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खड़गे की चादर और केसरी का फटा कुर्ता

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चलिए। मामला ‘जस की तस धर दीनी चदरिया’ वाला हो गया। मामला यह भी हो गया कि कांग्रेस (Congress) में फिलहाल गांधी-नेहरू परिवार (Gandhi-Nehru family) के वर्चस्व को टस से मस करने की कुव्वत किसी की नहीं है। मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) का पार्टी का नया राष्ट्रीय अध्यक्ष (new national president) बनना अब मात्र औपचारिकता रह गयी है। साथ ही औपचारिकता के रूप में यह भी कहा जा सकता है कि अंतत: गांधी-नेहरू परिवार ने एक बार फिर बड़ा त्याग करते हुए पार्टी अध्यक्ष का पद किसी और को दे दिया। यह वैसे ही होगा, जैसा कभी सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने डॉ. मनमोहन सिंह (Dr. Manmohan Singh) को प्रधानमंत्री बनाकर ‘त्याग’ किया था। इसके बाद देश में प्रधानमंत्री के नाम पर दस साल तक मौनमोहन सिंह शासन चला था। संजय बरुआ (Sanjay Barua) की किताब में वह स्वर साफ सुने जा सकते हैं, जो नेपथ्य से उस पूरे समय बोले जाते रहे और वही स्वर सुने भी जाते रहे। खड़गे जिस तरह से गांधी-नेहरू कुनबे के लिए समर्पित हैं, उससे यह कहा जा सकता है कि नामांकन भरने के साथ ही वह भी कम बोलने और अपने तई कुछ खास न करने का अभ्यास आरंभ कर चुके होंगे। आखिर इस संभावना ने ही तो संभावनाओं के परे पक्के तौर पर उनके कांग्रेस का नया अध्यक्ष बनाने का रास्ता साफ किया है।





दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) अंतिम समय पर खड़गे के प्रस्तावक-मात्र बनकर रह गए। बहुत संभव है कि राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की हरी झंडी मिलने के बाद ही सिंह ने नामांकन भरने की घोषणा की हो। लेकिन एन वक्त पर बात पलट गयी। सोनिया गांधी ने गुरूवार देर रात प्रियंका वाड्रा (Priyanka Vadra) से बात की। प्रियंका भले ही राजनीति में भविष्य देखने की क्षमता से विहीन हों। जैसा कि उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) के बीते लोकसभा (Lok Sabha) और विधानसभा चुनावों (assembly elections) के नतीजों से साफ है। लेकिन भूतकाल से तो कोई भी अवगत हो सकता है। इसलिए उन्हें याद आ गया होगा कि ‘परिवार’ के हक तथा हित में पुरानी बातें न बिसराई जाएं। चुरहट मामले (Churhat cases) में अदालती फैसले की हार के बाद भी एक समय अर्जुन सिंह (Arjun Singh) ने राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) के कहने के बाद भी CM पद छोड़ने से मना कर दिया था। ऐसे बगावती तेवर दिखाए थे कि कांग्रेस आलाकमान अर्जुन के सिंहनाद के आगे घुटनों के बल थर-थर कांपते हुए बैठ गया था। एक समय प्रधानमंत्री तथा कांग्रेस के अध्यक्ष पीवी नरसिंह राव (PV Narasimha Rao) ने आंखें तरेरी थीं, तो दिग्विजय सिंह ने मंत्रिमंडल का सामूहिक इस्तीफा करवाकर राव को शांत कर दिया था। इस मामले में अशोक गहलोत प्रकरण तो खैर ताजा है ही। मुमकिन है कि इन यादों में गोता लगाकर ही यह तय पाया गया हो कि अब फिर डूबने जैसी नौबत नहीं आने देना है। यहीं से वह सेतु तैयार हुआ होगा, जिस पर चढ़कर खड़गे अब अध्यक्ष पद की वैतरणी पार कर रहे हैं।

खड़गे का चयन एक बार फिर बताता है कि Congress में पार्टी के विश्वसनीय होने से भी बड़ा काम परिवार का खास होना है। और परिवार का खास होने से भी अधिक जरूरी है कि खुद के भीतर के राजनीतिज्ञ को खत्म कर दिया जाए। अर्जुन सिंह ने राजीव गांधी को याद करके आंखें भिगो लीं। सोनिया गांधी के लिए आंखें मूंदकर श्रद्धा का इजहार करते रहे। लेकिन PM पद की बारी आई तो सोनिया ने नरसिंह राव पर भरोसा जताया। कमलनाथ (Kamal Nath) ने इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) से लेकर संजय गांधी और राजीव गांधी तक अपनी निष्ठा जताने में कोई कंजूसी नहीं की। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद सोनिया ने सदन में कांग्रेस के नेता के रूप में खड़गे को चुना। ये वह नाम थे, जो अपने-अपने चयन के समय रक्त वाहिकाओं में राजनीतिज्ञ की बजाय परिवार के लिए समर्पण के बहाव पर अधिक ध्यान देते थे।





खड़गे कर्नाटक (Karnataka) से हैं। वहां लोकसभा से पहले ही विधानसभा चुनाव होना है। यह दलील दी जा सकती है कि खड़गे का चयन कर कांग्रेस ने दक्षिण भारत में अपनी सूख चुकी जड़ें फिर से हरी करने की कोशिश की है। लेकिन क्या यह संभव दिखता है? तमिलनाडु में कांग्रेस कहीं भी नहीं है। केरल में वामपंथी दलों से मुकाबले के लिए वह यूडीएफ की बैसाखी पर झूलने को मजबूर है। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश (Telangana and Andhra Pradesh) की राजनीति विशुद्ध रूप से क्षेत्रीय दलों की झोली में जा बैठी है। तो खड़गे यहां क्या कर पाएंगे? फिर उनका तो खुद के राज्य कर्नाटक में भी कोई जमीनी आधार नहीं है। आपातकाल (emergency) के समय तक कांग्रेस का दक्षिण में भारी समर्थन रहा। लेकिन अब परिस्थितियां इतनी जटिल हो चुकी हैं कि उन्हें सुलझाने के लिए खड़गे की क्षमताओं पर संदेह किया जाना नि:संदेह गलत नहीं कहा जा सकता है। बहरहाल, खड़गे का चयन Congress के लिए दक्षिण के लिहाज से कितना मुफीद रहा, यह तो कर्नाटक में अगले साल पता चल ही जाएगा, लेकिन यह अभी से पता है कि जिस दिन राहुल से लेकर प्रियंका या रेयान वाड्रा में अध्यक्ष पद की संभावना के बीज फूटने लगेंगे, उस दिन यह साफ हो जाएगा कि परिवार की सत्ता कायम रखने के लिहाज से खड़गे बेहद मुफीद चयन साबित हुए। वह ‘जस की तस धर दीनी चदरिया’ वाले निस्पृह भाव से रास्ता छोड़कर फिर दरबारी बन जाएंगे। आखिर खड़गे की इस चादर और सीताराम केसरी के उस फटे कुर्ते में कोई तो अंतर है। इस अंतर को पार किए बगैर कांग्रेस में अब किसी का बेड़ापार नहीं हो सकता, यह कम से कम इस पार्टी के वर्तमान का सबसे बड़ा सच है।

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