कायदे से तो आजादी के पचहत्तर साल (seventy five years of independence) देश के लिए गर्व का क्षण है। लेकिन क्या वाकई? आज फिर दो खबरों के साम्य ने देश को एक जैसी पीड़ा से दी है। बात विवशता की नहीं है। बात मानसिक उद्वेलना की है। बात पुरानी हो गई। उस दिन अखबार के दफ्तर का मेरा एक सहयोगी सुझाव दे रहा था। कह रहा था कि पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम (Dr. APJ Abdul Kalam) और आतंकवादी याकूब मेनन (terrorist yakub menon) के जनाजे की खबर एक साथ लगाई जाए। उसने शीर्षक भी सुझाया था, ‘फक्र और शर्म के साथ सुपुर्दे-खाक।’ जाहिर है यह सुझाव मानने लायक नहीं था। ठीक उसी तरह, जिस तरह यह मान पाना मुश्किल है कि देश के लिए एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम के दौर में फिर दो घटनाओं को एक ही तराजू पर तौलना पड़ रहा है।
शेयर बाजार के बिग बुल राकेश झुनझुनवाला (Rakesh Jhunjhunwala) की स्वाभाविक मृत्यु (death) और जहर-भरी मानसिकता के छुट्टे सांडों के हाथ असमय मार डाले गए नौ साल के दलित बच्चे की हत्या (9 year old dalit child murdered) देश को एक साथ व्यथित करती हैं। आजादी के अमृत महोत्सव पर यदि झुनझुनवाला का अवसान दुखी करता है तो राजस्थान के जालौर (Jalore of Rajasthan) में मार डाले गए एक दलित बच्चे का अंजाम दहला देने वाला है। झुनझुनवाला के लिए धर्म और पुराण की यह बात फिर भी कही जा सकती है कि जो आया है, वो एक दिन जाएगा ही। लेकिन जालौर में प्यास की कीमत अपने प्राण से चुकाने वाले बच्चे को याद कर यह विश्वास उठने लगा है कि आजाद भारत में अस्पृश्यता-विरोधी कानून 1955 (Anti-Untouchability Act 1955) से लागू हैं। हालांकि छूआछूत का विरोध एक सदी से भी अधिक समय पहले 1849 से शुरू हो गया था। झुनझुनवाला यदि देश की अर्थ वाली प्रगति के प्रतीक थे, तो जालौर वाला वह नौ साल का मासूम हर किस्म की प्रगति पर भारी अनर्थकारी अवनति को दिखाकर डरा रहा है। वह बता रहा है कि आजादी के 75 वर्ष का अमृत भी उस जहर को समाप्त नहीं कर सका है, जो जहर एक सवर्ण टीचर (upper caste teacher) के पानी को छूने की हिमाकत करने वाले दलित बच्चे की जिंदगी में हमेशा के लिए घोल दिया जाता है। यह विचित्र तथ्य है कि जहां झुनझुनवाला के परिवार का राजस्थान से गहरा नाता रहा, वहीं इसी राज्य में एक बच्चे की आत्मा का यूं शरीर से नाता खत्म कर दिया गया ।
जब हम झुनझुनवाला जैसे किसी विद्वान को आने वाली पीढ़ी हेतु प्रेरणा बताते हैं, तब सुनने और पढ़ने में यह बहुत अच्छा लगता है। क्या यह संभव है कि राजस्थान के उस अभागे बच्चे ने भी किसी झुनझुनवाला को अपने भविष्य का आदर्श मान लिया हो? यह सोच लिया हो कि प्रगति के साथ राष्ट्र निर्माण में झुनझुनवाला की भांति ही उसका भी योगदान होना चाहिए? लेकिन उस मासूम ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि राजस्थान की मरुभूमि से परे झुनझुनवाला वाले महानगर तक उठती उसकी दृष्टि के बीच गंदली सोच का वह तपता हुआ रेगिस्तान पसरा हुआ है, जो किसी को पानी पीने के लिए भी इस आधार पर वर्गीकृत कर देता है कि उसकी जात को आज तक ‘छोटा’ ही माना जा रहा है?
झुनझुनवाला ने परिवार की व्यावसायिक परंपरा को अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से आगे बढ़ाया। कानपुर में चांदी के अपने पारिवारिक व्यवसाय को शेयर मार्केट (Share Market) की तरफ मोड़कर अपार सफलता अर्जित की। अर्थशास्त्र में लाभ के तत्वों में से जोखिम को भी एक गिना गया है। झुनझुनवाला यही जोखिम लेकर अपार लाभ के संवाहक बने। अर्थ जगत को लेकर उनके विचार किसी अकाट्य साहित्य में बदल गए। महज पांच हजार रुपये से शेयर बाजार का काम शुरू करने वाले झुनझुनवाला अपने पीछे 46 हजार करोड़ रुपये से अधिक का साम्राज्य छोड़ गए हैं। लेकिन राकेश के देहांत के एक दिन पहले ही दुनिया छोड़ने को विवश वह बच्चा किस रूप में याद किया जाएगा? ये आजाद हिन्दुस्तान की इकलौती घटना तो है नहीं। लेकिन आजादी के अमृतकाल में सामने आई इस खबर पर क्या यह सोचकर शोक मनाया जाए कि उसने अपने गले को तर करने के लिए सवर्ण शिक्षक का मटका छूने का जोखिम लेने की प्रलयंकारी भूल की? क्या उसका गुनाह यह था कि देश में समानता और कानून के राज वाले नारों से प्रभावित होकर यह बालक मान बैठा कि आजाद भारत (independent India) में पानी पर तो सबका समान अधिकार है? महज पानी की चंद बूंदों के लिए एक वर्जित मटके की तरफ बढ़ने का काम शुरू करने वाला वह बच्चा आज अपने पीछे किसी साम्राज्य की बजाय वह खौफनाक याददाश्त छोड़ गया है, जो एक पुराने गीत की याद दिलाती है। उसके बोल थे, ‘भारत तो है आजाद, हम आजाद कब कहलाएंगे?’
हम लोग जो शहरों की पृष्ठभूमि के हैं शायद मानते हैं कि जात-पात, छूआ छूत अब सब खत्म हो गया है। और एससी और एसटी के लिए जारी आरक्षण को अब खत्म कर दिया जाना चाहिए। शहरों का जो युवा वर्ग ऐसा सोचता है उसे इस बालक की खौफनाक मौत को याद करके विचार करना चाहिए कि भारत सिर्फ शहरों में ही नहीं बसता है। या इस पर विचार करना चाहिए कि एससी और एसटी में शामिल जातियों को आज भी भारत में कानूनी सरंक्षण की जरूरत यथावत कायम है।
यह कहना तो मुश्किल है कि तकलीफ सहन ही नहीं हो पा रही है। देश को कई बातों को सहन करने की कुछ आदत-सी हो चली है। कश्मीर में हजारों निर्दोषों के नरसंहार से लेकर दिल्ली की सड़कों पर ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे घटनाक्रमों ने ऐसे विषपान को सामान्य बना दिया है। फिर भी सवाल उठ रहे हैं । वह ठीक उसी तरह हवाओं में तैर रहे हैं, जिस तरह गए एक साल से फिजाओं में आजादी के अमृत वर्ष का नारा गूँज रहा है। यह सवाल कुछ समय के लिए झुनझुनवाला जी की पार्थिव देह तक ले जाते हैं और बाकी समय के लिए उस मासूम के शव के पास ही बांधे रखते हैं। एक दलित होते हुए भी जिसने प्यासा होने की प्रलयंकारी भूल कर ली। सवाल यहां जकड़कर यह पूछता है,’ कोई जवाब है इस लाश का या फिर तुम खुद भी मेरी तरह एक मरते सवाल में ढलते जा रहे हो?