प्रकाश भटनागर
हरियाणा और जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव के मंगलवार को आए नतीजों ने नरेन्द्र मोदी और भाजपा को बहुत जल्दी होने वाले महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों के लिए एक नई ऊर्जा दे दी। नतीजे भाजपा को संबल देने वाले और कांग्रेस और राहुल गांधी के अतिउत्साह पर पानी फेरने वाले साबित हुए। यह तय है कि हरियाणा में अपनी इस अप्रत्याशित जीत पर भाजपा फूल कर कुप्पा नहीं होगी। कांग्रेस का जहां तक सवाल है, हार का ठीकरा भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के माथे फूट जाएगा। अतिउत्साह में जलेबी की फेक्ट्री लगा कर हरियाणा को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रोजगार के बाजार में खड़ा करने वाले राहुल इस हार के रत्ती भर भी दोषी नहीं होंगे।

हरियाणा में मुकाबला बहुकोणीय था। जाहिर है कि आम आदमी पार्टी सहित बाकी गठबंधन और दलों ने वोट कटौआ के रूप में भाजपा की मदद ही की होगी। खास बात यह भी कि इस राज्य में कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशियों को ‘एकतरफा वोटिंग’ का भरपूर फायदा मिला है। यह भाजपा के लिए भविष्य में एक गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए कि मुस्लिम मतदाता समझ गया है कि छोटे दलों में अपनी ताकत विभाजित करने की बजाय कांग्रेस जैसे बड़े दल को एकमुश्त समर्थन देना ही उसके लिए बेहतर है। तो जो भाजपा मुस्लिम मतों के क्षेत्रीय दलों में विभाजित होने की बात से अब तक सहज थी, उसके लिए मुसलमानों का कांग्रेस की तरफ लौटना चिंता का विषय होना चाहिए।
मई के लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश के नतीजे भी मुस्लिम मतों के कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकरण के पुख्ता संकेत ही दे रहे थे। ऐसे में जब झारखंड में जेएमएम और कांग्रेस का तालमेल है और महाराष्ट्र में भी उद्धव ठाकरे गुट सहित एनसीपी के कांग्रेस के साथ ही मुकाबले में आने की उम्मीद है, तो फिर भाजपा को समझना होगा कि हरियाणा की जीत के उत्साह से अलग होकर इन नतीजों के ईमानदार विश्लेषण के जरिये आगे की रणनीति तय करे। महाराष्ट्र में लोकसभा चुनावों में मुसलमानों ने अपनी घोर विरोधी रही शिवसेना के पक्ष में खुलकर वोटिंग की थी।
भाजपा को देखना होगा कि 2014 और 2019 की आसमान छूती सफलताओं के उन्माद में वह कुछ महीनों पहले जमीनी सच्चाइयों से आंख मूंदकर चल रही थी। चार सौ पार का नारा उसके अतिउत्साह का ही नतीजा था। लगता तो है कि नरेंद्र मोदी ने इससे सबक ले लिया है। तीसरी बार के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके पहले दो कार्यकाल से इस बार उनका व्यवहार अब थोड़ा अलग है। आत्ममुग्धता वाली राग जयजयवंती में मोदी जिस ठसक से भरे आरोह पर इतराते दिखते थे, उससे अलग अब वह अवरोह वाली स्थिति में है। हरियाणा को उन्होंने अपने मन में बसाने में थोड़ी सावधानी बरती। याद करिए, मध्यप्रदेश के मन में मोदी को। मध्यप्रदेश में भाजपा अपनी पांचवीं बार की सरकार में लाड़ली बहनों के योगदान से ऊपर अब तक मोदी के जादू को ही मानती रही है। हकीकत में भाजपा की बम्पर जीत में सवा करोड़ से ज्यादा लाड़ली बहनों और उनसे जुड़े मतदाताओं का प्रत्यक्ष योगदान था।

भाजपा और साथ में संघ को भी समझना होगा कि लोकतंत्र में लोकप्रिय चेहरे ही पार्टी कार्यकर्ताओं और लोगों के दिलों में जगह बना सकते हंै। संघ के खांटी प्रचारक या स्वयंसेवक चाहे वे हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर हो या फिर झारखंड में रघुवर दास, संघ का एजेंडा तो पूरा कर सकते हंै लेकिन हर कोई नरेन्द्र मोदी की तरह लोकप्रियता हासिल नहीं कर सकता है। मोदी अपवाद हंै। बिना किसी लाग लपेट के कहा जा सकता है कि खट्टर कभी भी जननेता नहीं रहे। उनकी योग्यता केवल यह कि वह खांटी रूप से संघ की विचारधारा के अनुयायी हैं। मात्र इस आधार पर उन्हें जनाधार वाला नेता मानने की भूल कर संघ ने जो प्रयोग किया, उसका नतीजा यह हुआ कि अंतत: खट्टर को मुख्यमंत्री पद से हटाना पड़ गया। बावजूद इसके जब अन्य राज्यों में भी जनता या पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच पसंद किए जाने वाले चेहरों की बजाय संघ की पसंद को ही मुख्यमंत्री पद वाला कद प्रदान किया जा रहा है तो फिर तय है कि संघ को भी हरियाणा के हालात से अब कोई सबक सीखना चाहिए। हरियाणा में नायाब बदलाव के नतीजों से संघ और भाजपा को यह सीख जरूर मिली होगी।
भाजपा ने कांग्रेस को समाप्त करने की धुन में खुद अपने भीतर वह घुन भी पाल लिए हैं, जो भविष्य की उसकी संभावनाओं को चट कर जाने की भयावह क्षमता रखते हैं। बीते विधानसभा चुनावों को ही देखिए। ‘मोदी के मन में मध्यप्रदेश’ की तर्ज पर यही नारे राजस्थान और छत्तीसगढ़ सहित अन्य जगहों पर भी गूंजे। इनसे यह संदेश गया कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व उसी तरह राज्यों में अपने किसी नेता को पनपने नहीं दे रहा, जिस तरह इंदिरा जी से लेकर राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कांग्रेस ने किया है। इसके कारण कांग्रेस की राज्यों में भी जो दुर्गत हुई, वह किसी से छिपी नहीं है। भाजपा को ध्यान रखना होगा कि स्थानीय नेतृत्व को ताकत दिए बिना उसका केन्द्रीय नेतृत्व भी भविष्य में राजनीतिक कमजोरी का शिकार हो सकता है।
फिर भाजपा तो अहंकार में आकर ब्रिटिश हुक्मरानों जैसा आचरण करने की भी प्रलयंकारी भूल को आगे बढ़ाने पर आमादा है। भारत पर बरतानिया हुकूमत के कब्जे के समय यह कहा जाता था कि ब्रिटिश शासन का सूरज कभी भी अस्त नहीं होता है। भाजपा ने अपने सदस्यता अभियान के नाम पर खुद को ऐसे ही दंभ से भरने का काम ही किया है। वह भीड़ के भरोसे खुद का विस्तार कर रही है, जबकि होना यह चाहिए कि मुंडियां गिनने/गिनाने की बजाय पार्टी यह देखे कि उसके समर्पित कार्यकर्ताओं की कितनी संख्या है और वे इस अपार जनसमूह में कहीं अपना दम घुटता हुआ महसूस तो नहीं कर रहे हैं? भाजपा उन्हीं की दम पर आगे बढ़ी है, जिन्होंने पार्टी के लिए दरी बिछाने से लेकर थैले में चना-चबेना भरकर संगठन को नया जीवन देने का काम किया। आज कैमरे के सामने जगमगाते जिन चेहरों को ‘अपनी ताकत’ मानकर बीजेपी आत्मरति में डूबी हुई है, वे चेहरे पार्टी के लिए आत्मघाती साबित होंगे, क्योंकि उन्हें तवज्जो देने के फेर में पार्टी के समर्पित कैडर को ‘ढेर’ कर दिया जा रहा है।
अब कुछ कांग्रेस पर। जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस के सहयोग से जीत पर भी कांग्रेस के पास इतराने को कुछ नहीं है। जम्मू में तो उसका खाता भी नहीं खुला। कश्मीर में उसे केवल छह सीटें मिली हंै। लेकिन हरियाणा के परिणाम से इस पार्टी के लिए भी कई विचार वाले बिंदु सामने खड़े हैं। हरियाणा में शुरू से ही साफ था कि भूपेंद्र सिंह हुड्डा, कुमारी शैलजा और रणदीप सिंह सुरजेवाला आपस में उलझकर ही पार्टी की संभावनाओं को पलीता लगाने पर आमादा हैं। कहने को तो मीडिया की सुर्खियों में आया कि इसे लेकर सोनिया से लेकर राहुल तक ने कड़ा रुख दिखाया है, लेकिन अब नतीजों की सुर्खियां बता रही हैं कि राज्य स्तर के नेता राष्ट्रीय स्तर के अपने नेताओं पर किस कदर हावी हो गए थे। वो तो गनीमत है कि हार का ठीकरा फोड़ने के लिए हुड्डा का सिर मौजूद है, वरना हरियाणा की दुर्गति यह बताने के लिए पर्याप्त है कि पंजे की शक्ति का असली जोर जिनके हाथ में है, वे खुद किस कदर कमजोर हो चुके हैं। वो बेशक जलेबी का कारखाना लगाने वाला कारनामा किसी करिश्मे की तरह स्वीकार लें, लेकिन उन्हें यह देखना होगा कि ऐसे ही बचकाने प्रयोगों की चाशनी किस तरह हरियाणा में उनके लिए कसैली बन गई है। निश्चित ही लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की 99 सीटों पर जीत का श्रेय राहुल गांधी की आक्रामकता को जाता है, लेकिन हरियाणा ने जता दिया है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। कांग्रेस को सख्त आत्ममंथन की जरूरत है लेकिन उसने लोकसभा में मिले 99 के फेर को ही अपनी सफलता मान लिया है। इन नतीजों से भाजपा और कांग्रेस कोई सबक लें या न लें, यह उनका अपना निजी विषय है। जल्दी ही महाराष्ट्र और झारखंड की चुनौतियां इन दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों के सामने मुंह बाएं खड़ी है, जो इनके लिए आगे के रास्ते भी तय करेंगे।