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कोहनी से कंचे का खेल खेलते राहुल….!

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एक तेरा कदम, एक मेरा कदम, मिल जाएं तो जुड़ जाएगा मेरा वतन’ कांग्रेस (Congress) की भारत जोड़ो यात्रा (bharat jodo yaatra) के इस नारे की सराहना करने में किसी कंजूसी का कोई कारण नहीं है। कांग्रेस के पूर्व और अघोषित वर्तमान सर्वेसर्वा राहुल गांधी (Rahul Gandhi) इसी नारे के साथ सात सितंबर से कन्याकुमारी से कश्मीर (Kanyakumari to Kashmir) तक 3500 किलोमीटर की पद यात्रा आरंभ करने जा रहे हैं। इस योजना की भी मुक्त कंठ से सराहना की जाना चाहिए। देश तो क्या, किसी व्यवस्था को भी तोड़ना बहुत आसान होता है, लेकिन उसे जोड़ना उतना ही ज्यादा कठिन। टूटे हुओं को जोड़ने की यह प्रक्रिया आरंभिक है, इसलिए उन कारणों की पड़ताल बहुत जरूरी हो जाती है, जिनके चलते हुए कांग्रेस को भारत जोड़ने की यह पदयात्रा करनी पड़ रही है। जाहिर है गलतियों को समझने के बाद ही उनका निदान सही रूप में किया जा सकता है। कांग्रेस के नेतृत्व (Congress leadership) को अभी केवल इतना समझ में आया है कि लोग उससे टूट चुके हैं और उन्हें जोड़े बिना काम नहीं चलने वाला।

मुमकिन है कि राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने उन कारणों पर होमवर्क किया हो। उन्हें ऐसा करना भी चाहिए। स्वतंत्र भारत में देश टूटने जैसे तमाम घटनाक्रमों के बीच किस्तों में करीब साढ़े पांच दशक तक तक कांग्रेस ही सत्ता में रही। इसमें इमरजेंसी के बाद के तीन सालों को छोड़कर करीब चालीस साल लगातार। टूटन की शुरूआती प्रक्रिया वाली दरारों में ही साफ था कि ज्यादातर मौकों पर Congress और उसकी हुकूमत के चलते ही इस सबका आरंभ हुआ। देश तब टूटा, जब कबायली हमले के समय पाकिस्तान (Pakistan) को कश्मीर का एक हिस्सा तश्तरी में सजा कर दे दिया गया। ऐसा तब भी हुआ, जब चीन (China) अरुणाचल प्रदेश (Arunachal Pradesh) की जमीन पर कब्जा कर गया तथा हमारी सेना के हाथ बांध दिए गए। बांग्लादेश (Bangladesh) को ढाई बीघा गलियारा देने का कदम भले ही दो देशों के बीच संबंध मजबूत करने के लिए उठाया गया था, लेकिन आज यह देश भारत-विरोधी गतिविधियों का खतरनाक ठिकाना बन चुका है। अनुच्छेद 370 लागू कर एक तरह से कश्मीर को भी शेष भारत से तोड़ ही दिया गया था। भारत का विश्वास डर के साथ उस समय भी खंडित हुआ, जब कश्मीर (Kashmir) को भारत का ही हिस्सा बताने की कोशिश में डॉ, श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी (Dr. Shyamaprasad Mukherjee) की संदिग्ध हालात में मौत हो गयी। राहुल गांधी की इस बात से कोई असहमति नहीं कि देश को जोड़ने की बहुत बड़ी जरूरत महसूस की जा रही है। क्या गांधी सहित खुद कांग्रेस के लोग इस बात से सहमत होंगे कि बिखरे सिरों को जोड़ने की जिम्मेदारी भी अधिसंख्य रूप से कांग्रेस की ही है। कांग्रेस ने सोचा तो होगा कि नहीं कि आखिर कैसे देश के बहुसंख्यकों का भरोसा उस पर से ऐसा टूटा है कि सत्तारूढ़ पार्टी के कई नेता खुलकर यह कहने का साहस करते हैं कि उन्हें अस्सी और बीस प्रतिशत का अंतर पता है। राहुल ने शायद यह भी विचार किया होगा कि आखिर किन परिस्थितियों में देश के दस साल प्रधानमंत्री रहे डा. मनमोहन सिंह (Dr. Manmohan Singh) को यह कहने के लिए विवश होना पड़ा होगा कि देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों का पहला हक है। जनजातियों और अनुसूचित जातियों की बात कांग्रेस ने कही होती तो देश शायद आपत्ति नहीं करता लेकिन अल्पसंख्यकों को हक दिलाने के चक्कर में खुद कांग्रेस की गिनती अल्पसंख्यकों में आ गई।

इसके लिए ऊपर बताए गए उदाहरण हांडी के चावल जितने ही बहुत कम मात्रा में हैं। सच तो यह है कि देश पर शासन के समय कांग्रेस से लेकर कांग्रेस (O), कांग्रेस (R) और कांग्रेस (I) के रूप में कई बार टूटी है। आज G-23 ग्रुप भी तो वह सुराख ही है, जो देश के सबसे पुराने इस दल में विघटन की प्रक्रिया को दर्शा रहा है। इस सबके बीच हुआ यह कि पार्टी के वह कई बड़े नेता ठिकाने लगते चले गए, जो क्षमताओं के हिसाब से गांधी-नेहरू परिवार (Gandhi-Nehru family) और उनके अनन्य भक्तों के लिए बड़ी चुनौती बन सकते थे। इन दरारों के बीच पिसकर वह कई पार्टीजन भी खत्म हो गए, जिन्होंने इस परिवार के थोपे गए सच को मानने से इंकार किया। इसका देश पर यह असर हुआ कि कांग्रेस के शासन में उसे कई उत्कृष्ट चेहरों के कामों के लाभ से वंचित हो जाना पड़ा। इसका तात्पर्य यह न लगाया जाए कि पार्टी या सरकार में फिर कोई उत्कृष्ट बचा ही नहीं। ऐसे लोग बचे हैं, तब ही तो कांग्रेस आज भी राष्ट्रीय स्तर पर सबसे शक्तिशाली विपक्ष है और उसकी प्रासंगिकता तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच भी बनी हुई है।

राहुल गांधी भले ही वैचारिक रूप से कुछ अस्थिर दिखते हों, लेकिन यह मानना पड़ेगा कि अपने इरादे के वह पक्के हैं। यदि किसी समय उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ वाले नारे के आरोपियों के पक्ष में धरना दिया था, तो कालांतर में इसी मानसिकता का ढृढ़ता से पालन करते हुए इस काण्ड के मुख्य आरोपी कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) को उन्होंने कांग्रेस में सम्मान के साथ स्थान भी दिया है। इरादा इतना भी पक्का कि कांग्रेस को अपने नेतृत्व में तीस से अधिक घनघोर पराजय दिलाने के बाद भी वह पार्टी की अगुआई से न तो पीछे नहीं हट रहे हैं न खुलकर नेतृत्व संभालने को राजी हो रहे हैं। तब भी, जबकि इस सबके चलते पार्टी लगातार टूटती जा रही है। उसे हिमंता बिस्वा सरमा और ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) वाले घटनाक्रमों जैसे भारी नुकसान हो रहे हैं। यदि राहुल आज भी पार्टी में सबसे आगे खड़े हैं, तो विवशता में यह विश्वास करना ही होगा कि शायद वह किसी दिन किसी बहुत बड़े चमत्कार की तैयारी कर चुके हैं।

बचपन में कंचे का एक खेल वह भी था, जिसमें विरोधी पक्ष के कंचे को दस बार पीटना होता था। यदि पहली ही बार में पीटने का यह काम कर लिया जाता था, तो उस खिलाड़ी की गिनती सीधे छह से शुरू होती थी। जो ऐसा नहीं कर पाते थे, उन्हें कोहनी के बल कंचे को घसीट-घसीट कर दस बार गढ्ढे में डालना होता था। यह कहना तो ज्यादती होगी कि कांग्रेस कोहनी के बल ही चल रही है, लेकिन यह कहना भी गलत नहीं होगा कि BJP 2014 के बाद से सीधे छह की गिनती पर आ गयी है और कांग्रेस इस खेल में कोहनी का सहारा लेने को मजबूर खिलाड़ी वाली भूमिका में रह गयी है। उसे अपना घर जोड़ना है। टूटे जनाधार और जनता (विशेषकर बहुसंख्यकों) के विश्वास को फिर दुरुस्त करना है। देश के टूटने वाले हालात के क्राइम सीन से अपने निशान मिटाने हैं। इस सबका मार्ग कन्याकुमारी से कश्मीर के बीच से होकर ही गुजरता है, लेकिन यह मार्ग भारत जोड़ो यात्रा वाला 3500 किलोमीटर का नहीं है। यह अनंत और दुरूह यात्रा वाला रास्ता है। यहां कदम-कदम पर कांग्रेस को वह कांटे साफ करने हैं, जो उसने ही अतीत से लेकर वर्तमान तक बिछाने का काम जारी रखा है। तो राहुल की यह चुनौती भी बड़ी हो जाती है कि वह ‘खुद भी आरोपी और खुद ही जज’ वाली इस दोहरी भूमिका को कैसे निभा पाएंगे?

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