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मोदी अब बंद करें उस्तरे की ये उस्तादी

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देश की केन्द्रीय राजनीति (Central politics) में इसे ‘छलावे की खेती’ कह सकते हैं। इससे जुड़े तथ्य इतने विश्वसनीय हैं कि मामला किसान (Farmer) पर मेहरबान सरकार का अन्नदाता को भूखा मारने की नौबत वाला भी हो चला है। समस्या यह है कि जो लोग किसान के हित की दुहाई देते हैं, खुद उन्होंने भी इस सबसे आंख मूंद रखी है। वे बेहद प्रचलित तरीके से ही किसानों की समस्याओं पर सरकार को घेर रहे हैं। इस दिशा में उनका शगल केवल तीन कृषि बिल (Agricultural bill) तक सीमित होकर रह गया है। वो बिल, जिन पर किसान के स्वयंभू हितैषियों ने दिल्ली से लेकर विदेश तक माहौल खींचने के लिए जान लड़ा दी। ऐसा इसलिए अधिक होता दिखा कि इन बिलों का विरोध शायद इन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ख्याति दिलाने की ग्यारंटी दे रहा था। देश के सवा दो राज्यों में सिमटे किसान आंदोलन (Farmers Movement) ने साबित भी किया कि इन बिलों पर मोदी सरकार (Modi government) की नीति और नीयत दोनों में कोई बड़ा खोट नहीं था। इसलिए विरोध के सुर भी अब नक्कारखाने में तूती वाली हैसियत पर आकर ही सिमटने लगे हैं।

यदि विरोध के नाम पर कृषि कानूनों से हटकर कोई देखता, तो उसके पास यह जताने के लिए पर्याप्त अवसर हैं कि केंद्र सरकार सचमुच किसानों के साथ बुरी तरह छल कर रही है। ये षड्यंत्र (Conspiracy) इतने स्पष्ट हैं कि इन्हें समझने के लिए टीकरी बॉर्डर (Tikri Border) सहित कुछ न्यूज चैनल की प्रायोजित दलीलों को झेलने के भी जरूरत नहीं है। विषय के केन्द्र में खेती की अर्थव्यवस्था (Economy) के दो महत्वपूर्ण धुर, खाद तथा डीजल हैं। इन दोनों की ही कीमतों में अत्याचार पूर्ण वृद्धि का क्रम जारी रख मोदी सरकार (Modi government) ने खेती-किसानी करने वालों की कमर तोड़ कर रख दी है। इस दिशा में जरूरी चिंतन ‘तयशुदा विचार’ के शिकार हैं। इनमें किसानों से जुड़े सरोकार स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट (Swaminathan Commission Report), किसी कृषि विशेषज्ञ के लगातार इस्तेमाल किये जा रहे आलेख या तयशुदा एजेंडा के तहत होने वाले लेखन आदि तक ही सीमित रह जाते रहे हैं।





इस बात का प्रलाप सब कर रहे हैं कि देश में पेट्रोल-डीजल (Petrol-diesel) के दाम रोज बढ़ रहे हैं। किन्तु इस तथ्य को प्रमुखता प्रदान नहीं हो पा रही है कि डीजल के दाम कैसे बकायदा साजिशन खेती-किसानी (Farming) को चौपट करते जा रहे हैं। खेती की जरूरतों संबंधी प्यास बुझाने में जिस डीजल का बहुत बड़ा योगदान होता है, उस ईंधन की कीमत आज लगातार आसमान छूती जा रही है। आज ही अखबारों में खबर है कि दुनिया में कच्चे तेल (Crude oil) की कीमतें गिर रही हैं लेकिन यहां रोज बढ़ रही हैं। देश के देहाती इलाकों में बिजली की सप्लाई का सच सबको पता ही है। तो जाहिर है कि सिंचाई के पंप में डीजल की बहुत अधिक खपत होती है। फिर खेत में ट्रेक्टर चलाने सहित फसल के परिवहन आदि में भी डीजल का अंधाधुंध खर्च होता है। अब जब यही पेट्रोलियम पदार्थ (Petroleum products) किसान की पहुंच से बाहर हो जाएगा तो फिर खेती के मामले में वह ‘नंगा क्या नहायेगा, और क्या निचोड़ेगा!’ वाली दुर्दशा का शिकार तो होगा ही, और ऐसा हो भी रहा है। विपरीत हालात के इस कोढ़ में GST की खाज ने परेशानी और बढ़ा दी है। खेती के काम में जरूरी मशीन आदि पर 18 फीसदी तक GST लगाया जा रहा है। कोरोना (Corona) के आपदाकाल में देश की वित्त मंत्री (Finance Minister) वैक्सीन पर जीएसटी की वकालत कर रही हों तो वहां किसानों के लिए ये सब सूखा, ओलावृष्टि या अति-वृष्टि जैसे प्राकृतिक संकट नहीं हैं, ये संकट पूरी तरह सरकार-निर्मित हैं। वह सरकार, जिसे इस देश ने लगातार दूसरी बार केंद्र की सत्ता सौंपी थी। अच्छे दिनों के अब पूरी तरह धूमिल हो चुके आश्वासनों से प्रभावित होकर।





अब खरपतवार की तरह बढ़ती एक और शातिराना चाल को समझे। अच्छी फसल के लिए जरूरी DAP की बोरी का दाम 1150 से बढ़ाकर 1900 रुपये कर दिया गया है। क्या आम जनता (General public) से जुड़े किसी अन्य जरूरी सामान पर ऐसी मनमानी मूल्य वृद्धि (Arbitrary price increase) कहीं और देखी है आपने? और इस सारे प्रपंच को बड़े तरीके से रफू कर दिया जा रहा है। किसानों का हितैषी होने के नाम पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल ही उनके अकाउंट में दो-दो हजार रुपये डाले। सरकार भोंपू सहित असरकारी मीडिया समूह (Effective Media Group) सरकार की इस उदारता के लिए बिछ-बिछ जा रहे हैं। बगैर यह सच उजागर किये कि जिस किसान को नाममात्र की इस रकम का कच्छा पहनाया जा रहा है, उस किसान को यह नंगापन तो इस सरकार ने ही दिया है। diesel और DAP सहित कृषि उपकरणों (Agricultural equipment) की कीमतों में अंधाधुंध इजाफे के बाद ये मामूली रकम किसान के साथ क्रूर मजाक के अलावा क्या कहा जा सकता है?

 

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देश के देहात का श्रृंगार तो कब का उजाड़ा जा चुका है। खेत में खुशी के गीत गाता हुआ किसान, मेले और तीज त्योहारों की मस्ती में डूबी ग्रामीण आबादी, जिस्म पर संपन्नता और हृदयों में खुशी ओढ़ी किसान पत्नी/पुत्री की वो मस्तियां और चौपाल के संतोष से भरे नजारे, ये सब तो अब फिल्मों से भी विलुप्त हो चुके हैं। अब महज एक उम्मीद बची है। वह यह कि वाकई क्या कभी अच्छे दिन आएंगे। इंसान बहुत भोला है। इस मिथ्या आशा के बाद भी वह निराश नहीं हो रहा। उसकी इस सदाशयता को अपनी कुटिल और धारदार नीतियों के उस्तरे से हलाल करने की उस्तादी अब तो मोदी को बंद करना चाहिए।

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