उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh)। वह राज्य जहां का कण- कण फिलवक्त सियासी रण से गुंजायमान है। नतीजे के लिए बस अब एक सप्ताह बाकी है। कुछ अजीब फितरत है उत्तरप्रदेश की राजनीति की। देश का सबसे बड़ा और केन्द्रीय राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाला प्रदेश। फिर चुनावी मोड़ नजदीक आकर अस्तांचल की तरफ जा रहा हो तो इस प्रान्त पर सारे देश की नजरें टिक जाती हैं। इसलिए बाकी के चार राज्यों पर लोगों का ज्यादा ध्यान नहीं है। ध्यान हैं तो उत्तरप्रदेश पर। दस मार्च को कौन सा दल या कौन-कौन से दल दस का दम दिखा पाएंगे, इसका अनुमान लगा पाना अभी कठिन है। यूं तो यहां मुख्य मुकाबला भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच है, लेकिन बहुजन समाज पार्टी सहित कांग्रेस और अन्य छोटे दलों ने भी इस घमासान में पूरी ताकत झोंक रखी है।
उत्तर प्रदेश का यह चुनाव कई पूर्व के अवसरों की ही तरह आम चुनाव की तस्वीर को काफी हद तक स्पष्ट कर देने वाला हो सकता था, बशर्ते लोकसभा के ठीक छह महीने पहले (वर्ष 2023 में) मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) सहित छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) और राजस्थान (Rajasthan) के विधानसभा चुनाव न पड़ रहे होते। अब UP की जगह इन तीन राज्यों के नतीजे के आईने में केंद्र सरकार के भविष्य का प्रतिबिंब अधिक स्पष्ट दिखाई देगा। दस मार्च के चुनाव परिणामों से लोकसभा 2024 के लिए किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। फिर 2019 को याद करें, तब नवम्बर 2018 में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान तीनों BJP से हाथ से खिसक गए थे लेकिन लोकसभा में भाजपा ने छप्पर फाड़ बहुमत हासिल किया था और इसमें इन तीनों राज्यों में भी कांग्रेस कहीं की नहीं रही थी।
तो बात आज भाजपा से शुरू करते हैं। पूर्वांचल भले ही योगी आदित्यनाथ का गढ़ हो, लेकिन मुख्यमंत्री को इस आंचल में अपने लिए पूर्व की तरह सुकून के पल कम ही दिखाए दे रहे हैं। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में जाट मतदाताओं की कहीं नाराजगी तो कहीं बेरुखी भाजपा नेताओं की पेशानी पर परेशानी की लकीरें खींच चुकी है। पूरे राज्य के सियासी कैनवास पर गौर करें तो खासतौर पर यादव मतों के ध्रुवीकरण से भी भाजपा असहज है। यह अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की समाजवादी पार्टी (SP) के लिए शुभ संकेत दिखता है। हां, मुस्लिम मत क्या खेल करेगा, यह देखने वाली बात होगी। क्योंकि इस वर्ग ने दो हिस्सों में बंटकर कहीं सपा तो कहीं बसपा को समर्थन दिया है।
भाजपा के खिलाफ हुई यह दो स्तर की लामबंदी इतनी तगड़ी है कि इससे छिटककर इस वर्ग के लगभग न के बराबर वोट ही कांग्रेस या असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम की झोली में जाएंगे। इस के बीच भाजपा को अपने कमिटेड वोटर पर भरोसा है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की प्रक्रिया भले ही शुरू हो चुकी हो, लेकिन राम नाम की लहर का यहां अब पहले जितना असर नहीं दिखता है। मगर यह असर साफ है कि कानून-व्यवस्था को लेकर योगी ने इस मिथक को तोड़ दिया है कि इस प्रदेश में लंबे समय से केवल मायावती के समय ही असामाजिक तत्वों के भीतर लोहा उतारा जा सका था। बाहुबली नेताओं की जेल यात्रा और विकास दुबे (Vikas Dubey) जैसे बदमाशों के अंत ने भाजपा के समर्थकों की संख्या में निश्चित ही वृद्धि की है। राज्य का अमन पसंद मतदाता इस लिहाज से योगी को मनपसंद वाली नजर से निहारता है। योगी की सख्त प्रशासक की छवि उभारने के लिए भाजपा उनकी सभाओं में बुलडोजर तक प्रदर्शित कर रही है।
अब अतीत के अनुभव का एक फैक्टर भी गौरतलब है। नब्बे के दशक के मध्य के बाद से यानि 1984 के बाद से अब तक इस राज्य में कोई भी दल लगातार दूसरी बार सत्ता में नहीं आ सका है। आखिरी बार 1980 और 1984 में कांग्रेस ने यहां लगातार सरकार बनाई थी। स्पष्ट है कि यह भाजपा को चिंता में डालने वाली एक और बात है। वैसे योगी फियर फैक्टर वाली छवि के धनी हैं। अपने मुख्यमंत्रित्व काल में एक से अधिक बार नोएडा जाकर योगी ने यह इमेज बनाई है। क्योंकि इस राज्य के सियासी गलियारों में किसी भी मुख्यमंत्री के लिए नोएडा जाना घनघोर अशुभ संकेत माना जाता है। अखिलेश यादव ने तो मुख्यमंत्री रहते हुए एक तरह से नोएडा की दिशा में मुंह करके नींद लेना तक बंद कर दिया था। यदि दस तारीख के परिणाम योगी के हक में नहीं गए तो कहीं न कहीं नोएडा को लेकर कायम अवधारणा को बल मिलेगा।
लखनऊ में सियासी उमस इतनी अधिक है कि वहां की हवा दमघोंटू लगने लगी है। राजनीतिक कुहासे में लिपटी एक हालिया शाम नवाबों की नगरी में होटल के एक अदना कर्मचारी से बात हुई। चुनावी परिणाम की संभावना के लिए उसने कहा, ‘यहां तो मोदी जी की ही सरकार बनेगी।’ अपनी बात के समर्थन में वह शख्स केंद्र सरकारी की योजनाओं से अपने परिवार को मिली मदद का बखान करता है। उसके पूरे वाक्य में न कहीं भाजपा थी और न ही योगी। तो क्या दम घोटती इस हवा के बीच भाजपा को मोदी सरकार में नीचले तबके को सीधे मिल रहे फायदे से ही प्राणवायु मिलने की उम्मीद है? दूसरी बात जिस तरह से पिछली बार से हर चरण में दो से तीन प्रतिशत वोट कम हुआ है तो इसके क्या मायने निकाल सकते हैं।
2017 में आठ से दस फीसदी वोट ज्यादा पड़ा था 2012 की तुलना में। उस हिसाब से वोट प्रतिशत में कमी का फायदा या नुकसान किसे हो रहा है, यह अनुमान लगाना भी मुश्किल ही है। आम तौर पर धारणा जो है वो ये हैं कि कम वोटिंग का मतलब सत्तारूढ़ दल का फायदा और वोटिंग का बढ़ना मतलब सत्ता के प्रति लोगों का असंतोष। इस पैमाने पर तो योगी की सरकार रिपीट हो रही है। लेकिन ये अनुमान लगाना इतना सरल नहीं है। पांच साल की योगी सरकार के बाद अल्पसंख्यक, यादव मतदाताओं का रूझान तो भाजपा के विरोध में साफ है। ब्राह्मणों की नाराजगी के किस्से हैं तो गरीब तबकों में मोदी और योगी के कसीदे हैं। अब गरीब तो हर तबके का एक कामन फैक्टर है। ऐसे में क्या अंदाज लगाएंगे कि उत्तरप्रदेश का मतदाता खुद को क्या मान और किस खांचे में बांट कर वोट कर रहा होगा। क्या शामे-अवध का अनिश्चय वाला कुहासा मोदी फैक्टर की चकाचौंध में कमजोर होगा? यह सब देखने वाली बात होगी। यूपी में कमल फिर खिलेगा या उसके कलम होने की नौबत आ रही है, यह जानने के लिए बस सप्ताह भर का इंतजार और करना होगा। (जारी)