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इस विवाद का न राजनीतिकरण हो और न मीडियाकरण

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इसे आप बेशक बहुत छोटे स्तर के गृहयुद्धनुमा घटनाक्रम की संज्ञा दे सकते हैं। इस विश्लेषण का इस्तेमाल मामले की गंभीरता को कम करने के लिए नहीं किया जा रहा है। ये प्रयास है पूरे एपिसोड (Episode) को बहुत अधिक गंभीर प्रकृति वाला हो जाने से बचाने का। इंदौर में कलेक्टर मनीष सिंह (Collector Manish Singh) और डॉक्टरों (doctors) के बीच तलवारें खिंच गयी हैं। मामला कोरोना (Corona) से जुड़ा हुआ है। जैसा कि हरेक विवाद के कायम रहने तक होता है, वैसे ही यहां भी दोनों पक्ष सामने वाले को कसूरवार और स्वयं को बेकसूर बता रहे हैं।

आरोप क्या है और प्रत्यारोप क्या, इसे दोहराने का कोई अर्थ नहीं है। बात केवल भयानक विपरीत हालत (Terrible opposite condition) के बीच झुंझलाकर आपा खो देने वाली है। कोरोना के बिगड़ते हालात पर किसी का बस नहीं चल पा रहा है। कलेक्टर होने के नाते इंदौर जिले के हालात सुधारने की जिम्मेदारी मनीष सिंह की है। इधर डाक्टर होने के नाते दूसरे पक्ष पर यह दायित्व आ गया है कि वह अपने ज्ञान और अनुभव के दम पर प्रशासन (Administration) के साथ कदमताल कर स्थिति को नियंत्रित करे। मगर स्थिति वो है, जिस पर सारी की सारी दुनिया काबू पाने में असफल हो गयी है। तो इस नाकामी का ही असर है कि कोरोना का गुस्सा अब एक-दूसरे पर उतारा जाने लगा है। मनीष सिंह ने अपने काम के दम पर अपनी छवि बहुत कड़क किस्म के अफसर की बनाई हैं।





इंदौर में कलेक्टर होने के पहले वे यहीं इंदौर विकास प्राधिकरण (Indore Development Authority) और नगर निगम (municipal Corporation) के भी मुखिया रहे हैं। उनके कार्यकाल में इंदौर ने अपना रंगरूप बदलते हुए देखा है। भोपाल नगर निगम के आयुक्त रहते हुए उन्होंने व्यवस्था के दागदार चेहरों को कहीं मुंह भी दिखाने ले लायक नहीं छोड़ा था। तो काम करना जिसकी आदत हो उसे गुस्सा और सख्ती दिखाकर ठीक काम करवाना अभ्यास में आ ही जाता है। इधर जिले की महिला सीएमएचओ (Female CMHO) सहित शेष मेडिकल अमला (Medical staff) भी कोरोना के भयावह हालात (Appalling conditions) के बीच अपने कर्तव्य को अंजाम दे ही रहा है। दोनों छोर से प्रयास स्थिति को सुधारने के ही हैं। समस्या केवल यह कि किसी भी तरफ मामला अपेक्षित परिणाम (Expected Result) वाला नहीं हो पा रहा है। बस यही टकराव की बड़ी वजह बन गया है।





इसे यूं भी समझा जा सकता हैं। फुटबॉल के मैच (Football matches) में कोई टीम बुरी तरह हार जाए। तब टीम का मैदान से अलग वाला स्टाफ अक्सर अपनी ही टीम की पराजय के लिए आलोचना करने लगता है। कहता है कि यदि मैदान पर अमुक गलतियां न की गयी होतीं या फलाने उपाय किये गए होते तो हार से बचा जा सकता था। इधर खिलाड़ी भी हार को लेकर अपने-अपने तर्क देते हैं। यहीं से टकराव शुरू हो जाता है। दोनों पक्षों के एक-दूसरे के लिए आरोप वाला रुख भले ही हो, किन्तु इस झगड़े के मूल में टीम की पराजय का दुख ही छिपा होता है। तो ऐसा ही इंदौर में भी हो रहा है। निश्चित ही सिंह को अपने प्रशासनिक तौर-तरीकों से लग रहा होगा कि डॉक्टर पूरी क्षमता से काम करना नहीं चाह रहे हैं। इधर कलेक्टर पर आपा खोये पक्ष को यह शिकायत होगी कि एक नॉन-मेडिको (Non medico) केवल इसलिए उनकी बेइज्जती कर रहा है, क्योंकि उसे ऐसे हालात में डॉक्टरों के पेशे की जटिलताओं (Complications) और चुनौतियों (challenges) का कोई अहसास नहीं है। मनीष सिंह का विवाद आम डाक्टर्स (Common doctors) से होगा नहीं, उनका विवाद निश्चित तौर उन डाक्टरों से ही होगा जो मेडिकल प्रशासन का काम देखते होंगे। सीएमएचओ इसी श्रेणी के डाक्टर हैं।

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यह विवाद जितना जल्दी हो सके, खत्म होना चाहिए। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान (Chief Minister Shivraj Singh Chauhan) को इसमें हस्तक्षेप करना होगा। जो राजनेता (politician) इस फसाद में कूद पड़े हैं उन्हें भी चाहिए कि प्रशासन और डाक्टर, दोनों में से किसी के भी लिए वे पक्षपाती बाते न कहें। यह सभी समझें कि यह शासन के सभी अंगों के मिल-जुलकर काम करने का आपदा काल है। इंदौर का यह विवाद उन दो पक्षों के बीच की सहज मानवीय प्रवृत्ति का परिणाम है, जो पक्ष एक ही मकसद के लिए अपने-अपने स्तर पर पूरे प्रयास कर रहे हैं। और ये प्रयास बगैर आपसे सामंजस्य के सफल नहीं हो पाएंगे। इस विवाद का न राजनीतिकरण हो और न ही मीडियाकरण (Mediaization) और सोशल मीडिया (social media) के एंटी-सोशल (Anti social) तौर-तरीकों की तो इस पर नजर भी नहीं पड़ना चाहिए। क्योंकि इस नाजुक मामले में एक भी पक्ष हताश हुआ तो उसका सीधा असर कोरोना के खिलाफ जूझ रहे सभी लोगों के मनोबल पर पडेगा।

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