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भाजपा: ‘द-मोह रिटर्न्स’

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वो दिन हवा हुए, जब राजनीति पर आधारित फिल्में धड़ल्ले से बनायी जाती थीं। अब वह दिन हैं, जिनमें राजनीति पूरे वेग से फिल्मों की तरह बनती चली जा रही है। तो आज किस्सा ‘द-मोह रिटर्न्स’ का। जयंत अपने समय के मशहूर चरित्र अभिनेता थे। उनके चिरंजीव अमजद खान ने भी फिल्मी दुनिया में खूब नाम कमाया। जयंत जब तक इंडस्ट्री में प्रभावशाली रहे, तब तक वहाँ नेपोटिज्म के वायरस ने प्रवेश नहीं किया था। जिस ‘शोले’ ने अमजद खान को रातों-रात शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया, उस शोले के निर्माण के समय जयंत आउटडेटेड हो चुके थे, लिहाजा ये कल्पना बचकानी होगी कि गब्बर सिंह का रोल अमजद को दिलाने के पीछे जयंत के किसी भी आग्रह/कोशिश का हाथ रहा होगा। ‘शोले’ वाली सफलता फिर दोहराई न जा सकी। उसकी फूहड़ नकल ‘आंधी-तूफान’ दर्शक की नासंदगी की प्रचंड आंधी में उड़ गयी। फिर प्रकट हुए रामगोपाल वर्मा। फिल्मों की सफलता वाली जादूगरी का गुमान उनके सिर चढ़कर बोल रहा था। सो उन्होंने शोले का सीक्वल बना दिया। वर्मा की यह रचना विश्व फिल्म जगत की सबसे अलोकप्रिय और फ्लॉप फिल्मों की श्रेणी में पूरी ताकत से अपना स्थान सुरक्षित रखे हुई है।

तो कुल जमा बात यह कि जयंत और अमजद जैसे खुद की दम पर आगे बढ़ने वाले पिता-पुत्र अतीत की बात बन चुके हैं। ‘शोले’ के दोहराव की कामयाबी आकाश कुसम हो गयी है। लेकिन बुंदेलखंड की शुष्क और लड़ाकू वादियों में रियल लाइफ को भी मात दे देने वाली रील लाइफ जैसी स्क्रिप्ट लिखी जा रही है। इसके मुख्य नायक पापा राजनीतिक अतिसार के शिकार हो गए दिखते हैं। मामला खालिस पुत्र मोह वाला है। धृतराष्ट्र वाली शैली का उनका आग्रह अब दुराग्रह की हदें भी पार कर रहा है। ये पिताश्री उस हस्तिनापुर की लीज अपने बेटे के नाम लिखवाने की जिद पर अड़े हुए हैं, जिस हस्तिनापुर की प्रजा सन 2018 में ही उन्हें यहां से बेदखल कर चुकी है। जब पिता को इस कुरुक्षेत्र में उनके बेटे की उम्र वाले विरोधी ने धूल चटा दी, कदाचित तब पिता का ज्ञानोदय हुआ। वह समझ गए कि उम्र के लिहाज से अब उनका ‘निराश्रित पेंशभोगी’ वाला समय आ गया है।

लिहाजा वे आज के दुर्योधन के लिए फील्डिंग करने में जुट गए। लेकिन उनका यह मंसूबा सफल होता नहीं दिख रहा है। क्योंकि जिनके हाथ इस पुत्र मोह की तकदीर लिखी जानी है, वे किसी और के लिए ही अपनी कृपाओं के गवाक्ष खोलने के पुख्ता संकेत दे चुके हैं। तो अब नाराज पिता दलगत मयार्दाओं के चीरहरण पर आमादा हो गए हैं। जिस चोले को धारण कर उन्होंने सियासी सुख का छक्का लगाया, उसी चोले में अब उन्हें दाग दिखने लगे हैं। इस अतिसार का वेग इतना कि इसकी कुलबुलाहट और मरोड़ के बीच हस्तिनापुर के प्रति प्रतिबद्धता के महान तत्व का भी पतन होता जा रहा है। पिताश्री धमकी पर आमादा हैं कि बेटे को चंद्र खिलौना नहीं दिया तो कहर बरपा देंगे।

इस बाप के दिल में इस समय गुस्से के जो शोले फूट रहे हैं, वे कुछ समय पहले ही एक और पिता के दिल में भी फूट चुके हैं । ये दोनों पिताश्री अब तक जिस राजनीतिक जाजम पर बैठकर राजनीतिक सुख की मलाई सूतते रहे, उसी जाजम पर अब वे वमन कर उसे किसी के भी इस्तेमाल न लायक छोड़ने का प्रयास कर रहे हैं । लेकिन इन दोनों के इस आग्रह को पूरी तरह गलत भी नहीं कहा जा सकता। जिस दल का यह मामला है, यकीनन वह शक्ति के वंशानुगत अनुसरण में यकीन नहीं करता, लेकिन इसी दल के आकाश पर ये यकीन तोड़ा भी गया है। सिर्फ किसी खास पिता का पुत्र होने के चलते किसी को सियासत के कैलाश पर्वत पर आसीन होने का मौका इसी दल ने प्रदान किया है। तो फिर आदर्शों के बाँध में हुआ एक रिसाव अब शेष आकांक्षाओं के बहाव को तो बढ़ावा देगा ही। मामला पुत्र मोह के पूर्व सफल प्रयोग वाला है। उसकी सीक्वल ‘द-मोह रिटर्न्स’ कुछ पूर्ववर्ती गलतियों का ही नतीजा है। औलाद का मोह कोई नयी बात नहीं है। इस मामले में नयापन केवल यह कि यह मोह उन निर्मोहियों की करतूतों की देन है, जिन्होंने किसी चाहते के राजनीतिक वंशवाद को बनाने के लिए अपनी पार्टी की मयार्दाओं को खुद ही तोड़ा था।

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