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किशोर का यह शोर

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आमूलचूल बदलाव के लिहाज से बिहार की राजनीतिक जमीन (Bihar’s Political Land) काफी उर्वरा किस्म की रही है। गांधी जी (Gandhiji) ने यहां चम्पारण में किसान आंदोलन (Farmer’s Movement in Champaran) का सूत्रपात कर देश में ब्रिटिश हुकूमत (British rule) के विरुद्ध लोगों को एकजुट करने की शुरूआत की थी। इसी राज्य के पटना (Patna) से आरंभ हुए लोकनायक जयप्रकाश नारायण (Lok Nayak Jayaprakash Narayan) के छात्र आंदोलन ने अंतत: दिल्ली की सत्ता की नींव हिला दी थी। प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) बिहार के ही बक्सर (Buxar of Bihar) की पैदाइश हैं और अब इस राज्य में वह किसी राजनीतिक क्रांति की शैली में तीन हजार किलोमीटर की पदयात्रा शुरू करने जा रहे हैं। इसका आरंभ भी चम्पारण से ही होगा।

शुरूआत खालिस रणनीतिक किस्म की दिख रही है। चुनाव के मैनेजर के रूप में ख्याति अर्जित कर चुके किशोर का दावा है कि राज्य के हजारों लाइक माइंडेड लोगों (thousands of like minded people) को उन्होंने इस कार्यक्रम से जोड़ा है। किशोर राज्य की बदहाली का जिक्र कर रहे हैं और यह फिक्र भी करते दिख रहे हैं कि हालात में किस तरह बदलाव लाया जाए। राजनीति के भवसागर में कई घाटों का पानी पी चुके प्रशांत किशोर ने यह भी कहा है कि फिलहाल वह किसी राजनीतिक दल का गठन नहीं करेंगे। इस घोषणा के लिहाज से PK के व्यक्तित्व का संधि विच्छेद अन्ना हजारे (Anna Hazare) और अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) के रूप में किया जा सकता है। यह उम्मीद की जा सकती है कि अन्ना की तरह किशोर की यह मुहिम भी अंतत: राजनीतिक साबित नहीं होगी और यह संभावना भी जताई जा सकती है कि अंततोगत्वा मामला केजरीवाल की भांति उस घोर राजनीतिज्ञ के रूप में काया परिवर्तन का दिखे, जिसकी अन्ना आंदोलन (Anna Andolan) के आरंभ में किसी ने कल्पना तक नहीं की थी।

एक जिज्ञासा सहज रूप से उठती है। आखिर किशोर ने अपने इन प्रयासों की शुरूआत को शून्य से ही करने का बीड़ा क्यों उठाया है? उनके पास एक अच्छा मौका था कि यह सब वह देशव्यापी रूप में कर सकते थे। किशोर को कांग्रेस (Congress) में पद और कद, दोनों के लिहाज से ही तगड़े अवसर सुलभ थे। तब बिहार के हजारों लोगों की बजाय देश के लाखों लोग (कांग्रेस से जुड़े तथा इसके समर्थक) उन्हें अपने मिशन को आगे बढ़ाने के लिए सहज-सुलभ रूप से मिल जाते। किशोर को एक इतना बड़ा मंच हासिल हो सकता था, जिस पर आसीन होकर वह बिहार की हदों से पार देश की सरहदों तक सुधारवादी कार्यक्रम संचालित कर सकते थे। भले ही आज कांग्रेस कमजोर दिखती हो, किन्तु यह बात कोई नहीं खारिज कर सकता कि इस दल के पास आज भी ऐसे असंख्य लोग हैं, जो एक स्पष्ट सोच वाले नेतृत्व के साथ सफलतापूर्वक आगे बढ़ने की क्षमता से रखते  हैं।

इस सबके बाद भी प्रशांत ने बिहार को हांडी के एक चावल के रूप में चुना है। उनकी बड़ी महत्वाकांक्षाएं किसी से छिपी नहीं हैं, इसलिए यह माना जा सकता है कि किशोर ने दिल्ली की बजाय बिहार (Bihar) का चयन कर दो कदम आगे बढ़ने के लिए एक कदम पीछे हटने वाली रणनीति को अंगीकार किया है।  वह बिहार से देश के बाकी हिस्सों तक अपनी छाया का विस्तार भले ही JP जितना न कर सकें, किन्तु यह तो मुमकिन ही है कि किशोर इस मुहिम के बाद केंद्रीय राजनीति में अपने प्रभाव को लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) के चुक  चुके दौर और नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के चल रहे दौर की कतार में ला खड़ा कर दें।

बिहार में इस समय एक राजनीतिक शून्य तेजी से आकार ले रहा है। लालू के पुत्र पिता की विरासत को बिरसे में मिले राजनीतिक अनुभवों के बाद भी पुरानी गति प्रदान नहीं कर पा रहे हैं। नीतीश कुमार की अभिलाषाओं के समुद्र की लहरें अब दिल्ली तक केवल तब ही टकराती हैं, जब उन्हें बिहार में अपनी स्थिति और मजबूत करना होती है। दिल्ली के तख़्त को लेकर जो सख्त तेवर उन्होंने वर्ष 2014 के पहले दिखाए थे, अब वह नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की अपराजेय (फिलहाल) हो चुकी छवि के आगे काफी हद तक सरेंडर कर चुके हैं। रामविलास पासवान (Ram Vilas Paswan) की राजनीतिक विरासत को घर के ‘चिराग’ से ही आग लग चुकी है। जीतन राम मांझी (Jitan Ram Manjhi) जैसे धारदार अवसरवादी तथा मोहम्मद शाहबुद्दीन (Mohammad Shahabuddin) से लेकर पप्पू यादव (pappu yadav) वाली परंपरा के बाहुबली राजनीतिज्ञ भी अब पहले जितने समर्थ नहीं रहे हैं। इस सबसे उपजते शून्य के बीच ही प्रशांत किशोर ने स्वयं के लिए संभावनाओं को टटोलने का काम शुरू कर दिया है।

लेकिन प्रशांत किशोर कितने सफल होंगे, इसे लेकर फिलहाल अनिश्चय ही ज्यादा दिखता है। आखिर यह उस राज्य का मामला है, जिसमें शायद हमेशा से ही मतदाता का आग्रह विकास या बदलाव की बजाय जाति और समुदाय के लिए ही रहा है। घोर जातिगत गणित या गन-तंत्र की बदौलत ही इस प्रदेश की राजनीतिक प्रक्रिया संचालित होती है। यहां का अधिकांश मतदाता आज भी किसी प्रत्याशी के रूप में व्यक्ति नहीं, बल्कि उसकी जाति या रसूख से ही प्रभावित होता है। प्रशांत किशोर ब्राह्मण वर्ग से हैं। वह वर्ग, जिसकी सियासत को लालू प्रसाद के मुस्लिम-यादव सहित अन्य पिछड़ी जातियों वाले गणित ने नेपथ्य में धकेल दिया।

नतीजा यह हुआ कि किसी समय विवेकानंद झा (Vivekananda Jha) , कैदार पांडे (Kaidar Pandey), ललित नारायण मिश्र (Lalit Narayan Mishra), जगन्नाथ मिश्रा (Jagannath Mishra), बिंदेश्वरी दुबे (Bindeshwari Dubey) तथा भगवत झा आजाद (Bhagwat Jha Azad) जैसे ब्राह्मण नेताओं के असर के साथ ही इस प्रदेश में ब्राह्मण वर्ग के लिए राजनीति में शीर्ष वाले अवसरों का अवसान हो गया। हालांकि बिहार में ब्राह्मण भले ही छह फीसदी रहे हों लेकिन कांग्रेस की राजनीति में तो इनका दबदबा था। लेकिन 1990 में लालू यादव और बाद में नीतिश कुमार के उदय और स्थायित्व ने अगड़ी जातियों को किनारे कर दिया है। लिहाजा नेतृत्व के नाम पर अगड़ी जातियों के हाथ में लगभग कुछ भी नहीं रह गया है।

ऐसे में यह देखना होगा कि इस वर्ग के प्रशांतकिशोर किस तरह स्वयं को ऐसे प्रदेश में जाति के गणित से मुक्त रखकर व्यापक जनसमर्थन की पूंजी को हासिल कर सकेंगे। निश्चित ही तीन हजार किलोमीटर की इस यात्रा से प्रशांत स्वयं को बिहार के बहुत बड़े हिस्से से जोड़ सकेंगे, लेकिन क्या वे इस हिस्से को खुद से भी जोड़ पाएंगे? यह बड़ा प्रश्न है। नशाबंदी वाले बिहार में प्रशांत किशोर का यह अभियान सियासी साबित होगा या फिर यह वह स्याही बनेगी, जिससे बिहार के विकास की नयी कहानी लिखी जाएगी, यह समय ही बताएगा। फिलहाल तो भूमिका में बदलाव को लेकर पीके का यह शोर गौरतलब बन गया है।

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