ग्वालियर की एक घटना गंभीर तरीके से ध्यान खींचती है। वहां ग्यारह साल की किशोरी ने अपने साथ ज्यादती का आरोप लगाया। बाकी कानूनी कार्यवाही के साथ ही यह भी हुआ कि आरोपी के घर को तोड़ दिया गया। निश्चित ही अपराधियों के मन में भय पैदा करने के लिहाज से यह स्वागत-योग्य कदम था, लेकिन अब स्थिति बदल गयी है। खुद पीड़िता के परिजनों ने पॉक्सो अदालत में अपने आरोप और बयान, दोनों बदल दिए हैं। अब न्यायालय क्या फैसला देगा, यह बाद में पता चलेगा, लेकिन इससे ‘ऑन द स्पॉट जस्टिस’ वाली ‘बुल्डोजरीय’ पद्धति पर कई सवालिया निशान लग गए हैं।
ऐसा तब हुआ है, जब हाल ही में अदालत ने बुलडोजर वाली इस समय की प्रचलित व्यवस्था पर भी प्रश्न खड़े किए हैं। समस्या यह कि इसमें आप किसी को गलत कहने की स्थिति में भी नहीं हैं। उत्तरप्रदेश से लेकर मध्यप्रदेश तक में अपराधियों के निर्माण ध्वस्त करने की पद्धति के चलते गलत करने वालों के भीतर कानून का खौफ बढ़ा है। आम लोगों के मन में सरकार एवं कानून-व्यवस्था के लिए विश्वास मजबूत हुआ है। उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ से लेकर मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने ऐसा कर लोगों के बीच और विश्वसनीयता हासिल की है।
यह भी शाश्वत सत्य है कि इन दो राज्यों की ही तरह जिस-जिस जगह अपराधियों के विरुद्ध ऐसी सख्ती की गयी है, वहां पुलिस के रोजनामचे कुछ फुर्सत में सांस लेने लगते हैं और अदालत में मुक़दमे वाली फाइलों की वृद्धि में कमी आती है। फिर भी ग्वालियर वाली घटना बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है। क्योंकि यह उस देश का मामला है, जहां की न्यायपालिका का एक निश्चय उल्लेखनीय है। वह यह कि भले ही सौ अपराधी छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं मिलना चाहिए। ग्वालियर में इसका उलटा होता दिख रहा है।
नाबालिग से ज्यादती का सच तो पता नहीं, लेकिन यह जरूर नंगे सत्य के रूप में दिख रहा है कि एक निर्दोष को उसका मकान टूटने के रूप में सजा मिल गयी है। वह भी नाहक। हालांकि ये बात निश्चय के साथ नहीं कही जा रही। क्योंकि असंख्य मामलों में यह भी हुआ है कि पीड़ित पक्ष ने किसी लालच या दबाव के चलते बयान बदल दिया हो। फिलहाल यह सोचकर आगे बढ़ना होगा कि यदि ग्वालियर का आरोपी वाकई दोषी नहीं है तो फिर क्या? किस तरह इस एक घटना के बाद यह तय किया जा सकेगा कि भविष्य में ऐसे किसी मामले में अदालती कार्यवाही से इतर वाले क़दमों का स्वरूप कैसा होगा?
आप जनमत संग्रह करवा लीजिए। बहुमत इसी राय को मिलेगा कि बुलडोजर जैसे कदम जारी रखना बहुत जरूरी है। किन्तु अब विचार-संग्रह इस बात का भी हो कि कैसे इस कदम को ग्वालियर की तरह जल्दबाजी के चलते हुई लड़खड़ाहट से बचाया जा सके? प्रशासन ऐसे जीतने भी मामलों में कार्रवाई करता है, उसे अवैध निर्माण ही बताया जाता है। नब्बे प्रतिशत मामलों में लोग स्वीकृत नक्शों के विपरीत निर्माण करने को मजबूर होते है, क्योंकि नियम कायदे ही बेतुके हैं। इसलिये वैध या अवैध निर्माण को तत्काल तोड़ना एक तरह से सम्पति का ही नुकसान है। क्या यह संभव होगा कि न्याय व्यवस्था में ही बदलाव हो? यह नियम हो कि यदि किसी संगीन आरोपी का निर्माण वैध या अवैध जो भी है, तो फिर उसके दोषी या निर्दोष सिद्ध होने तक उस निर्माण को सरकार के अधीन कर दिया जाए। राजसात करने वाले नियम के तहत।
मामला पेंचदार है, लेकिन यदि शासन को कानून के खौफ एवं उसके विश्वास, दोनों के बीच संतुलन बनाए रखना है तो फिर इस तरह का कोई न कोई मार्ग निकालना अनिवार्य हो जाता है। साथ ही यह सुनिश्चित करना भी जरूरी हो गया है कि इस तरह की झूठी शिकायत करने वालों के खिलाफ भी बुलडोजर वाली कार्यवाही ही हो। क्योंकि वे अपने निजी स्वार्थ के लिए ऐसा कुछ कर गुजरते हैं, जिससे किसी शासन की अपराधों के खिलाफ वाली सारी कवायद ही संदेह के घेरे में आ जाती है। ये सब आवश्यक हैं, क्योंकि आज एक घर गलत तरीके से टूटा है और इसके चलते लोगों के मन में कानून के लिए विश्वास की ठोस बुनियाद भी दरकने लगेगी। इस बुनियाद को बचाने का दायित्व भी तो बुलडोजर चलाने वालों पर ही होगा।