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अपनी गर्मी छोड़ इस ज्वालामुखी को देखिए

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तो एक सीट गर्म हो रही है। गर्म होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। गर्म करना प्राकृतिक क्रियाओं में सहयोग वाला मामला है। आप कुदरती और कुदरत के सहयोगी, दोनों रूप से इस प्रक्रिया के साथ हैं। दिमाग की नसों में उफान वाली तड़कन स्वाभाविक है। सठियाने के भी पंद्रह साल से अधिक के बाद ले-देकर दिल के अरमान निकले। लेकिन इससे पहले कि अरमान पूरी तरह निकलते, पंद्रह महीने में खुद के ही निकलने की स्थिति आ गयी। खाली पेट उन गरम हवाओं को जन्म देता है, जो वायु विकार का कारण बनती हैं। फिर चाहे मामला सियासी महत्वाकांक्षाओं की आधी बची भूख का ही क्यों न हो। ऐसे हालात के चलते कई बार अगला ऐसा वातावरण निर्मित करता है कि आसपास बैठने वाले नाक दबाने या इधर-उधर हो जाने पर मजबूर हो जाते हैं। तब आप बड़े परोपकारी अंदाज में बताते हैं कि, ‘सिर्फ गैस पास करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि सीट पर तशरीफ़ बदलनी चाहिए।’ इसकी व्याख्या के अंदाज़ में कहा जाता है कि मैं किसी और के लिए कुर्सी गर्म कर रहा हूं।

एक कुर्सी तो शिवाजी नगर के मुख्यालय में गर्म हो-होकर धू-धू जलने वाली अवस्था को प्राप्त हो चुकी है। आप उसे छोड़ ही नहीं रहे। खैर, ये आपके घर का मामला है, लेकिन जिन्हें बेघर कर अपनी कुर्सी पर देखने की आप चाह रखते हैं, उनके लिए ये यू टर्न वाला सफर फ़िलहाल असंभव दिखता है। क्योंकि वह कुर्सी छोड़ गली-गली संवाद और संपर्क की अपनी रवायत पर कायम हैं। उनके जूते और जुराबें गांव की धूल और शहरों की हवाओं से लिपटी हुई हैं। वह लोगों की बोली बोलने में पारंगत हो चुके हैं और आप दिल्ली दरबार की गोली चूसकर ही अपने आप में मस्त हैं। वो तो भला हो आपके राजनीतिक सहोदर का कि वह कुछ चल-फिरकर आपके अपने लोगों की सुध ले ले रहा है, आपको गोली की पिनक से झकझोर कर बता रहा है कि अपने वालों की तरफ भी ध्यान दो। तब आप कुछ पल के लिए सक्रिय होते हैं। एक ज़ुबानी तीर चलाया, फिर तुरंत खुद को तीरंदाज घोषित कर देते हैं। यह देखे बगैर कि अक्सर वह तीर तो तुक्का भी साबित नहीं हो पाता है।

एक बात आपने एकदम सही कही। अगले साल कौन कहां होगा, पता नहीं। मगर हाल-फिलहाल की तो चिंता कीजिए। कुर्सी को सेंकने की बजाय इस बात की फ़िक्र कर लीजिए कि जीवन के वानप्रस्थ वाले पड़ाव पर आपका जिक्र असफल के रूप में होने लगा है। बात सिर्फ कोई हाथ आया अवसर अधूरे में गंवा देने की नहीं है। बात यह भी कि बाकी के अवसरों को भुनाने की अनुकूल परिस्थितियों को भी आपने कुर्सी को गर्म करने के फेर में जाने दियाहै। यह क्रम निरंतर जारी भी है। इसे रोकिए। अपनी तशरीफ़ की गर्मी को अपने इरादों में उतारिए। दिखा दीजिए कि दीर्घ सियासी अनुभव सचमुच इस फितरत का है, जिससे आप स्वयं और अपने आगे-पीछे वालो की मातृ संस्था को नया जीवन दे सकते हैं। वैसे वर्तमान में यह कुछ मुश्किल दिखता है। उसकी बहुत कुछ वजह आप ही हैं।

आपकी वह बेफिक्री भी इसकी दोषी है कि अंततः खुद जनता झक मारकर आपको गर्म की जाती कुर्सी के ठीक सामने वाली कुर्सी पर ला बिठाएगी। ऐसी निष्क्रिय सोच के जाल से स्वयं को मुक्त कीजिए। पूरा मध्यप्रदेश छिंदवाड़ा नहीं है कि घूम-फिरकर आपकी ही परिक्रमा करता दिख जाए। बहुत अहसान कि आपने किसी का मकान खाली नहीं करवाया। लेकिन अपनी खोई जमीन के खालीपन से तो निपट लीजिए। उस जमीन पर आपके अपनों में ही आपके लिए असंतोष वाला ज्वालामुखी धधक रहा है। यकीन मानिए आपके द्वारा कुर्सी गर्म की जाने वाली बात की इस ज्वालामुखी की तपिश के आगे कोई हैसियत नहीं है। अपनी गर्मी की बात भूलिए और इस ज्वालामुखी के खतरनाक लावे की तरफ ध्यान केंद्रित कीजिए।

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