फ़िलहाल यह मामला चाय का खोमचा लगाने वाले उस शख्स जैसा लग रहा है, जिसने अपने दोस्त से दावा किया कि यदि उसे अंबानी समूह का सारा कारोबार मिल जाए तो वह इस समूह की कमाई बढ़ा देगा। हैरत से भरे दोस्त ने पूछा ‘कैसे?’ खोमचे वाले ने जवाब दिया, ‘उस कारोबार के साथ ये खोमचा भी तो चलाऊंगा।’ यही स्थिति उन चौदह विपक्षी दलों की दिख रही है, जिन्होंने आज बैठक के बाद दावा किया कि आगामी लोकसभा चुनाव में वे मिलकर भाजपा को सौ सीटों से नीचे ले आएंगे।
तो बात आगे बढ़ाने से पहले ज़रा इन दलों की सियासी सेहत का मुआयना कर लिया जाए। कुल 543 सदस्यीय लोकसभा में, इन दलों की संयुक्त ताकत 200 से भी कम है। लेकिन उनके नेताओं को उम्मीद है कि वे मिलकर भाजपा को अगले लोकसभा चुनाव में 100 सीटों से कम पर समेट देंगे। फिलहाल लोकसभा में भाजपा की सीटों की संख्या 300 से अधिक है। भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस ने पिछले संसदीय चुनाव में 54 सीटें जीती थीं। वर्ष 2014 में उसने केवल 44 सीटें जीती थीं, जो उसका अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन था। बैठक में शामिल दो दल, राजद और भाकपा माले पिछले लोकसभा चुनाव में एक भी सीट जीतने में असफल रहे थे। हालांकि दोनों ने एक साल बाद हुए बिहार विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया। अब उन्हें उम्मीद है कि अगले लोकसभा चुनाव में भी वह अच्छा प्रदर्शन करेंगे। अन्य दलों में, केवल तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक और जद (यू) ने पिछले आम चुनाव में दोहरे अंक में सीटें हासिल की थीं। शिवसेना ने 18 सीटें जीती थीं, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि कितने सांसद, विपक्षी एकता की वकालत करने वाले उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाले गुट के साथ बने रहेंगे।
बैठक के बाद का दृश्य राजश्री प्रोडक्शन वालों की खालिस नौटंकी वाली पारिवारिक फिल्मों जैसा था। नीतीश कुमार और मल्लिकार्जुन खड़गे से लेकर राहुल गांधी तथा ममता बनर्जी ‘हम साथ-साथ हैं’ वाले स्वर बुलंद कर रहे थे। तो ये साथ-साथ तो फिलहाल नेतृत्व के सवाल पर अटका हुआ है, तो फिर मामला वहां तक कैसे पहुंचेगा, जहां का दावा किया जा रहा है? हो सकता है कि इन दलों को भविष्य के न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर विश्वास हो। ये सभी पार्टियां अगले महीने शिमला में बैठक करेंगी। कहा जा रहा है कि शरद पवार कार्यक्रम तैयार करेंगे। पवार की तीक्ष्ण राजनीतिक बुद्धि पर किसी को अविश्वास नहीं हो सकता। इसलिए संभव है कि इस दिग्गज मराठा नेता के पिटारे में कुछ ऐसा हो, जो फिलहाल की खोमचे जैसी दिखती स्थिति को किसी विराट शॉपिंग मॉल में तब्दील करने की क्षमता रखता हो, लेकिन क्या इन दलों में वह क्षमता है कि वे साथ मिलकर उस कार्यक्रम को सफल कर सकें?
आज की बैठक वाली पार्टियों में केवल कांग्रेस का देश के विभिन्न हिस्सों में कुछ असर है। बाकी सभी अपने-अपने प्रभाव वाले राज्यों तक सीमित हैं। ऐसे में सवाल यह कि पवार सहित नीतीश, ममता, लालू प्रसाद यादव या अरविंद केजरीवाल क्या किसी तरीके से राष्ट्रव्यापी स्तर पर वह विश्वास और प्रभाव स्थापित कर सकेंगे, जो भाजपा को केंद्र से उखाड़ फेंकने में सफल रहेगा? फिर कांग्रेस की स्थिति तो पहले ही 54 सांसदों के रूप में सामने है।
आलम यह है कि भाजपा ने ममता के राज्य पश्चिम बंगाल में अपनी ताकत का विस्तार किया है और इस दल के चलते ही वामपंथी शासन देश के केवल एक राज्य केरल तक सिमट कर रह गया है। बैठक से ठीक पहले भाजपा ने बिहार में जातिवादी गणित को प्रभावित करने वाली जीतन राम मांझी की ‘हम’ को अपनी तरफ खींच लिया है। ठाकरे की समस्या यह कि वे घर के झगड़े में ही उलझ कर लगातार कमजोर होते जा रहे हैं। निश्चित ही इस मोर्चे की पुरजोर वकालत कर रहे अखिलेश यादव का उत्तरप्रदेश में खासा असर है, लेकिन इसी राज्य की उपज बहुजन समाज पार्टी ने इस बैठक को ‘मुंह में राम, बगल में छुरी’ की संज्ञा देकर यह जता दिया है कि कम से कम उत्तरप्रदेश में तो वह गठबंधन के लिए चुनौती बनी रहेगी। निःसंदेह आम आदमी पार्टी को अपनी ‘रेवड़ी’ राजनीति पर पूरा भरोसा है, लेकिन क्या यह प्रयोग न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल किया जा सकेगा? इस तरह के अनंत सवाल और आशंकाएं हैं। सबसे बड़ा सवाल यह कि इस गठबंधन पर नियंत्रण किसका रहेगा? क्योंकि अभी तो सफर की शुरुआत प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार वाली बात को किनारे पर रखकर की गयी है, लेकिन एक अनार और चौदह बीमार की स्थिति को क्या लंबे समय तक हाशिए पर रखा जा सकता है? इसीलिए जब यह कहा जा रहा कि ‘हम साथ-साथ हैं’ तब यह पूछ लेना चाहिए कि इस साथ को साध रखने के लिए जरूरी प्राण-वायु का क्या बंदोबस्त किया गया है? क्या चाय का खोमचा चाय वाले को मात दे सकेगा? इस के जवाब की प्रतीक्षा काफी रोचक हो सकती है।