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ये प्रायोजित गुस्सा और आयातित विरोध

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हद से हद साढ़े तीन राज्यों तक सिमटे, लेकिन ‘राष्ट्रव्यापी’ ((Nationwide) ) बताये जा रहे किसान आंदोलन (Farmers Agitation in India) को सात महीने पूरे हो गए हैं। दिल्ली की सरहद पर कुछ समय पहले तक जमा भीड़ (इसमें कुछ किसान भी थे) छंट चुकी है। तकनीकी रूप से आंदोलन अब भी जारी है। हम जीवन में कई विडंबनाओं को उनके मूल रूप से वाकिफ होने के बाद भी खारिज नहीं कर सकते। वो तत्व ‘टेक्निकली’ अस्तित्व में होते हैं। भोपाल में सरकार कर्मचारियों के एक नेता हैं। उनका अपना संगठन है। उसमें संगठन प्रमुख से लेकर पदाधिकारी और सदस्यों के नाम पर केवल एक खुद वे ही शामिल हैं। फिर भी इन्हें कर्मचारी नेता बताना और लिखना मीडिया की मजबूरी है। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में मदनलाल धरतीपकड़ ((Madanlal Dharti pakad)) की हैसियत नक्कारखाने में तूती से भी कम थी। फिर भी प्रत्यक्ष पद्धति वाले तमाम चुनावों (Direct Election in which public votes for their representatives) से जुड़े दस्तावेज में धरतीपकड़ का नाम प्रत्याशी के तौर पर दर्ज करने से कोई नहीं रोक सकता। भले ही चुनाव में धरतीपकड़ को कभी भी, किसी ने भी गंभीरता से नहीं लिया। जगदम्बिका पाल (Jagdambika Pal) देश के इतिहास में सबसे कम समय (एक दिन) के लिए मुख्यमंत्री रहे। लेकिन दस्तावेजों में वे हमेशा पूर्व मुख्यमंत्री ही बताये जाएंगे। राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की जबरदस्त सक्रियता के बावजूद कांग्रेस भले ही उनके रहते करीब 40 चुनाव हार गयी हो, किन्तु गांधी का जिक्र आज भी और हमेशा वरिष्ठ और कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता ((Senior leader of Congress)) के रूप में ही होगा।





तो ऐसी ही तकनीकी वजहें कहती हैं कि किसान आंदोलन अब भी चल रहा है। यूं तो सात महीने बहुत होते हैं, किसी आंदोलन की स्वीकार्यता को प्रमाणित करने के लिए। इतने समय में तो एक अकेली निर्भया (Nirbhaya rape and murder case of India) की मां के हक में देश की बहुत बड़ी आबादी सत्ता के खिलाफ ताल ठोंक कर उठ खड़ी हुई थी। मगर किसान आंदोलन उस फटे दूध की तरह हो गया है, जो एक ही पतीले में कहीं उफान मारता है तो कहीं उसमे कोई हलचल ही नहीं दिख पाती। मीडिया के एक खास नजरिये वाले वर्ग को छोड़ दें तो किसान आंदोलन को खबरों में भी अब पहले जितना महत्व नहीं दिया जा रहा है। उससे जुड़े समाचारों को अधिकतर उन न्यूज चैनल्स पर ही जगह मिल पा रही है, जिन्हें 24/7 की भूख मिटाने के लिए रोजाना किसी अलग विषय पर बहस के कार्यक्रम चलाने होते हैं। सोशल मीडिया (Social Media) पर किसानों के हक में उठी आवाजें अब टैगलाइन (Tagline) या हैशटैग (Hashtag) में ही परिवर्तित होकर रह गयी हैं। साफ लगता है कि कहीं न कहीं यह आंदोलन अपनी धार खो रहा है। ऐसा होने की कई ठोस वजह भी हैं। हाथ कंगन को आरसी क्या? (Truth needs no proof) आंदोलन में पंजाब (Punjab) की तरफ सबसे अधिक और प्रभावी उपस्थिति दर्ज की गयी थी। इसके बावजूद हाल ही में इस राज्य ने किसानों से सबसे ज्यादा गेहूं खरीदा। आढ़तियों का खेल खत्म करते हुए। आढ़तियों (Agents in Agriculture) का कमीशन बंद हुआ तो वहां के किसानों को गेहूं का दाम चार फीसदी ज्यादा मिला। वे मालामाल हो गए। पूरे देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) (Minimum Support Price) पर गेहूं की खरीदी की गयी। मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) में यूं भी इस आंदोलन का कोई असर नहीं था, मगर यह राज्य गेहूं खरीदने के मामले में देश में दूसरे नंबर पर रहा। यह सब उन सुधारों की वजह से ही तो हुआ, जो इन तीन कानूनों में किये गए हैं। नए कृषि कानूनों से सबसे ज्यादा घाटे में केवल पंजाब के आढ़तिएं रहे और माना जाता है कि वे इसलिए किसान आंदोलन के फायनेंसर भी हैं। जाहिर है कि किसान भी समझने लगा है कि इन्हें काला कानून कहा जाना सफेद झूठ से अधिक और कुछ नहीं है। और फैक्टर भी इस आंदोलन की लड़खड़ाहट की वजह हो सकते हैं। इसकी वजह 26 जनवरी को दिल्ली की सड़कों पर चला तांडव हो सकता है। बहुत मुमकिन है कि आंदोलनकारियों द्वारा लहराए गए खालिस्तान (Khalistan) के झंडे ने उन लोगों के तेवर ठंडे कर दिए हों, जो इसे विशुद्ध किसान आंदोलन मानने की भूल कर इसका समर्थन कर रहे थे। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि आंदोलन के कैंप में एक युवती के साथ हुए बलात्कार ने इस आंदोलन के अगुआओं की विश्वसनीयता को कलंकित कर दिया हो। संभावना तो यह भी खारिज नहीं की जा सकती कि प्रदर्शनकारी देश के शेष राज्यों के किसानों को इस बात के लिए डराने में नाकाम रहे कि तीन कृषि कानून उनके खिलाफ हैं। इसका एक पक्ष यह भी माना जा सकता है कि संभवत: केंद्र सरकार अन्नदाता को इन कानूनों के लिए विश्वास में लेने में सफल रही है।





बहरहाल, अब जबकि आंदोलनकारी फिर से अंगड़ाई लेने की तैयारी में दिख रहे हैं, तो तय मानिये कि कुछ बड़े घटनाक्रम एक बार फिर सामने आएंगे। तीखा विरोध किसी भी समय उग्र और हिंसक हो सकता है। दुर्भाग्य से आंदोलन की अलख जलाये रखने की ललक पूरा करने के लिए अब ऐसे हथकंडे आजमाए जाने के पूरे आसार हैं। इससे पहले भी इस आंदोलन की चर्चा सार्थक मांगों की बजाय निरर्थक बयानबाजी और घटनाक्रमों की वजह से ही हुई थी। तो अब, जबकि विरोध की धार कुछ कुंद हो गयी दिखती है, उसे फिर से पैना बनाने के लिए कुछ तो विस्फोटक किया ही जाना होगा। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नजदीक आ गए हैं। तो जाहिर है कि इस आंदोलन का एजेंडा और अधिक राजनीतिक स्वरूप वाला हो जाएगा। यह सब देखकर आने वाले दिनों के लिए कुछ अधिक धुकपुकी महसूस हो रही है। आशंकाएं दिमाग में जगह बनाती जा रही हैं।

क्या हम फिर से तैयार रहें किसानों के नाम पर लाखों रुपए वाले लग्जरी वाहनों पर सवार लोगों को देखने के लिए? देश का वास्तविक किसान आज भी लग्जरी के नाम पर एक ट्रेक्टर खरीद लेने को ही जीवन की सबसे बड़ी सफलता मानता है। लेकिन फिर वही टेक्निकल वाली विवशता देखिये कि आज भी हल-बैल पर आश्रित से लेकर जमींदारों (Jamindaree- an old and now abolished system in India) को भी मात कर देने वाले ऐश्वर्य से परिपूर्ण समूह, दोनों को हम किसान कहकर बुला सकते हैं। ऐसे ही साधन-संपन्न किसानों ने किसान आंदोलन और वास्तविकता के रिश्ते को संदेह के दायरे में लाता है। ऐसे लोग तो कमाल हुनरमंद हैं। वे टिकरी बॉर्डर (Tikri Border) पर बैठे-बैठे विदेश से भी अपने लिए समर्थन जुटा लेते हैं। लेकिन ऐसे समर्थन का यह आयात उस अन्नदाता के नसीब में क्यों नहीं है, जो आजादी के सत्तर साल से भी अधिक के बाद अपने हक में तीन नहीं, तीन सौ से भी अधिक सुधारात्मक कानूनों का मोहताज है? ऐसा क्यों है कि उस वास्तविक रूप से वंचित किसान को आज भी अपनी दशा तथा दुर्दशा को व्यापक अटेंशन पाने और सहानुभूति हासिल करने के लिए फांसी के फंदे या जहर के घूंटों का ही सहारा लेना पड़ जाता है? किसान आंदोलन में देश से लेकर विदेश तक चमके चेहरों में कोई भी खेत की मिट्टी में सना हुआ नहीं था। टीवी कैमरों के आगे अपना दुखड़ा रोने वालों में एक भी चेहरे के पसीने से खेती-किसानी वाले परिश्रम की महक नहीं आ रही थी। विदेशों में सुर्खियां पाने में कामयाब रहा कोई भी तथाकथित या स्वयंभू किसान प्रेमचंदजी (Munshi Premchand) के होरी (Hori, main character of novel “Godan’) के होरी से लेकर ओडिशा (Odisha) में आज भी दो मुट्ठी चावल के लिए सारा दिन परिश्रम करने वाले शख्स जितना जरूरतमंद नहीं दिखा। इसमें खालिस्तान का झंडा लहराने वाले वो बैनर बनाना ही भूल गए, जो इस सच को बताता कि इस देश में औसतन हर दिन 28 किसान या खेतिहर मजदूर (Farm labourers) आत्महत्या कर लेते हैं। परेशानियों और अभावों के कारण। लाल किले की प्राचीर पर कूद-फांद मचाने वालों के एजेंडे में यह था ही नहीं कि वे किसी जरूरतमंद किसान के कच्चे घर की दहलीज से भीतर झांककर यह पता लगाते की कृषि प्रधान इस देश के किसान की वास्तविक जरूरत क्या है। दिल्ली की सरहद पर ये प्रायोजित गुस्सा और आयातित विरोध फिर बढ़ने जा रहा है। यह सोचकर ही सिहरन हो रही है।

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