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दिल मिले न मिलें, दल मिलाते रहिए

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उत्तर प्रदेश-2
उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) का राजनीतिक परिदृश्य एक विचित्र गणित के कोष्ठक में बंद हो गया दिखता है। बात यह कि अब तक के सभी छह चरणों में मतदान का प्रतिशत लड़खड़ाया है। वर्ष 2017 के सियासी घमासान के मुकाबले इस बार के मुकाबले में दो से तीन प्रतिशत तक कम मतदान दर्ज किया गया है। इस कम दर्ज के गणित का मर्ज किस राजनीतिक दल (political party) की सेहत पर भारी पड़ेगा, यह फिलहाल यक्ष प्रश्न है। पिछले विधानसभा चुनाव में मतदान का प्रतिशत वर्ष 2012 की तुलना में करीब दस फीसदी तक अधिक हो गया था। सन 2017 के राजनीतिक सेंसेक्स की इस ऊंचाई ने भाजपा (BJP) को बंपर लाभ प्रदान किया था। इसलिए, जब इस बार यह प्रतिशत बमुश्किल दो-तीन फीसदी ही कम का आंकड़ा छू रहा है तो यह समझना जरूरी हो जाता है कि इस मामूली कमी के बाद भी शेष सात फीसदी का लाभ भाजपा को मिल पाएगा या नहीं। राजनीतिक पंडितों (political pundits) का पंचांग इस सब पर अलग-अलग गणनाएं तथा भविष्यवाणी कर रहा है। इन विविधताओं के बाद भी एक फैक्टर कॉमन है। वह यह कि यादव (Yadav), मुस्लिम (Muslim) और जाट मतों (Jat votes) की मूसलाधार बरसात योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के अरमानों के घरौंदे पर पानी फेर सकती है? लेकिन इस मूसलाधार बरसात में भी एक पेंच हैं। इस ध्रुवीकरण को देखकर बाकी मतदाताओं पर इसका क्या रिएक्शन हुआ होगा। लोग आखिर 2012 से 2017 के बीच की यादवों और अल्पसंख्यकों की दादागिरी को क्या भूल गए होंगे?

यादव और मुस्लिम मतों की निर्बाध आपूर्ति हेतु समाजवादी पार्टी ने बीते करीब साल में प्रदेश की जातिगत राजनीति की जमीन पर रणनीति की असंख्य बोरिंग करने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। योगी आदित्यनाथ के कथित ठाकुरवाद के मुकाबले अखिलेश (Akhilesh) ने यादव मतों (Yadav votes) के ध्रुवीकरण को पनपने के जमकर अवसर प्रदान किये। इसका असर दिख रहा है। लेकिन अखिलेश के लिए यह बड़ी चुनौती बनी रही है कि मुस्लिम मतों का किस तरह बसपा के मुकाबले अधिक बड़ा हिस्सा वह अपनी तरफ कर सकें। सपा (SP) के लिए संकट यह भी कि वह अपनी दल के ‘मौलाना मुलायम (Maulana Mulayam)’ वाली छवि को भुनाने का जोखिम नहीं ले पा रही है। और मायावती (Mayawati) तो खुलेआम कह ही  रही हैं कि सपा ने अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय किया है। कम टिकट दिए हैं या जहां उनका अधिकार था, वहां भी उनकी अनदेखी की है। लेकिन मायावती की बसपा ने ऐसा कुछ नहीं किया है। तो अगर बसपा मुस्लिम मतों में ठीकठाक सेंध लगा लेगी तो सपा के सारे समीकरण धरे रह जाएंगे।
केंद्र में लगातार दो बार भाजपा (BJP) को स्पष्ट मिले बहुमत ने हिन्दू मतों का जो गणित साबित किया है, उसके चलते अब सपा को भी अपनी अल्पसंख्यक-परस्त छवि की कठोरता को मुलायम बनाने की दिशा में झुकना पड़ा है। अखिलेश अपने पिता के एक कुख्यात वाक्य ‘लड़के हैं, लड़कों से गलती हो जाती है’ को राजनीतिक रूप से स्वयं पर लागू होने देना नहीं चाहेंगे। इसीलिये इस चुनाव से पहले और अब तक वह भगवा से लेकर मंदिर-मठ से गुरेज करने से पूरी तरह बचते दिखे हैं। लेकिन जाहिर है उनका या कांग्रेस का यह रवैया भाजपा के मतदाताओं को यह अहसास तो कराता ही होगा कि आखिर उनकी ताकत क्या है। इस ताकत को वे भूलते हैं तो भाजपा का नुकसान है और यदि याद रखा तो फिर कहानी में कोई संस्पेंस की गुंजाइश नहीं है।
पिछली बार समाजवादी पार्टी (SP) या कहे मुलायम के कुनबे में जबरदस्त कलह थी। इस बार मुलायम की दूसरी पत्नी की बहू अपर्णा यादव (Aparna Yadav) की बगावत से सपा की संभावनाओं को कोई खास झटका नहीं लगेगा। वजह यह किअपर्णा के स्वयं को हिंदुत्व के लिए अर्पित कर देने के बावजूद वह इस वर्ग के मतदाताओं के बीच नव-हिंदूवादी की छवि से अधिक और कुछ  हासिल नहीं कर पाई हैं। फिर डिंपल यादव (Dimpal Yadav)  के मुकाबले कमजोर राजनीतिक अनुभव से भी अपर्णा का कमजोर सियासी बायोडाटा भाजपा के लिए बड़ा फायदा साबित नहीं होगा। अखिलेश इसी तरह अपने चाचा शिवपाल यादव के लिए भी निश्चिन्त हैं। सपा से बाहर होकर शिवपाल (Shivpal) अपना कोई अस्तित्व नहीं स्थापित कर पाए हैं। न वह मुलायम की छाया से बड़े हुए और न ही अखिलेश की काया के सहयोग के बिना उनकी परछाई तक खुलकर दिख सकी है। इस तरह अपर्णा जैसी बागी और शिवपाल जैसी नाराजी से सपा अविचलित दिख रही है। बाकी तो भाजपा-विरोधी अन्य दलों (Other anti-BJP parties) से चुनाव के पहले हाथ मिलाने का जो रास्ता अखिलेश ने अपनाया है, वो भी उन्हें मजबूत होता तो दिखा ही रहा है। इस संभावित स्थिति के लिए एक पंक्ति को तोड़ा-मोड़ा जाना अनुचित नहीं है। वह यह कि  दिल मिले न मिलें, दल मिलाते रहिए। (जारी) 
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