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देश को कलंक से बचाने के लिए सबसे बड़ी अदालत को नमन

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मुंशी प्रेमचंद की अमर कृति ‘गोदान’ का एक प्रसंग याद आ गया। होरी के गांव में पुलिस आई। ‘अपने तरीके’ से काम करके चलती बनी। जब पुलिस गयी, तब उसकी ‘चपेट’ में आए साहूकार सहित अन्य असरदार लोगों के लिए प्रेमचंद जी ने जो लिखा था, उसके भाव यही थे कि उन सभी के चेहरे के भाव ऐसे थे, जैसे कि वे अपने किसी प्रियजन का अंतिम संस्कार करके आ रहे हों।

मुंशी जी ने हूबहू यही शब्द नहीं लिखे थे, लेकिन इन शब्दों को हूबहू कांग्रेस सहित उन चौदह राजनीतिक दलों के चेहरे के ताजा भाव से जोड़ा जा सकता है, जिन्होंने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में मुंह की खाई। इन दलों ने केंद्र सरकार पर जांच एजेंसियों के दुरूपयोग का आरोप लगाते हुए कोर्ट का रुख किया था। याचिका और दलीलों में कितना दम था, इसे ऐसे समझा जा सकता है कि कोर्ट ने इस पर विचार करने तक से इंकार कर दिया। मौके की नजाकत को भांपते हुए वकील एवं वरिष्ठ कांग्रेस नेता अभिषेक मनु संघवी ने याचिका वापस लेने की अनुमति मांगी, जो उन्हें मिल गयी।

इस मामले में अदालत से जिस तरह की व्यवस्था की अनुमति चाही गयी, वह स्तब्ध करने वाला विषय है। जब कोर्ट ने कहा, ‘राजनेताओं को किसी तरह की इम्‍यूनिटी नहीं मिली हुई है। उनके लिए अलग प्रक्रिया कैसे हो सकती है?’ तब यह साफ़ है कि याचिकाकर्ता ‘अपनों-अपनों’ के लिए कानूनी प्रक्रिया में आम लोगों के मुकाबले छूट चाह रहे थे। ज्यादा दिन नहीं हुए, जब वर्तमान कांग्रेस के हिसाब से एकदम मुफीद एक नेताजी ने मांग की थी कि गांधी-नेहरू परिवार के खिलाफ आपराधिक मामलों के लिए अलग (आशय ‘नरम’ से था) वाली विधिक प्रक्रिया बनाई जाना चाहिए। वे राहुल गांधी को मिली हालिया दो साल की सजा पर प्रलाप कर रहे थे। अब जबकि आम आदमी पार्टी के दो पूर्व मंत्री जांच एजेंसियों के चलते जेल में हैं। तृणमूल कांग्रेस के कई नेता इसी अधोगति के शिकार हैं। लालू प्रसाद यादव सः-कुटुंब, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की बेटी के कविता और उद्धव ठाकरे के लख्ते-जिगर संजय राऊत भी अलग-अलग कारणों से एजेंसियों के रडार पर हैं। ऐसे में यह मिली-जुली छटपटाहट स्वाभाविक थी, ताकि एक दूसरे को एक जैसे हश्र से बचाया जा सके, लेकिन फिलहाल ऐसा संभव नहीं हो सका। देश एक कलंक के दंश से बच गया।

हद है कि निजी स्वार्थों के लिए एक बार फिर देश के कानून से खिलवाड़ की जुर्रत की गयी। जब याचिका में कहा गया कि सात साल से कम की सजा वाले मामलों के लिए राजनेताओं की गिरफ्तारी नहीं होना चाहिए, तब हम देश को क्या संदेश देना चाह रहे हैं? यह कि कानून केवल आम आदमी के लिए दंड वाले प्रावधानों का इस्तेमाल कर सकता है? क्या यह उस फितरत से कम खतरनाक है, जिसके तहत किसी समय इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अपने खिलाफ आई व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दी थीं और राजीव गांधी ने तो शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश ही पलट दिया था?

यह याचिका एक लतीफे की ही तरह हास्यास्पद है। पति के क़त्ल की दोषी महिला को अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई। महिला ने रोते-रोते कहा, ‘एक विधवा पर कुछ तो तरस खाइए। जो अभागी पहले ही अपने पति को खो चुकी है, वह अब भला कैसे जेल में जिंदगी बिताने का भी नरक भोगेगी!’ बिलकुल यही स्थिति आज सुप्रीम कोर्ट में ‘बड़े बे-आबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले’ वाले विलाप की शिकार हुई याचिका पर हस्ताक्षर करने वाले दलों की भी है। वे कानून व्यवस्था को अपनी दासी बनाने की दिशा में ऐसा दुस्साहस करने से भी पीछे नहीं हटे। देश की सबसे बड़ी अदालत को नमन कि उसने देश की सबसे शर्मनाक कोशिशों में से एक को आज सिरे से खारिज कर दिया। सत्यमेव जयते।

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