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शिवराज के संवेदनशील जज्बें को बाकी राजनीतिज्ञों की मान्यता है यह

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एक बात बिना किसी संकोच के कही जा सकती है। वह यह कि सोचते सब हैं, लेकिन सोचकर उस पर अमल कर लेने में फिलहाल शिवराज सिंह चौहान (shivraj singh chauhan )बाकियों से बहुत आगे हैं। कोरोना काल (Corona Time) में यह एक बार फिर साबित हो गया है। मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) के मुख्यमंत्री ने तय किया कि इस वायरस से अपने माता-पिता को खोने वाले बच्चों को आर्थिक मदद (Financial support) दी जाएगी। फिर उत्तर प्रदेश और दिल्ली सरकार ने भी यही घोषणा की और अब केंद्र सरकार (central government) ने भी कहा है कि वह भी ऐसे बच्चों की जिम्मेदारी लेगी। हर स्तर पर यह पीड़ित लोगों की मदद वाला जज्बा ही है, लेकिन इस दिशा में सबसे पहला कदम शिवराज ने उठा लिया। अब आप इंटरनेट पर किसी सर्च इंजन की मदद लें या अपनी याददाश्त के सहारे चलें, लेकिन जब इस दिशा में बात होगी तो यह तथ्य प्रमुख रूप से सामने आएगा कि इस घोषणा के रोल मॉडल (roll model) शिवराज सिंह चौहान ही बने थे। और ऐसा पहली बार तो नहीं हो रहा है। सारा देश निर्भया (Nirbhaya) के कातिलों की फांसी की प्रतीक्षा कर रहा था। उसी शोरगुल के बीच शिवराज वह पहले मुख्यमंत्री बन गए, जिन्होंने अपने राज्य में नाबालिगों से ज्यादती करने वालों के लिए फांसी का कानून बना दिया।

इसके बाद राजस्थान और फिर केंद्र तक ने इस दिशा में कदम उठाये। आधी आबादी के लिए पूरी फिक्र का अपनी तरह का पहला इंतजाम भी शिवराज ने ही लाड़ली लक्ष्मी (Ladli Laxmi) या जननी सुरक्षा या बेटी पढ़ाओं-बेटी बढ़ाओं जैसी योजनाओं के जरिये किया। बाद में अन्य जगह इसी तरह के जो कार्यक्रम लागू किये गए, वह दरअसल देश के हृदय प्रदेश की इस सकारात्मक धड़कन का ही एक्सटेंशन (Extension) थे। आप शिवराज के समर्थक हैं, तो निश्चित ही उन्हें इस तरह से बाकियों से आगे कह सकते हैं, लेकिन यदि आप उनसे इत्तेफाक नहीं रखते, तब भी आपकी राय चौहान के बहुत खिलाफ नहीं जा सकती है। निश्चित ही यह लोकप्रियता (Popularity) हासिल करने का भी मामला है, लेकिन लोकप्रिय कदम तो हर शासन उठाता ही है। मूल बात यह होती है कि उसके क्रियान्वयन को देखा जाए और यह भी देख लें कि योजना कितनी ठोस है। संयोग से दोनों ही मामलों में शिवराज पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता है। और इसका बहुत बड़ा असर यह भी हुआ कि शिवराज भारतीय जनता पार्टी को बनियों या सेठों की पार्टी वाली छवि से निकालकर गरीब-हितैषी वाले स्वरूप में सामने लाने में सफल रहे हैं। यानी पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय को मध्यप्रदेश के CM ने काफी हद तक अपनी नीतियों और निर्णयों से अमली जामा पहना दिया है।





ये उल्लेखनीय कदमों को पूरी प्रैक्टिकल एप्रोच (Practical approach) के साथ सामने लाने का हुनर है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) की सरकार के सात साल भी रविवार को पूरे हो गए। मोदी ने भी भाजपा की प्रो गरीब छवि को मजबूत किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही मनरेगा योजना के हिमायती नहीं रहे, लेकिन उन्होंने इस कार्यक्रम से कभी छेड़छाड़ नहीं की बल्कि इसके लिए बजट भी वे बढ़ाते चले गए। और फिर जिन निर्णयों में शिवराज सख्त दिखे, उनमें भी अंतत: वह सही दिखे। राज्य के बीते विधानसभा चुनाव (Assembly elections) को ही लीजिये। कांग्रेस (congress) ने किसानों के कर्ज माफ करने की घोषणा कर दी। भाजपा के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती थी। लेकिन शिवराज इस बात पर अड़े रहे कि कर्जमाफी व्यावहारिक घोषणा नहीं है। उन्होंने इसकी बजाय किसानों की अन्य तरीकों से मदद की बात कही। भले ही कांग्रेस इसी घोषणा की दम पर इस चुनाव में महज पांच सीटों की बढ़त भाजपा पर बना पाई लेकिन वोट प्रतिशत फिर भी BJP का ही ज्यादा था। किसानों को कर्ज के मर्ज से मुक्त कराने का कांग्रेसी दावा खोखला साबित हुआ। इससे हुआ यह कि राज्य की 28 सीटों पर हुए विधानसभा के उपचुनाव में नाराज जनता ने congress को 19 जगहों पर पटखनी दे दी। अब छत्तीसगढ़ हो या राजस्थान, कांग्रेस की वहां सन 2018 में ही बनी सरकारें भी आज तक किसानों का पूरा ऋण माफ नहीं कर सकी हैं। यहां तक कि सन 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस के आला नेतृत्व को भी कर्ज माफी के झुनझुने से तौबा करना पड़ गयी थी। बल्कि उस चुनाव में केंद्र सरकार को भी शिवराज की तर्ज पर ही किसानों के लिए भारी-भरकम राहत राशि की घोषणा का ही सहारा लेना पड़ गया था।





यह सही है कि किसी भी घोषणा का शत-प्रतिशत अमल संभव नहीं है। शिवराज भी इस विसंगति के अपवाद नहीं हैं। मध्यप्रदेश में शिवराज की किसानों (farmers) के लिए भवान्तर योजना में कई खामियां मिली थीं। यह भी सही है कि कानून बनने के बाद भी मध्यप्रदेश में आज तक नाबालिग के एक भी दुराचारी को फांसी पर नहीं लटकाया जा सका है। हालांकि दो दर्जन से ज्यादा मामलों में ऐसी सजाएं अदालतों से हो चुकी हैं। यह सब खालिस तौर पर सरकार की ही गलती नहीं है। फांसी के मामलों की कानूनी प्रक्रियाएं (Legal procedures) बहुत लंबी हैं। और बाकी मामलों में कह सकते हैं कि यदि योजनाओं का क्रियान्वयन करने वाली सरकारी मशीनरी (Government machinery) ही ढीली पड़ जाए तो फिर सरकार को उस काम में कुछ समय लग जाता है। यदि देश की न्याय व्यवस्था ही फांसी जैसी सजा के अमल को लंबा खींचने से न रोक सकती हो तो फिर किसी शासन के भी हाथ बंध जाते हैं। और ये सब संबंधित सरकार के लिए बड़ी तोहमत बन जाती हैं। मगर इस बदनामी की आशंका के बावजूद ऐसी घोषणाएं करना और उनकी दिशा में आगे बढ़ना बड़ा साहस माना जा सकता है। और फिर जब आंशिक सफलता ही बाकियों के लिए आपको आदर्श बना दें तो मामला और भी गौरतलब हो जाता है। शिवराज इसी मायने में फिलहाल बहुत अधिक गौरतलब मुख्यमंत्री के तौर पर स्थापित हो चुके हैं। उनकी तकदीर और तदबीर, दोनों शोध का विषय हैं।

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