निहितार्थ

अब सड़ते हिस्सों को काट फेंकें सच्चे कांग्रेसी

तो पांच राज्यों के चुनाव परिणाम (Election result) सामने गए हैं। पश्चिम बंगाल (West Bengal) में चुनाव को हाईप पर पहुंचाने के बाद BJP की हार उसकी बाकी उपलब्धियों पर भारी पड़ गई। फिर भी उसके पास संतोष करने का कारण है। ममता के राज्य में वो अब अकेली विपक्षी पार्टी है। उसकी सबसे बड़े वैचारिक दुश्मन वामपंथियों (Leftists) का कोई नामलेवा नहीं बचा है। यही हाल देश में उसके लिए भविष्य में कभी भी चुनौती बन सकने वाली कांग्रेस का भी हुआ। खाता भी खुलता नहीं दिख रहा इन दोनों का। असम को उसने दुबारा जीत लिया और पुडुचेरी को उसने congress से छीन लिया। इसके बावजूद पश्चिम बंगाल में BJP ने क्या गलतियां की है, वो इसकी समीक्षा भी करेगी और सुधार करने के लिए भी उसके पास समय है। अब 2024 में पश्चिम बंगाल फिर एक ऐसा राज्य होगा जहां उसकी संभावनाएं ज्यादा बढ़ेगी। बाकी मैं बात पिछले दो दिन से कांग्रेस के भविष्य को लेकर कर रहा था। तो पांच राज्यों का चुनावी परिदृश्य यह पहले से ही साफ था कि कांग्रेस इनमें से एक भी जगह किसी शुभ अवसर की पूजा के बाद वाले पंचामृत वितरण की स्थिति में पहले ही नहीं दिख रही थी। और नतीजे आने के बाद वह उस पंचक की शिकार हो गयी दिखती है, जो किसी परिवार के लिए भयावह किस्म के अपशकुन वाला दुर्योग माना जाता है।

पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के लिए जो हुआ है, उसे वहां उसके अस्तित्व के लिहाज से विलुप्तप्राय मान लेना चाहिए। 42 लोकसभा सीटें और 292 विधानसभा सीटों वाला एक बड़ा राज्य। असम की जनता (People of Assam) ने उसे लगातार दूसरी बार ठुकरा दिया है। जहां उसकी सबसे उज्जवल संभावनाएं हो सकती थी। केरल में ओमान चंडी के तौर पर पांच साल पहले उखड़ा पार्टी का तम्बू इस बार भी तन नहीं सका। इस राज्य ने पांच साल में सत्ता परिवर्तन की अपनी परम्परा को इस बार ठेंगा दिखा दिया। वो तब जब राहुल गांधी (rahul gandhi) इस राज्य से पहली बार सांसद हैं। पुडुचेरी की जनता ने पार्टी का कुछ ही समय पहले वाला जख्म भरने से पहले ही उसे ताजा कर दिया है। नारायण सामी (Narayan Sami) की सरकार उसके ही विधायकों ने गिराई थी और अब इस ताबूत में जैसे मतदाता (Voter) ने आखिरी कील ठोंक दी है। वैसे राजनीती अनिश्चितताओं (Political uncertainties) और संभावनाओं वाला खेल है। इसलिए आखिरी कील वाली बात के लिए आप बेझिझक ‘ये बात कुछ हजम नहीं हुई’ कहकर हाजमोला का चटकारा याद कर सकते हैं।





नतीजे कुनैन की गोली की तरह कांग्रेस के लिए कड़वे हैं। मगर कुनैन को उसकी कडुवाहट के साथ ही ग्रहण किया जाए तो फिर वह बुखार उतारने का बहुत विश्वसनीय जरिया बन जाती है। तो अब भी कांग्रेसियों के पास मौका है। लगातार नाकामियों का जो ताप उसके लिए स्थाई संताप की वजह बनता जा रहा है, उसके उपचार का उसे तरीका खोजना ही होगा। मर्ज की वजह साफ- साफ सामने है। पांच राज्यों के परिणाम पार्टी के नेतृत्व की गलती है। यह वह नेतृत्व है, जो वर्ष 2014 से लेकर अब तक के कई चुनावों में पंजे के किसी समय वाले राजयोग को मतदाता (Voter) की तरफ से नाराज योग का शिकार बना चुका है। जिन इक्का-दुक्का राज्यों में पार्टी जीती, वहां भी दो जगह, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में डेढ़ दशक की एंटी इंकम्बैंसी Anti-incumbency() ने कांग्रेस को विजय दिलाई। पंजाब में अकाली दल की काहिली पर भाजपा की चुप्पी इस गठबंधन को ले डूबी। लेकिन तय मानिये कि यदि वहां आम आदमी पार्टी (aap) ने भगवंत मान (Bhagwant Mann) जैसे डगमग चरित्र वालों के सहाने अपनी मजबूती की कोशिश न की होती तो उस राज्य में झाड़ू पंजे को साफ कर ही गयी थी।

तो मर्ज हटाने का फर्ज यह कि कांग्रेस अपने लिए बौझ बन गए गांधी-नेहरू परिवार (Gandhi-Nehru Family) का कर्ज अदा करने वाली गुलामी से बाहर आए। सोनिया गांधी (Sonia gandhi) जो कर सकती थीं, कर चुकीं, अब कुछ उनके बस में भी नहीं है। दो दशक से ज्यादा वे इस पार्टी का बौझ ढो रही हैं। पार्टी के खानदानी वारिसों राहुल और प्रियंका (Priyanka) की हम्माली को अब कांग्रेसी किसी विवशता की तरह और अपने कंधे पर न लादें। ये सिर पर चढ़कर वहां के सत्व को चूसती जुओं के खिलाफ बगावत का समय है। उस दीमक के खिलाफ पेस्ट कंट्रोल (Paste control) का वक्त है, जो इस घर की बुनियाद और छत को चट करती चली जा रही है। नेतृत्व या निर्णायकों के लिहाज से सोनिया, राहुल और प्रियंका अब कांग्रेस की ‘त्रिमूर्ति’ नहीं बल्कि आमिर खान (Amir khan), आर माधवन (R Madhawan) और शरमन जोशी (Sharman Joshi) की एक फिल्म का शीर्षक बन चुके हैं। बागवानी के शौकीन तीन काम जरूर करते हैं। पौधे के सड़ते हिस्से को काट कर फेंक देना। खराब मिट्टी को बदलना और यदि उस जगह किसी पैदावर की गुंजाईश ही न हो तो बागवानी बदल देना। कांग्रेस को यदि अपनी बगिया का लहलहाता स्वरूप वापस लाना है तो फिर उसे भी वक्त की जरूरत समझते हुए इनमें में से कोई एक प्रक्रिया अपनाना ही होगी। फिर चाहे वह पार्टी का पत्ता गांधी-नेहरू परिवार (Gandhi-Nehru Family) के नाम लिख देकर किसी नए बैनर के तले नए चेहरों के साथ आगे बढ़ने वाला निर्णय ही क्यों न हो। कांग्रेस के लिए पश्चिम बंगाल में शून्य में विलुप्त हो जाने जख्म अभी ताजा है, इसलिए उसी मिट्टी के सत्यजीत रे की एक फिल्म ‘शाखा-प्रोशाखा’ का जिक्र किया जा सकता है। इस शीर्षक का अर्थ होता है, ‘वृक्ष की शाखाएं।’





तो कांग्रेस के सच्चे शुभचिंतकों को चाहिए कि नया ठिकाना मौजूदा वट वृक्ष की शाखा बनने वाला न हो जाए। इस दल से अलग हुए हरेक गुट ने ‘राष्ट्रवादी कांग्रेस’, ‘तृणमूल कांग्रेस (TMC) ‘ ‘तिवारी कांग्रेस (Tiwari congress) ‘ विकास कांग्रेस’ या ‘वायएसआर कांग्रेस (YSR Congress)’ आदि नामकरणों के जरिये अपनी पहचान बनायी है। न तो देश में भाजपा विरोधियों की संख्या कम और ना ही देश में कांग्रेसियों की तादाद कम है। न ही उनके सामने किसी पहचान का संकट है। जैसे देश में सत्तारूढ़ बीजेपी (Ruling BJP) आज भी देश के कई इलाकों में अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रही है, ऐसा कोई संकट कांग्रेसियों के सामने नहीं है। जब जनता पार्टी में विलीन हो चुकी जनसंघ, रातों रात अपने नाम से पीछा छुड़ाकर भारतीय जनता पार्टी में तब्दील हो गई तो क्या ऐसा करने का माद्दा किसी कांग्रेसी में नहीं है। जाहिर है आज की कांग्रेस के जितने ‘पाप’ उसका पीछा नहीं छोड़ रहे हैं, वे उन सब से मुक्त हो सकते हैं? अब Congress नाम से ही संबंध विच्छेद करना समय की जरूरत बन गया है। ताकि मतदाता को यकीन हो सके कि उसकी मिट चुकी आशाओं पर फिर खरा उतरने के ये प्रयास सचमुच नयेपन का कलेवर लिए हुए हैं। क्योंकि कांग्रेस का नाम चिपकाए हुए जो लोग इस दल से अलग हुए, वो यदि सफल रहे, तब भी यह क्रम किसी राज्य विशेष तक ही सीमित रहा है। चाहे ममता बैनर्जी हो या फिर शरद पंवार। इसलिए यदि राष्ट्रव्यापी कामयाबी (Nationwide success) चाहिए तो कांग्रेस से सर्वव्यापी छुटकारा पाना इसकी पहली शर्त होगी। और यह काम सच्चे कांग्रेसी ही कर सकते हैं। लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि जिनकी मानसिकता ही अब तक सत्ता के लिए गांधी परिवार से चिपकने की रही है, क्या वे ऐसा कोई कदम उठा सकेंगे? या जी-32 टाईप (G-32 type) का जो समूह पार्टी नेतृत्व (Party leadership) को सामूहिक तौर पर चिट्ठी लिखने का साहस कर सकता है, उनमें से कोई एक नेता ऐसा है जो यह साहस दिखा सके। और सबसे बड़ी बात, इनमें से ऐसा कौन नेता है जो कांग्रेसियों को अपने पीछे खड़ा करने का माद्दा रखता है। बस, यहीं आकर यह सारी कवायद निराशा में बदल सकती है। इसलिए अब परिवार की कांग्रेस को उसके हाल पर छोड़ने के अलावा देश की जनता के सामने शायद कोर्ई रास्ता नहीं है। बदलाव का रास्ता बहुत लंबा, धैय और मेहनत का है, जिसकी पहली शर्त शायद सत्ता का ख्वाब देखना छोड़ना हो। ऐसा करने वाला कांग्रेस में दूर-दूर तक कोई नेता नहीं दिखता है।

 

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लेकिन बहुत कुछ सोचना तो अब बीजेपी को भी पडेगा। पश्चिम बंगाल को उसने किसी आम चुनाव (General election) में तब्दील कर दिया था। पार्टी वहां ऐसे टूट पड़ी, जैसे कि उस प्रदेश की जनता कमल का राजतिलक करने को बेकाबू हो गयी है या फिर बीजेपी की लीडरशीप (Leadership) बंगाल की जनता को मजबूर करने पर उतारू हो गई कि राजतिलक उसका ही किया जाए। बीजेपी ने गए लोकसभा चुनाव वाले अच्छे प्रदर्शन को भले ही न दोहराया हो लेकिन एकमात्र विपक्षी दल होने का तमगा हासिल कर उसने भविष्य के लिए तो रास्ता खोल लिया है। उसने कांग्रेस और CPM को रेस से बाहर कर दिया। ये सीधे-सीधे नरेंद्र मोदी (Narendra modi) और अमित शाह (Amit shah) की शिकस्त है। वो भाजपाई तो बेचारा बहकावे में आ कर पछता रहा है, जिसने अपने आकाओं की बात पर यकीन कर इस राज्य में भी कमल खिल जाने का यकीन कर लिया था। भाजपा ने जो जोश इस चुनाव में दिखाया, वह इस मायने में बेमायने था कि शुरू से ही इस प्रदेश में उसकी सरकार बनने के कोई आसार नहीं थे। हां, अगले विधानसभा चुनाव (Assembly elections) तक ये स्थिति बदल सकती है, लेकिन इस नतीजे से हताश भाजपाई क्या उस समय इस बार जैसी ही ताकत के साथ जीत के लिए जुट पाएंगे? हालांकि पिछले एक दशक में बीजेपी वार्ड का चुनाव भी ऐसी ही ताकत से लड़ रही है, भले ही जीते या हारे। हमेशा सत्ता के आदी रहे कांग्रेसी तो यह जज्बा बीजेपी से सीखने से रहे।

प्रकाश भटनागर

मध्यप्रदेश की पत्रकारिता में प्रकाश भटनागर का नाम खासा जाना पहचाना है। करीब तीन दशक प्रिंट मीडिया में गुजारने के बाद इस समय वे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश में प्रसारित अनादि टीवी में एडिटर इन चीफ के तौर पर काम कर रहे हैं। इससे पहले वे दैनिक देशबंधु, रायपुर, भोपाल, दैनिक भास्कर भोपाल, दैनिक जागरण, भोपाल सहित कई अन्य अखबारों में काम कर चुके हैं। एलएनसीटी समूह के अखबार एलएन स्टार में भी संपादक के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं। प्रकाश भटनागर को उनकी तल्ख राजनीतिक टिप्पणियों के लिए विशेष तौर पर जाना जाता है।

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