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कोरोना ला सकते हैं, लेकिन मास्क लगा सकते नहीं

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राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (National Institute of Disaster Management) की रिपोर्ट डराने वाली है। क्योंकि इसमें कहा गया है कि अगले महीने सितंबर में देश में कोरोना की तीसरी लहर (third wave of corona) आने जा रही है। रिपोर्ट कहती है कि इस दौरान देश में हर दिन कोरोना के कम से कम पांच लाख मामले सामने आ सकते हैं। लेकिन क्या इससे हम डर जाएंगे ? संभाल जाएंगे ? बिलकुल नहीं। हम आने वाले कल से यह सोचकर और निश्चिन्त हो जाएंगे कि अभी तो सितंबर आने में पूरा एक सप्ताह बचा है। और इस ख्याल के साथ ही हम मास्क को किसी ताबीज की तरह का सम्मान देते हुए उसे गले में लटका कर बेवजह घूमने-घामने में मगन हो जाएंगे। सोशल डिस्टेंसिंग (Social Distancing) को हम घोर एंटी-सोशल थ्योरी (anti-social theory) मानकर उससे भी परहेज रखना जारी रखेंगे। बाजारों में भीड़ लगाना जारी रखेंगे। भीड़ भरे समारोह आयोजित करने या उनमें शामिल होने की रवायत में कोई कमी नहीं आने देंगे। उन लोगों के कथन को ब्रह्मनाद से भी अधिक सच मानेंगे, जो अब भी कहते हैं, ‘काहे का कोरोना ! सब बेकार बातें हैं।’

फिर सितंबर आएगा। प्रार्थना है कि यह महीना सितमगर साबित न हो। कोरोना अब फिर पलट कर न आये। किन्तु दुर्भाग्य से कोरोना (Corona) फिर आ गया तो हम बिलबिला उठेंगे। सरकार पर अस्पतालों में ठीक इंतजाम न करने की तोहमत मढ़ेंगे। सोशल मीडिया (social media) पर परमेश्वर को याद करेंगे। यह भूलते हुए कि तीसरी लहर के स्वागत में हमने खुद कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी थी। हम एक बार फिर घरों में दुबक कर कोरोना को कोसेंगे। अपनी उस करतूत को बिसराते हुए, जिसके तहत हमने सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ाते हुए खुद ही इस स्थिति को आमंत्रित किया था।

कोरोना की दूसरी लहर (Second Wave) जब चरम पर थी, तब ही जानकार इस बात के लिए चेता रहे थे कि तीसरी लहर और भी ज्यादा भयावह होगी। लेकिन हम तो हम ठहरे। जलती हुई सामूहिक चिताओं और जमींदोज किये जाते थोकबंद शवों को देखकर भी हम नहीं सुधरे। इधर दूसरी लहर का वेग कुछ कम हुआ और उधर हम चरम लापरवाही की लहर पर सवार होकर बेख़ौफ़ हो गए। खोमचों पर खुले में बिक रही खाद्य सामग्री फिर हम डटकर उदरस्थ करने लगे। पिकनिक स्पॉट पर हम यूं टूट पड़े, मानों गीता में साक्षात भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हो, “हे पार्थ! मुझ तक पहुंचने का मार्ग किसी पिकनिक वाली जगह से होकर ही गुजरता है।”

यह तथ्य पूरी तरह सही है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। किन्तु कोरोना की भयावह मौजूदगी और उसके और भीषण रूप लेने की आशंका के बीच सामाजिकता का ये दुराग्रह हमें किसी ‘सामाजिक जानवर’ की तरह चित्रित करता है। यह तकलीफ बिलकुल जायज है कि कोरोना के चलते दो बार लगे लंबे लॉकडाउन (lockdown) की वजह से आम जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ। लोगों के रोजगार छिन गए। व्यापारी और फुटकर सामान बेचने वाले बड़ी संख्या में बर्बाद हो गए। किंतु आपकी हुल्लड़ की हद को भी पार करती भीड़ जुटाने या उसका हिस्सा बनने की फितरत को भला किस तरह उचित कहा जा सकता है? घोर शब्दों में निंदा के पात्र तो वह लोग भी हैं, जो राजनीतिक रैलियों (political rallies) में भीड़ जुटाने के अपने ‘मिशन-कमीशन’ से अब भी तौबा नहीं कर रहे हैं।

इस पर उन लोगों का तो हिसाब समझना ही मुश्किल है, जो इन हालात के बीच भी बच्चों के स्कूल खोलने की वकालत ही नहीं कर रहे, आंदोलन की धमकी भी दे रहे हैं। निःसंदेह कई प्राइवेट स्कूलों (private schools) में शिक्षकों के लिए वेतन की समस्या हो गयी है, उनका जीवन-यापन मुश्किल है। किन्तु जब विशेषज्ञ इस बात को लेकर आशंकित हैं कि कोरोना की लहर बच्चों पर सबसे बुरा असर डाल सकती है तो फिर आप क्यों उनकी जान से खिलवाड़ करने पर तुले हुए हैं!

खैर, हम भी भला कभी गलत हो सकते हैं! और फिर सही-गलत पर बहस का हमारे पास समय ही नहीं है। हमें तो फिलहाल काबुल के हालात पर ज्ञान बघारना है। कोलकाता में किशोर कुमार के फैन चाय वाले को निहारना है। सोशल मीडिया पर चुटकुले चलाने हैं। इसी मीडिया पर हमें उन मानवीय मूल्यों का उपदेश देना है, जिनका खुद हमारी नज़रों में कोई मूल्य ही नहीं है। हमें सब करना है, कोरोना से बचने के लिए जरूरी सावधानियों के पालन के सिवाय। और तीसरी लहर का क्या है ! वो आएगी तो हम सिरे से उसका ठीकरा सरकार के ऊपर फोड़ कर चौथी लहर के आगमन के लिए अनुकूल वातावरण बनाने के महान कार्य में जुट जाएंगे। हम आजाद देश के आजाद लोग हैं। अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं, कोरोना ला सकते हैं, लेकिन मास्क लगा सकते नहीं। दूरी बना सकते नहीं। है कि नहीं।

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