कहते हैं कि शेक्सपियर (Shakespeare) ने ‘नाम में क्या रखा है?’ वाले अपने नसीहत-नुमा वाक्य के नीचे खुद का नाम लिख दिया था। शेक्सपियर के चाहने वाले इस सवाल को सुनते ही तमतमा उठते हैं। उनका जवाब होता है, ‘वो ऐसा बेशक कर सकते थे, क्योंकि वे शेक्सपियर थे।’
यही हाल कांग्रेस (Congress) का होता दिख रहा है। उदयपुर (Udaipur) के चिंतन शिविर में प्रस्ताव आया कि चुनावों के लिए पार्टी में ‘एक परिवार, एक टिकट’ का सिद्धांत अपनाया जाए। साथ ही यह प्रस्ताव आने की भी सूचना है कि इस सिद्धांत के दायरे से गांधी-नेहरू परिवार (Gandhi-Nehru family) को बाहर रखा जाए। तो अब राजनीति के जरिये अपने परिवार की जुगाड़ में जुटे बाकी नेता भी मायूस होने की बजाय राहत महसूस कर रहे होंगे। बाकी के लिए भी अपवाद का प्रावधान चिंतन में शामिल किया गया है। न अन्याय पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के साथ होगा और ना ही उनके अनुयायियों के साथ। अब यदि कांग्रेस के परिवारवाद पर कोई सवाल उठाएगा तो उस पर हमला करने पिल पड़ने वाला समूह जो-जो कहेगा, उसके मूल में यही ध्वनि होगी कि ‘वो बेशक ऐसा कर सकते हैं, क्योंकि वे गांधी-नेहरू और उनके अनुयायी हैं।’
यूं भी यह चिंतन शिविर कांग्रेस की बजाय गांधी-नेहरू परिवार की चिंता का सबब ज्यादा नजर आ रहा है। जिन चार सौ लोगों को विविध मोर्चों पर पार्टी की स्थिति मजबूत करने का काम सौंपा गया है, उनके कंधे पर वस्तुत: यह जिम्मेदारी डाल दी गयी है कि शीर्ष नेतृत्व की विफलताओं के कीचड़ को हलुआ बनाकर पेश किया जाए। डोली यदि जरा भारी हो तो उसे उठाने के लिए चार कहार लगते हैं। यहां तो फिर उस बोझ का मामला है, जिसमे अब शक्ति-विहीन हो चुकी सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) और तमाम ऐतिहासिक विफलताओं की गठरी लादे राहुल गांधी (Rahul Gandhi) तथा प्रियंका वाड्रा (Priyanka Vadra) सवार हैं। ऐसा ही सब चला तो जल्दी ही रेहान वाड्रा (Rehan Vadra) सहित कोई और भी अपने उपनाम के आगे ‘गांधी’ लगाकर इसी बोझ को और बढ़ा देगा। जाहिर है कि इतनी अनावश्यक वजन वाली डोली को उठाने के लिए चार नहीं, बल्कि चार सौ लोगों की ही जरूरत पड़ेगी। इस हिसाब से पहली बार राहुल गांधी को दूरदर्शी माना जा सकता है कि उन्होंने आज तथा आने वाले कल को भांप कर चार सौ कहारों का इंतजाम कर लिया है।
कॉलेज के दौर में अंग्रेजी साहित्य के एक प्रोफेसर का बड़ा चर्चा था। जब वह शेक्सपियर से जुड़ा कोई अध्याय पढ़ाते थे तो लड़कों का समूह लगभग पूरे समय खिलखिलाता रहता और लड़कियां अजीब बेचैनी के भाव से घिरी रहती थीं। वजह यह कि प्रोफेसर साहब ‘श’ को ‘स’ उच्चरित करते थे। इसलिए वह जब-जब शेक्सपियर का नाम लेते, तब-तब क्लास की स्थिति देखते ही बनती थी। शेक्सपियर वाली कथनी और करनी के फर्क को ही दोहराती congress के हाल भी ऐसे ही विचित्र हैं। जिस परिवार के नियंत्रण से मुक्ति आज इस पार्टी की सबसे बड़ी जरूरत बन गयी है, उसी परिवार को एकलौता मुक्ति-दाता मानकर और अधिक ढोने की स्वीकृति को गुलामी नहीं तो और क्या कहा जा सकता है?
उपनाम मिल जाने भर से कुछ हो जाता होता तो आज सुनील गावस्कर (Sunil Gavaskar) के बेटे रोहन (Rohan Gavaskar) और अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan) के पुत्र अभिषेक (Abhishek Bacchan) क्रमश: क्रिकेट तथा फिल्म जगत में यूं गुमनाम नहीं हो गए होते। इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के बाद इस सरनेम के प्रभाव का जो क्षरण राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) के चलते हुआ, उस गिरावट की प्रक्रिया को कुछ हद तक सोनिया गांधी ने जरूर थामा, लेकिन राहुल और प्रियंका ने गिरावट को फिर नयी गति प्रदान की है। सोनिया गांधी की उपलब्धि का भी उल्लेखनीय पक्ष केवल यह रहा कि उन्होंने अन्य दलों की मदद से दो बार केंद्र में कांग्रेस को सत्ता का स्वाद फिर चखा दिया। बाकी इंदिरा गांधी जैसा अकेले दम कांग्रेस सरकार बनाने का करिश्मा तो खुद सोनिया भी नहीं कर पायी हैं। न अब दूर दूर तक ऐसी कोई संभावना है।
चिंतन शिविर कम से कम पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के हिसाब से औपचारिकता से अधिक और कुछ प्रतीत नहीं हो रहा है। सोनिया गांधी के अध्यक्षीय उद्बोधन को नयी बोतल में पुरानी शराब या बांसी कढ़ी में उबाल से अधिक और कुछ नहीं कहा जा सकता। उनका भाषण पार्टी के लिए किसी नए कार्यक्रम की बजाय भाजपा (BJP) और संघ (RSS) को कोसने के परंपरागत क्रिया-कर्म में ही तब्दील होकर रह गया। होना यह चाहिए था कि शिविर में पार्टी हकीकत के आईने का सामना करती। निर्मम तरीके से पार्टी की खामियों को दूर करने के लिए निर्णय लेती। तब कहीं जाकर कांग्रेस के बंद रोशनदान खुलते और उनसे ताजी हवा के अंदर आने का मार्ग साफ हो पाता। लेकिन ऐसा नहीं किया गया।
उलटे शिविर में यह कहा गया कि पहले पार्टी के अंदरूनी हालात सुधारे जाएंगे, फिर किसी अन्य दल से चुनावी गठबंधन पर विचार होगा। हद है। मालकिन/मालिक! किस भ्रम में जी रहे हैं आप? दिल पर हाथ रखकर यह तो बता दीजिए कि आज की तारीख में कौन सा जरा भी ठीक-ठाक जनाधार वाला दल आपसे गठबंधन के लिए तैयार है? अरे आपको तो उत्तरप्रदेश (Uttar Pradesh) के बीते विधानसभा चुनाव में भीम आर्मी (Bhim Army) तक ने घास नहीं डाली थी। मायावती के सामने आप गिड़ड़िाते रह गए। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव (Uttar Pradesh Assembly Elections) में राज्य की बमुश्किल चार से पांच सीटों का परिणाम प्रभावित करने की मामूली क्षमता रखने वाले दलों ने भी आपके साथ आने से इंकार कर दिया था। तो फिर यह अफीम किसे चटाने की कोशिश की जा रही है कि कांग्रेस मुख्यालय के बाहर उन दलों की कतार लगी हुई है, जो इस पार्टी के साथ गठबंधन के लिए बिलबिलाए जा रहे हैं!
किसी समय कांग्रेस वाकई एक विशाल परिवार हुआ करती थी। यकीनन आज भी इस दल के पास यह खोया हुआ गौरव पाने की पूरी क्षमता मौजूद है, लेकिन यह तब तक मुमकिन नहीं होगा, जब तक कि बीते हुए कल के बड़े परिवार को एक परिवार में सिकुड़ जाने के अभिशाप से मुक्ति नहीं दिलाई जाएगी। यदि कांग्रेस की दशा वाकई सुधारना है तो फिर ‘एक परिवार एक टिकट’ को मानने के साथ ही ‘एक गांधी परिवार, एक समस्या विकट’ वाले कटु सत्य को भी यह दल स्वीकार कर लें तो लगेगा, वाकई उदयपुर में कांग्रेस ने कुछ सकारात्मक चिंतन किया है।