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नयी शुरूआत संस्कारों के धनी भगत की

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के हिसाब से यह निर्णय चौंकाने वाला है। सुहास भगत (Suhas Bhagat) को भाजपा (BJP) से वापस लेकर संघ के मध्य क्षेत्र (मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ Madhya Pradesh and Chhattisgarh) का बौद्धिक प्रमुख नियुक्त किया गया है। भगत मन, कर्म और वचन, तीनों लिहाज से सकारात्मक स्वरूप वाले संघियों में गिने जाते हैं। 2016 में संघ ने भगत को प्रदेश संगठन महामंत्री बनाकर मध्यप्रदेश भाजपा (Madhya Pradesh BJP) का जिम्मा सौंपा। अब लगभग छह साल बाद बौद्धिक प्रमुख के रूप में उनकी संघ में वापसी हुई है। भाजपा से संघ में वापसी का मतलब ज्यो कि त्यों धर दिनि चदरिया से निकाल सकते हैं। काजल की कोठरी से बिना कालिख के निकलना कठिन होता है। भगत ने सत्तारूढ़ पार्टी (ruling party) में छह साल बिता कर अपने मौलिक घर में उजली वापसी की है। यह कठिन साधना थी।

भगत को लेकर संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा का फैसला काफी हद तक चौंकाता है। क्योंकि RSS से भाजपा तक के सफर को प्राय: उस वन-वे ट्रेफिक (one-way traffic) के रूप में देखा जाता है, जहां से यू-टर्न पूरी सख्ती के साथ प्रतिबंधित रहता चला आया है। यूं तो ऐसा यात्री बाद में भी संघ से ही जुड़ा माना जाता है, लेकिन भगत जैसी इतनी प्रभावशाली स्वरुप की वापसी कम से कम मध्यप्रदेश में तो इससे पहले कभी नहीं देखी गयी है। ऐसे में आज के फैसले और संघ की तरफ दोबारा फासले को सफलतापूर्वक तय करने वाले भगत, दोनों को ही गौर से देखना समय की बर्बादी का सबब नहीं माना जा सकता है।

आगे की बात कहने से पहले संघ के एक जानकार की याद आ गयी। उन्होंने मुझसे अनौपचारिक चर्चा में कहा था, ‘यूं देखें तो संगठन महामंत्री का कोई खास काम नहीं होता। सारा दिन भाजपा कार्यालय (BJP Office) में बैठकर खैनी मलते रहो या फिर प्रवास के नाम पर भोजन, बैठक और विश्राम में समय गुजार दो।’ हालांकि शायद यह उनकी कोई नाराजगी होगी। भाजपा आज जिस मजबूत रूप में मौजूद हैं, उसमें संगठन महामंत्री पद का बड़ा योगदान है। कुशाभाऊ ठाकरे (Kushabhau Thackeray) और प्यारेलाल खंडेलवाल (Pyarelal Khandelwal) जैसे संगठन महामंत्रियों को भला कौन भूल सकता है। भगत इस पद पर अरविन्द मेनन (Arvind Menon) की जगह आये थे। मेनन की हथेली या मुंह में मैंने खैनी की उपस्थिति का कभी भी अहसास नहीं किया, अलबत्ता ‘कोई खास काम नहीं होने’ वाली अवधारणा को मेनन भी नहीं तोड़ सके। ठीक वैसे ही, जैसे मेनन के कई पूर्ववर्ती भी इस अवधारणा से इंच-मात्र भी आगे बढ़ने के प्रयास से बचते ही रहे थे। उलटे मेनन के समय तो यह भी खुलकर कहा जाने लगा कि वे भाजपा संगठन में प्रदेश सरकार के हितों के संरक्षक भर बन कर रह गए थे। अब ‘… तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे’ वाला यह भाव खुद से अपनाया गया, या इसके पीछे कोई खुदगर्जी छिपी थी, यह व्याख्या फिर कभी कर ली जाएगी।

आज तो यह बात कि जिस समय भगत ने यह काम संभाला, तब तक भाजपा की रीढ़ कहे जाने वाले संगठन का प्रदेश में पुराना स्वरूप झुक चुका था और सत्ता तथा संगठन के बीच तालमेल के नाम पर घालमेल जैसे आसन्न हालात साफ दिखने लगे थे। यह खुमारी संगठन में बीमारी की तरह पांव पसारने लगी थी कि राज्य में BJP आने वाले अनंत समय के लिए सत्ता की संजीवनी पा चुकी है और उसे और अधिक मजबूती देने के लिए किसी अन्य कोशिश की अब कोई भी मजबूरी नहीं रह गयी है। भगत ने पदभार संभालने के बाद विपरीत हालात के ऐसे भार को कम करने की दिशा में सबसे पहले कदम उठाये। उस समय तक उम्र के लिहाज से ‘चुकने’ की दशा के आसपास वाले कई नेता अपनी करतूतों के चलते संघ की सोच और भाजपा के आदर्शों को चुभने लगे थे। भगत ने पार्टी में स्वच्छ एवं ताजा हवा के विस्तार के लिए नयी पीढ़ी हेतु नए रोशनदान खोले। उनके नेतृत्व में जल्दी ही भाजपा के लिए मध्यप्रदेश पहला ऐसा राज्य हो गया, जहां अब मंडल ये लेकर जिला अध्यक्षों की उम्र चालीस साल से कम थी। कुछ अपवाद हो सकते हैं। साथ ही राज्य के सभी महानगरों में युवा चेहरों को ही जिलाध्यक्ष जैसा महत्वपूर्ण जिम्मा सौंपा गया। पीढ़ी परिवर्तन का यह बहुत बड़ा श्रेय सुहास भगत के खाते में दर्ज होगा।





सुहास भगत ने इसके साथ ही एक और सुहास का विस्तार किया। उन्होंने प्रदेश की संगठनात्मक गतिविधियों में सांसदों तथा विधायकों के एकाधिकार को ध्वस्त करने जैसा साहसिक फैसला लेकर उस पर पूरी ताकत से अमल भी सुनिश्चित किया। इसके चलते पार्टी में जमीन तथा जड़ से जुड़े चेहरों को आगे लाने या उनके अनुभव के मुताबिक संगठनात्मक फैसले लेने में भी मदद मिली। साथ ही कोई भी इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकता कि शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) सरकार की सत्ता में चौथी पारी सुनिश्चित करने के लिए भगत ने ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) गुट के साथ समन्वय में उल्लेखनीय भूमिका अदा की।

पिछले करीब छह साल में भगत ने राज्य में भाजपा सरकार के लिए नैतिक दिशा-सूचक यंत्र के रूप में स्वयं को स्थापित किया। यह आसान नहीं था। इसके लिए उन्होंने निष्पक्षता को किसी मंत्रोच्चार की तरह अपने कर्म एवं विचारों से पवित्रता प्रदान की। व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के भाव से संगठन को मुक्ति दिलाई। सामूहिक नेतृत्व की परंपरा को नया जीवन दिया। पूरे कार्यकाल में एक भी आरोप उनके पास टिकना तो दूर, फटक तक नहीं सका। तब कहीं जाकर भगत ने नैतिक दिशा-सूचक यंत्र के रूप में पहचान प्राप्त की। इस यंत्र के निर्माण में लगे सद्भावना, सत्य, संकल्प एवं संघर्ष के मंत्र को बौद्धिक प्रमुख के रूप में और सिद्ध स्वरूप मिलना तय है। संस्कारधानी यानी जबलपुर (Jabalpur) वाले नए मुख्यालय से नए सिरे से RSS के लिए पारी की शुरूआत करने वाले भगत स्वयं में उन संस्कारों के धनी हैं, जो विरले ही देखने मिलते हैं। इसलिए एक बार फिर उनकी सफल पारी की कामना को बेमानी नहीं कहा जा सकता।

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