17.9 C
Bhopal

कैसे रोकोगे ऐसे तूफान को !

प्रमुख खबरे

फिल्म थी आनंद मठ। गीत के बोल, ‘कैसे रोकोगे ऐसे तूफान को।’ अचानक इस फिल्म की याद नहीं आई है। खबर थी कि मध्यप्रदेश विधानसभा (Madhya Pradesh Legislative Assembly) के लिए असंसदीय शब्दों (unparliamentary words) का एक शब्दकोशनुमा व्यवस्था की गई है। इसमें बताया गया है कि सदन में कौन से शब्द असंसदीय माने जाएंगे और सदस्यों अपने भाषण में ऐसे शब्दों के चयन से बचना चाहिए। इनमें ‘पप्पू’ और ‘फेंकू’ सहित अन्य कई शब्दों के प्रयोग को असंसदीय मानते हुए रोक लगायी गयी है। यहअच्छी पहल है। विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम (Assembly Speaker Girish Gautam) इसके लिए साधुवाद के पात्र हैं।

स्मृति पिछले कई पड़ावों पर चली गयी। उस समय के, जब मैं विधानसभा का कवरेज किया करता था। ढेरों बातें और किस्से हैं। उनमें से ही दो बातें साझा कर रहा हूं। शहडोल से सांसद हुआ करते थे दलबीर सिंह (Dalbir Singh)। विधानसभा में एक सदस्य ने नाम लेकर उन पर कोई आरोप लगा दिया। सत्तारूढ़ कांग्रेस (Congress) ने इस पर आपत्ति की। कहा कि जो व्यक्ति सदन का सदस्य नहीं है, उस पर इस तरह नाम लगाकर आरोप नहीं लगाया जा सकता। विपक्ष ने तुरंत सुर बदला। नाम की जगह केवल ‘शहडोल के सांसद’ का इस्तेमाल किया। फिर आरोप लगाने वाले सदस्य ने बाहर प्रेस कक्ष में आकर दलबीर सिंह का नाम लेकर आरोप दोहरा दिए। अब वह नाम भले ही सदन की कार्यवाही से हट गया, लेकिन अखबारों में प्रेस रूम में हुई चर्चा के हवाले से सिंह की कुख्याति खबर के रूप में छप गयी। अगली घटना रीवा (Rewa) में आयी भीषण बाढ़ से जुड़ी हुई थी। विपक्ष ने आरोप लगाया कि विधानसभा अध्यक्ष (तब श्रीनिवास तिवारी (Srinivas Tiwari) इस पद पर थे) के इशारे पर राहत राशि के वितरण में गड़बड़ी हो रही है। इस पर आपत्ति आयी कि अध्यक्ष का इस तरह उल्लेख नहीं किया जा सकता। तब सदस्यों ने सदन में बाकायदा ‘श्रीयुत श्रीनिवास तिवारी’ का इस्तेमाल कर अपने आरोप लगाए और वह सभी रिकॉर्ड में आते चले गए।

तो ऐसी सुराखदार व्यवस्थाओं के बीच से आप किस तरह मर्यादित शब्दावली (limited vocabulary) के उपयोग को सुनिश्चित कर पाएंगे? ‘पप्पू’ की जगह बेहद सुविधा के साथ ‘गप्पू’ और ‘फेंकू ‘ के विकल्प के तौर पर पूरे सुभीते के साथ कोई और शब्द इस्तेमाल कर लिए जाने की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी। सच तो यह है कि किसी बड़े आंतरिक एवं स्व-स्फूर्त बदलाव के बगैर गौतम की इच्छा वाले सुधार लागू किये ही नहीं जा सकते हैं। विधानसभा के पुस्तकालय में पुरानी कार्यवाही पढ़ लीजिये। एक समय की कार्यवाही इतनी मर्यादित तथा नियमपूर्ण होती थी कि चर्चा में पक्ष एवं विपक्ष के सदस्यों की तर्कशीलता का कोई भी लोहा मान ले। लेकिन कालांतर में ऐसा खत्म होता चला गया। क्योंकि सदस्यों (सभी के नहीं) के भीतर से ही इस सुधार को कायम रखने के आग्रह का क्षरण होता गया। फिर जब इस तरह का अमर्यादित आचरण मीडिया की मेहरबानी से सुर्खियां पाने का जरिया बन गया तब तो अधोपतन की जैसे होड़-सी मच गयी, जो दुर्भाग्य से अब भी जारी है। मुझे याद है तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष डा. गौरीशंकर शेजवार Dr. Gaurishankar Shejwar() की। वे सदन में भाषण देते देते अचानक उत्तेजित आवाज में बोलने लग जाते थे।

जाहिर है मीडिया (Media) का ध्यान जाता ही था। एक बार उन्होंने ही बातों ही बातों में खुलासा किया कि जब भी मीडिया का ध्यान आकर्षित करना होता है मैं आवाज में तेजी ले आता हूं। आज किसी तीस साल पुराने दौर के साक्षी से पूछ लीजिये। वह आपको ‘चप्पल-चूड़ी काण्ड’ (Sandal-ring scandal) पूरी तफ्सील से सुना देगा, किन्तु उसके पास यह जानकारी शायद ही मिल पाए कि इस अवधि में कौन सी ऐसी सारगर्भित बहस थी, जिसे वह आज भी याद रखता है। वह आपको बुंदेलखंड से मालवा की तरफ चले ‘मियां-बीवी राजी…’ वाले बखेड़े की जानकारी विस्तार से दे देगा, किन्तु यह शायद ही उसकी स्मृति में हो कि उसने विधानसभा में किस विशुद्ध जन-हित से जुड़ी सार्थक चर्चा का कवरेज किया था। जब हो-हल्ला से लेकर हुल्लड़ तक की सुनामी आये दिन सदन की मर्यादा को अपनी आगोश में ले लेती हो तो फिर महज कुछ शब्दों के इस्तेमाल पर रोक की कोशिश से भला क्या हो जाएगा? मुझे याद है कि विधानसभा में भोजन अवकाश के बाद दूसरे सत्र में लोक महत्व के कई मुद्दों पर जोरदार और तर्क संगत चर्चाएं कभी हुआ करती थीं। लेकिन अव वो जमाना बीत गया। अब तो दोपहर बाद वाले सत्र में गिनती की मौजूदगी सदन में रहती है।

विधानसभा की मयार्दा के प्रति पूरी श्रद्धा रखते हुए एक बात कहना चाहूंगा। हम उस व्यवस्था में जी रहे हैं, जहां दादा कोंड़के की फिल्मों को सेंसर बोर्ड ने मंजूरी दी। वो फिल्में, जिनमें अश्लीलता के चरम को स्पर्श करते संवाद भी केवल इसलिए हटाए नहीं जा सके कि उन्हें बड़ी चतुराई के साथ दो-अर्थी बना दिया गया था। विधानसभा में ही सत्तारूढ़ दल की एक विधायक मंत्री के जवाब के बाद कहती है कि वह संतुष्ट है तो जवाब में कोई चुहलबाज सदस्य यह जिज्ञासा जताता है कि आखिर सत्ता पक्ष की महिलाऐं इतनी जल्दी संतुष्ट कैसे हो जाती हैं? ऐसा इसी सदन में हुआ है और उस पर कोई रोक उसी तरह नहीं लगाई जा सकी, जैसा की दादा कोंड़के की फूहड़ फिल्मों के साथ हुआ। यही व्यवस्था के सुराखदार होने का वह पीड़ादायी सच है, जो गिरीश गौतम की सदाशयता की सफलता के सामने बहुत बड़ी चुनौती बना रहेगा। इसलिए मेरा मानना है कि ये सुधार किसी नियमावली से नहीं, बल्कि सदस्यों के भीतर स्व-सुधार एवं सदन की गरिमा कायम रखने की भावना से ही संभव हो सकेगा। वरना तो ये उस मानसिकता का मामला है, जो अपनी तमाम विद्रूपताओं के बावजूद पूरी तरह ढीठ होकर सुधार के हर प्रयास के लिए कहती है, ‘कैसे रोकोगे ऐसे तूफान को!’

- Advertisement -spot_img

More articles

- Advertisement -spot_img

ताज़ा खबरे