डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी।
यह आमिर खान की ही 2007 में आई फिल्म तारे जमीन पर का सीक्वल नहीं है। इसमें एक नई कहानी है जो दिव्यांग, न्यूरो-डाइवर्जेंट या डिफरेंटली एबल्ड व्यक्तियों के इर्द-गिर्द घूमती है। फिल्म की टैग लाइन है ‘सबका अपना-अपना नार्मल है। इस तरह से यह फिल्म तारे जमीन पर का स्पिरिचुअल सीक्वल कही आ सकती है।
कहानी बताती है कोई चीज एक के लिए ख़ास है तो दूसरे के लिए नार्मल। किसी के लिए मोटा होना नार्मल है, किसी के लिए स्लिम होना नार्मल। किसी की नाक लम्बी होना नार्मल है तो किसी के लिए चपटी नाक नार्मल! इसी तरह हरेक की बौद्धिक क्षमता अलग अलग है, और वह भी अपने आप में सम्पूर्ण है!
किसी की बुद्धि एक उम्र पर आकर ठहर जाती है, जिन्हें पहले स्पेशल चाइल्ड कहते थे, अब उन्हें डिफरेंटली एबल्ड कहते हैं। यह विश्वास बढ़ा है कि प्रभु या प्रकृति ने हमें बनाया है और हम सभी ख़ास हैं। फिल्म कभी हंसाती है, कभी आंखें भिगो देती है, कभी संवेदनाओं को गहराई से छूकर निकल जाती है।
इस फिल्म के कई डायलॉग्स हल्के-फुल्के और हास्यपूर्ण हैं, जो बॉस्केटबाल के खिलाड़ियों और उनके कोच बने आमिर खान के किरदार की केमिस्ट्री को दर्शाते हैं और फिल्म को बोझिल होने से बचते हैं। कहीं कहीं बनावटीपन के बावजूद आमिर खान के अभिनय में सच्चाई, संवेदना और गहराई देखने लगती है। खास बात यही है कि यह आम हिन्दी फिल्म नहीं है।
स्पैनिश और अंग्रेजी में बनी चैम्पियंस फिल्म का एडॉप्शन है, जिसमें पात्र और जगह भारत की है। भारतीय खेलों और खिलाड़ियों के हाल, स्पेशली एबल्ड लोगों के हाल सभी को पता हैं, लेकिन यह फिल्म कहीं कहीं मरहम का काम कराती है।
फिल्म की सबसे बड़ी ताकत इसकी कास्टिंग है, जिसमें डाउन सिंड्रोम से प्रभावित 10 वास्तविक कलाकारों को शामिल किया गया है। उनकी स्वाभाविकता और अभिनय ने दर्शकों का दिल जीता है, जो असल जिंदगी में बौद्धिक अक्षमताओं के साथ जी रहे हैं। उन्हें पूरे देश से चुना गया। कहा जा रहा है कि ये बच्चे/वयस्क आमिर खान जैसे सुपरस्टार पर भी भारी पड़ते नजर आते हैं, हालांकि ऐसा है नहीं। आमिर खान में दोहराव है।
लगता है कि लालसिंह चड्ढा यहाँ गुलशन अरोड़ा बनकर आ गया है। जेनेलिया देशमुख का भी अहम रोल है, पर आमिर खान अपनी फिल्म में दूसरे के लिए मौका नहीं छोड़ते। फिल्म का संगीत रोचक है। अरिजीत की आवाज़ मधुर है। दूसरे कलाकारों में बृजेन्द्र काला, डॉली अहलूवालिया, सरदार जी बने गुरपाल सिंह, जज की भूमिका में तराना राजा स्वाभाविक लगीं है।
फिल्म में कोई खलनायक नहीं है, कोई मारधाड़, चुम्मा चाटी, कार या बाइक रेस, डबल मीनिंग के संवाद, आइटम सांग नहीं है। फिल्म का हर कैरेक्टर ही आइटम है। विशेष बच्चों के नॅशनल बॉस्केटबाल गेम तक का जोश और उत्साह है, जो अंत में खेल के अकल्पनीय नतीजे तक ले जाता है। अंत में सवाल यह है कि क्या जीत ही सब कुछ है? क्या ख़ुशी सब कुछ नहीं? फिल्म का सन्देश शाश्वत और वैश्विक है।