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मरते हुए को मर जाने की सलाह न दें

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निहितार्थ : ‘शहर में शोर मत करो कि शहजादों की आंख आयी हुई है।’ हुक्मरानों की अकड़ से भरी नजाकत को बताती यह पंक्ति आज याद आ गयी। इन्दर सिंह परमार (Inder Singh Parmar) राज्य की सरकार का हिस्सा हैं। शिक्षा मंत्री हैं। परमार आज हत्थे से उखड़ गए। स्कूलों की फीस को लेकर माता-पिता का एक समूह मंत्री से गुहार लगाने गया था। शायद शिकायत करने वालों को यह लगा होगा कि वह अपनी तकलीफ मंत्री को समझा नहीं पा रहे हैं। लिहाजा उन्होंने अपनी बात में वजन लाने की गरज से पूछ लिया कि पहले ही खराब चल रहे हालात के बीच फीस के बोझ से भी क्या वे मर जाएं? आरोप है कि शिक्षा मंत्री ने उनसे कह दिया कि ‘ मर जाओ।’

लोगों की पीड़ा गलत या झूठी नहीं है. सचमुच निजी स्कूल कोरोना (Corona) के समय में भी मनमानी फीस वसूल रहे हैं। मंत्री के पास पहुंचे समूह का ‘क्या मर जाएं?’ पूछना भी गलत नहीं था। क्योंकि कोरोना ने आर्थिक रूप से उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों (Upper Middle Class Families) तक की कमर तोड़ दी है। यदि आपको ऐसा लगता है कि मंत्री इस भीड़ द्वारा ‘लिबर्टी लिए जाने’ की गुस्ताखी पर भड़क गए, तो ये भी हजम होने वाला तर्क नहीं है। इस राज्य ने शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chauhan) के रूप में एक ऐसा मुख्यमंत्री देखा है, जिनके काफिले को इंदौर (Indore) में बीच सड़क पर रोककर एक महिला ने स्कूल की ऐसी ही मनमानी की शिकायत की थी। मुख्यमंत्री ने उस महिला की बात सुनी। संबंधित स्टाफ से मामले में कार्रवाई करने को कहा। यही शिवराज पेटलावद (Petlawad) में धमाके के बाद लोगों की भीड़ के बीच सड़क पर बैठकर उसका गुस्सा झेलते दिखे थे। बगैर आपा खोये। मंदसौर (Mandsaur) में पुलिस की गोली से छह किसान मारे गए थे। इसके बाद वहां की जनता के सिर पर खून सवार था। लेकिन शिवराज इसकी परवाह किये बगैर न सिर्फ मंदसौर गए, बल्कि मृतक किसानों के घर तक जाकर उनके परिजनों से मिले। जबकि यह वह समय था, जब वहां की जनता कुछ भी कर गुजरने पर आमादा थी। अब पंद्रह साल से ज्यादा तक जिस राज्य की जनता ने ऐसा मुख्यमंत्री देखा हो, उसकी सरकार की संवेदनशीलता से लगातार उम्मीद बढ़ती ही जाएगी। उसके भीतर यह विश्वास निरंतर गाढ़ा होता चला जाएगा कि वह सहज रूप से उपलब्ध एक शासन व्यवस्था के तहत है।





शायद यही भाव आज ‘मर जाने के लिए छोड़ दिए गए’ अभिभावकों को भीतर तक आहत कर गया। इससे यह भी हुआ कि शिवराज द्वारा करीब डेढ़ दशक के लगातार प्रयास के बाद बनायी गयी संवेदनशील सरकार की छवि पर एक झटके में सवालिया निशान लग गए। परमार भी आखिर मनुष्य ही हैं। हो सकता है कि अभिभावकों के गुस्से के चलते वह अपना आपा खो बैठे हों। लेकिन क्या जिम्मेदार व्यक्ति के तौर पर ऐसा आचरण उन्हें शोभा देता है? सोशल मीडिया (Social Media) और मीडिया (Media) पर हर तरफ परमार के आचरण का चर्चा है। कहीं कटाक्ष तो कहीं निंदा के रूप में। यह जरूरी नहीं था कि मंत्री अभिभावकों की हर मांग पूरी करते। लेकिन आप ‘गुड़ न खिलाओ, किन्तु गुड़ जैसी बात तो कर लो’ जैसी सज्जनता और समझदारी तो दिखा ही सकते थे? जो कि मंत्री ने नहीं किया। तो कहीं न कहीं उनका आचरण सत्ता के दंभ में चूर होने की चुगली करता है। ये अकड़ आखिरकार नुकसान ही देती है। कमलनाथ (Kamalnath) ने मुख्यमंत्री रहते हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) के लिए ‘तो उतर जाएं’ जैसी बात कह दी थी। इसके चलते हुए 28 सीटों के चुनाव में कांग्रेस (Congress) की जो गत हुई, उसके पीछे एक बड़ा फैक्टर इस वाक्य के कारण नाथ के प्रति लोगों की नाराजगी वाला भी रहा था।

फिर यहां तो परमार ने जिस पीड़ा के लिए ऐसा अनुचित आचरण किया है, वह घर-घर की कहानी वाला मामला है। राज्य के ज्यादातर परिवार इस समय में फीस की समस्या को लेकर दुखी हैं। अब तक वे केवल स्कूलों के लिए गुस्से में थे और अब यह तय है कि परमार के व्यवहार के चलते ये गुस्सा राज्य की सरकार के लिए आक्रोश में तब्दील होने लगेगा। मंत्री का यह व्यवहार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की ‘मध्यप्रदेश मेरा मंदिर है…’ वाली छवि से दूर-दूर तक मेल नहीं खा रहा है। परमार पुराने राजनीतिज्ञ हैं। इसलिए उनका यह आचरण राजनीतिक अपरिपक्वता वाला मामला नहीं हो सकता। यह उस दंभ का प्रतीक है, जो कुर्सी मिलने की अकड़ का परिचायक है।





परमार जी, यह जनता-जनार्दन है। इसके कोप से बचिए। दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) अपने दूसरे कार्यकाल में जनता नामक फैक्टर को जैसे भूल ही गए थे। उनको अपने चुनाव मैनेजमेंट का गुरूर था। वह यह थ्योरी लेकर चल रहे थे कि चुनाव काम करने से नहीं, बल्कि चीजों को मैनेज करने से जीते जाते हैं। आख़िरी में जनता ने ही दिग्विजय को बता दिया था कि अपनी ही अकड़ से किस तरह चुनाव हारे जाते हैं। ये वही अभिभावक हैं, जो आने वाले विधानसभा चुनाव में भी वोट देंगे। जिनके बच्चों में से बहुत बड़ी संख्या में नए वोटर्स 2023 तक तैयार हो चुके होंगे। यदि इनके बीच आज वाले अपमान की चिंगारी तब तक भी सुलगती रही तो फिर परमार की यह किसी बड़े मुद्दे की शक्ल ले सकती है। ऐसे मंत्रियों के आचरण पर अंकुश लगाया जाना बहुत जरूरी है। मंत्री अपनी अकड़ दिखा चुके। पीड़ित पक्ष अपना दर्द बयां कर चुका। अब गेंद चाहे जिस भी पाले में हो, वह कुछ बड़ा खेल करने के लिए तैयार हो गयी दिखती है। मरते हुए को मर जाने की सलाह मत दीजिये मंत्रीजी। आपका तो नहीं पता, लेकिन ये जरूर पता है कि शिवराज सिंह चौहान की सरकार के लिहाज से यह आचरण कतई शोभा नहीं देता है।

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