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खुल कर स्वागत करें हाई कोर्ट के इस फैसले का

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यह सुखद बदलाव का प्रतीक है। जबलपुर हाई कोर्ट (Jabalpur High Court) ने एक कदम से अपने लिए ‘हाई रिगार्ड्स (high regards)’ हासिल किए हैं। कोर्ट ने अपने एक निर्णय में की गयी टिप्पणी को न सिर्फ विलोपित किया, बल्कि यह भी स्वीकारा कि उसने अपनी सीमा-रेखा से बाहर जाने की गलती भी की। जिस समय नुपूर शर्मा (Nupur Sharma) प्रकरण को लेकर देश के सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) को बड़ी मात्रा में प्रतिकूल टिप्पणियों का सामना करना पड़ रहा है, उस दौर में उच्च न्यायालय का यह कदम न्याय व्यवस्था के प्रति विश्वास को और अधिक सम्मानजनक तरीके से मजबूती प्रदान कर रहा है।

बात इसी साल 21 अप्रैल की है। छिंदवाड़ा जिले (Chhindwara District) के एक मामले में हाई कोर्ट ने आरोपी की तरफ से दायर ज़मानत याचिका पर सुनवाई के दौरान जबलपुर जोन के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक एवं पुलिस अधीक्षक को DNA सेम्पल से छेड़छाड़ एवं आरोपी पुलिस आरक्षक को बचाने संबंधी टिप्पणी करते हुये उनके स्थानांतरण करने के निर्देश दिये थे। घटनाक्रम गर्भपात से जुड़ा हुआ था। राज्य सरकार ने इस मामले में टिप्पणियां विलोपित करने विषयक पुनर्विचार याचिका दायर की थी। महाधिवक्ता प्रशांत सिंह (Advocate General Prashant Singh) एवं उप महाधिवक्ता स्वप्निल गांगुली (Deputy Advocate General Swapnil Ganguly) ने पैरवी के दौरान दलील दी कि अधिकारियों का तबादला करना राज्य शासन का विशेष अधिकार है तथा न्यायालय ऐसे आदेश पारित नहीं कर सकता।

न्यायालय ने संबंधित महिला के DNA के लिए नमूने को सुरक्षित रखने में हुई कथित गड़बड़ी की जांच के लिए जबलपुर ज़ोन के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक को निर्देश दिए थे। इसी जांच रिपोर्ट से नाखुश होकर अदालत ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को लेकर कड़ी टिप्पणी की थी। इसके बाद न्यायालय ने बीते महीने संशोधित आदेश में जांच रिपोर्ट में पाई गई कमियों के लिये की गई टिप्पणी को विलोपित कर दिया है। कोर्ट ने इस दलील को भी सही माना कि अफसरों के तबादले का मामला राज्य शासन का विशेषाधिकार है और न्यायालय इस तरह से ट्रांसफर का आदेश नहीं दे सकता है।

निश्चित ही इस फैसले से न्यायपालिका की गरिमा में और वृद्धि हुई है। इसका एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि राज्य शासन की पहल से समूचे पुलिस बल का मनोबल पुनः स्थापित किया जा सका है। लेकिन यहां एक बात देखने लायक है। जिस मीडिया ने 21 अप्रैल की तल्ख़ टिप्पणियों को सुर्ख़ियों के तौर पर इस्तेमाल किया था, क्या वही मीडिया अब न्यायालय के इस फैसले को भी उतनी ही प्रमुखता से स्थान प्रदान करेगा?

न्यायालय ने तो अपना काम कर दिया। लेकिन अब राज्य सरकार को यह भी देखना होगा कि इस मामले में सरकारी वकीलों की तरफ से ऐसी चूक कैसे हो गयी कि वे न्यायालय में प्रस्तुत जांच रिपोर्ट में दिए गए अहम तथ्यों का समय रहते हवाला नहीं दे सके? यदि उसी समय यह काम कर लिया जाता, तो बहुत मुमकिन था कि पुलिस महकमे के लिए करीब तीन महीने की वह अपमानजनक स्थिति निर्मित नहीं हुई होती।

बीते कुछ समय में लोकतंत्र (Democracy) के तीसरे स्तंभ के लिए कई बार विवाद वाली स्थिति बनी है। हालांकि न्याय व्यवस्था पर सोशल मीडिया (social media) या किसी भी अन्य अस्वीकार्य तरीके से टिप्पणी नहीं की जाना चाहिए, किन्तु ऐसा जमकर हो रहा है और उसका रूप तेजी से विकृत भी होता जा रहा है। तो जो लोग अदालत को लेकर अपने तीखे और अमर्यादित विरोध से भी नहीं चूक रहे हैं, उन्हें चाहिए कि जबलपुर हाई कोर्ट के इस आदेश की भी मुक्त कंठ से सराहना करें। क्योंकि यह उस सिद्धांत को मजबूती प्रदान करने वाला मामला है कि भले ही सौ अपराधी छूट जाएं, किन्तु एक भी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए।

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