरी ताकत के साथ आंख दिखाने वाले हो सकते हैं।
संविधान के विधि-विधान के विपरीत कांग्रेस के कारनामों का लंबा इतिहास है। राहुल की सोचने-समझने की वास्तविक क्षमता को देखते हुए कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उन्हें इस बारे में लगभग कोई भी जानकारी न हो। और यदि वे इस सबसे परिचित हैं, तब भी यह बेशक कहा जा सकता है कि वे अपने परिवार के प्रिय पात्र सैम पित्रोदा की तरह ही ' जो हुआ, सो हुआ' वाली थ्योरी में ही यकीन कर रहे हों।
मुख्यमंत्री के रूप में अपने अनुभव और एक सहृदय जननायक की छवि के भरोसे शिवराज केंद्रीय मंत्री के रूप में अपनी जिम्मेदारी को लेकर भी तगड़ा होमवर्क करने में जुट गए होंगे। आखिर यह मारियो की निरंतर बढ़ती चुनौती जैसा मामला है और शिवराज ने अधिकांश अवसर पर चुनौतियों में ही अपनी सफलता का रास्ता तय किया है।
लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद भागवत के जरिए संघ ने जिस तरह मुंह खोला है, उससे शायद आज की भाजपा के कर्ताधर्तां समूह का मुंह अवाक मुद्रा में खुला रह जाना स्वाभाविक है। इससे शायद उस जुबान पर लगाम भी लग सके, जिसके प्रयोग के साथ ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने चुनाव के बीच दंभोक्ति की थी कि भाजपा को अब संघ की आवश्यकता नहीं है।