मॉरीशस में भारतीय आबादी काफी अधिक है। उनके पुरखे श्रमिक के रूप में उन्नीसवीं शताब्दी में वहां ले जाए गए थे। खासकर भोजपुरी बोली वाले क्षेत्र से वहां गए लोग अपने साथ तुलसी का बिरवा भी ले गए। उन्हें अहसास था कि अब वे जन्मस्थली से अपनी जड़ों को तोड़ रहे हैं और तुलसी के रूप में परदेस में अपनी भावनात्मक जड़ को जोड़ना उन्होंने उचित समझा।
भोपाल में आजन्म भाजपा से जुड़े रहे एक दिवंगत अल्पसंख्यक मित्र की याद आ गयी। खांटी समर्पित कार्यकर्ता माने जाते थे। पत्रकार थे और पार्टी की पत्रिका के लिए काम करते थे। अपनी पार्टी की सरकार के दौरान वह एक महिला मंत्री से मिलने गए। दोनों पार्टी के संघर्ष के दिनों के साथी थे, लेकिन अब मामला मंत्री और वरिष्ठ कार्यकर्ता वाला हो गया था। इसी अंतर के चलते मिली उपेक्षा को वह सहन नहीं कर सके। उन्होंने आपा खोते हुए मंत्री से पूछ लिया ‘इस कुर्सी में आखिर ऐसा क्या है, जो पलक झपकते ही किसी को इस कदर बदल सकता है?’
जड़ तुलसी के बिरवा की हो या मामला राजनीति में मिली ताकत की जड़ें मजबूत करने का, हैं दोनों ही गौरतलब। फिर जब इसका विस्तार हर रिश्ता-नाता त्यागने के बाद भी राजनीति को पकड़े रहने वाला हो जाए तो फिर कहना ही क्या ? कभी पूछा गया था, ‘आप तो साध्वी हैं, तो क्यों नहीं कैलाश जोशी को सांसद की उम्मीदवारी दान में नहीं दे रही हैं?’ तब जवाब ‘वो मेरे वरिष्ठ, आदरणीय हैं’ जैसे वाक्यों के इर्दगिर्द सिमट कर ही रह गया था। बाकी दान वाली बात हवा में उड़ गयी/उड़ा दी गयी। बाद में दान दिया गया तो वह भी कसमों की बंदिश के साथ। यह बात और रही कि अगले ने दान की बछिया के दांत गिनकर यही तय पाया कि दांत इतने तीखे और मजबूत हैं कि उनसे कसम की मोटी रस्सी को भी काटा जा सकता है।
कई साल पहले भोपाल के संस्कृति भवन में पंडित-पुजारियों का सम्मेलन हुआ। एक पुजारी जी मंच पर जगह पाने के लिए काफी समय तक नाकाम प्रयास करते रहे। फिर आगबबूला होते हुए श्राप देने वाली मुद्रा में वहां से चले गए। आयोजकों में से एक ने मुस्कुराहट दबाते हुए मीडिया से कहा, वह आदरणीय हैं, लेकिन भूख के चलते गुस्सा हो गए। अब इतना बड़ा आयोजन है, इतने अधिक लोग हैं, भोजन बनने में देर तो लग ही जाएगी। ‘यह भूख कम हो चुके सम्मान से भी जुड़ी हो सकती है। जिसकी निरंतरता से इतना गुस्सा आ जाए कि सब छोड़कर जाने की घोषणा कर दी जाए, यह संकेत देते हुए कि भूख और उसके लिए अपेक्षित भोजन की चाह को नहीं छोड़ा जाएगा।
तो ‘कंडीशनल संन्यास’ का यह मामला है बहुत रोचक। क्योंकि इस संन्यास में किसी कुटिया का कोई स्कोप नहीं है। उसकी जगह भव्य सरकारी ठिकाना है। उलटे निंदकों के लिए ‘आंगन कुटी छवाए’ का कोई कॉलम भी नहीं है। हां, ‘जैसा आप कहें’ की शैली वाले सलाहकारों और शुभचिंतकों के लिए खुले मैदान वाले प्रबंध हैं।
समस्या यह कि काफी लंबे समय से स्थिति ‘हर दुआ मेरी किसी दीवार से टकरा गयी’ वाली हो गयी है। किसी समय के जो ‘पिता-तुल्य’ आपके बढ़ते मोटापे पर चिंता जताते थे, आज वह यह फ़िक्र ही नहीं कर रहे कि आपकी खोया हुआ महत्व फिर पाने की महत्वाकांक्षा घिस-घिसकर किस कदर दुबली हो गयी है। जो ‘छोटे भाई’ कभी आशीर्वाद लेते थे, वे आज आपकी सलाह तक नहीं ले रहे। सबने आंखें फेर ली हैं। आप अकेले सही हों और शेष संसार गलत, यह नहीं होता है।
हो सकता है कि यह उस अनुभव से जुड़ा मामला हो, जो आज भी याद है कि एक से अधिक मौके पर पूरे विश्वास के साथ सौंपी गयी शक्ति ने आपको उन्मादी वाली श्रेणी में ला दिया था। वह उन्माद, जिसकी रौ में आपने अपनी मातृ संस्था और मूल संस्था सहित उसके कई संस्थागत विश्वासों को खंडित कर दिया था। आपको दी गयी शपथ को खुद ही चपत लगाने वाले ने जिस समय आपकी तुलना ‘डूबते जहाज’ से की थी, तभी आपको यह मान लेना चाहिए था कि वह पुराना मान आपने काफी हद तक अपने ही कारण खो दिया है।
निःसंदेह आप आज भी सम्माननीय हैं। धर्म तथा राष्ट्रवाद को लेकर आपने अपनी निष्ठा का सम्मान कायम रखा है। इन विषयों में आपकी विश्वसनीयता असंदिग्ध है। बहुत संभव है कि सर्वस्व त्यागने के प्रतीक नए चोले में आपने राजनीति को जगह देने वाली एक जेब सचमुच समाज सेवा के लिए बनवा रखी हो। हम आम लोग हैं। आपकी प्रखर प्रज्ञा के आगे हमारी बुद्धि काफी हद तक जड़ता से अभिशप्त हो सकती है। शायद इसलिए हम आपके राजनीतिमय संन्यास को उसके मूल रूप में न समझ सकें। फिर भी जितना समझ आया, वह इस प्रत्याशा में कह दिया कि शायद आप ही हमें इस जड़ की दिशा तक जाने का सन्मार्ग दिखा सकें। नमस्ते।