डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी ।
जैसे मालिक पैदा नहीं होता, बनना पड़ता है। वैसे ही कोई भी आदमी उल्लू का पट्ठा पैदा नहीं होता, उसके लिए टिकट खरीदकर हॉल में जाना पड़ता है। (चाहो तो मेरी तरह जाकर देख लो !) मालिक बनने के लिए दाढ़ी बढ़ानी पड़ती है, काला चश्मा लगाना पड़ता है और कंधे पर गन रखनी पड़ती है। धायं-धांय करना पड़ता है। नेताओं से निपटना पड़ता है। बिजनेस करना पड़ता है। लोगों को मारना पड़ता है, गोलियों की बरसात के बीच घुसना और गद्दारों को निपटाना पड़ता है। तमाम धतकरम करने पड़ते हैं। तब कहीं जाकर हुमा कुरैशी का आइटम सांग देखने को मिलता है और 2017 की मिस वर्ल्ड मानुषी छिल्लर जैसी लुगाई फिल्म में मिलती है।
मालिक की कहानी वही घिसा-पिटा गैंगस्टर ड्रामा ! एक भोला-भाला लड़का , हालात से मजबूर, बंदूक उठाता है और बन जाता है ‘मालिक’। लगता है जैसे स्क्रिप्ट राइटर ने सत्या, गैंग्स ऑफ वासेपुर और मिर्जापुर को मिक्सर में डालकर ब्लेंड कर दिया, लेकिन मसाला डालना भूल गया। कहानी में ट्विस्ट्स हैं, लेकिन वो इतने प्रेडिक्टेबल हैं कि आप पॉपकॉर्न खाते-खाते बता देंगे कि अगले सीन में क्या होगा। “अरे, अब ये धोखा देगा!”, ” ऐसी कोई गोली नहीं बनी जो हीरो को मार सके।”
राजकुमार राव, हमारे बॉलीवुड के ‘हर किरदार में ढल जाने वाले’ सुपरमैन, इस बार गैंगस्टर लुक में हैं। मूंछें तनी हुई, शर्ट के बटन खुले, और आंखों में ‘मैं सबका बाप हूं’ वाला स्वैग। लेकिन भाई, स्वैग तो ठीक है, पर ऐसा लगता है जैसे राजकुमार को डायरेक्टर ने बोला, “बस थोड़ा मिर्जापुर वाला कालीन भैया, थोड़ा रॉकी हैंडसम और थोड़ा अपने वाला शाहिद मिला दे!” नतीजा? राजकुमार का अभिनय तो बढ़िया है, लेकिन किरदार में वो वाह वाली बात नहीं है। एक छपरी नौजवान, एक्शन हीरो क्यों बन रहा है, समझ से परे है। राजकुमार का न्यूटन स्टाइल ही ठीक था! फिर भी, राजकुमार की मेहनत दिखती है—मसल्स बनाए, मिठाई छोड़ी, लेकिन शायद डायरेक्टर ने स्क्रिप्ट में मेहनत नहीं की! बेचारी छिल्लर को डायरेक्टर ने चिल्लर समझकर वापरा है इस फिल्म में।
मानुषी छिल्लर फिल्म में राजकुमार राव की लुगाई के रोल में हैं। वो जितनी खूबसूरत हैं, फिल्म में उतनी तो खूबसूरत लगती। उससे ज्यादा तो वो इंस्टाग्राम पर लुभाती हैं। रोल ही छोटा सा था। मानुषी के साथ फिल्म साइन की थी कि रील? 152 मिनट 27 सेकंड की फिल्म में बेचारी को ‘ढंग के 27 सेकंड्स’ भी मिल जाते तो न्याय हो जाता ! लेकिन डायरेक्टर पुलकित ने उनका पेमेंट करवाया होगा और कहा होगा कि जिज्जी, आप तो बस सेट पर आ जाना। कैमरा खुद बाकी काम संभाल लेगा! फीस तो आपको सेट तक आने की मिल रही है। मूड हो तो प्रमोशन के लिए इंदौर भी घूम आना। खर्चा पानी हमारा रहेगा।
हुमा कुरैशी का आइटम सॉन्ग है, जो इतना जोरदार है कि जिन लोगों को लगी होगी वे दो मिनट के लिए रेस्ट रूम जा सकें। बाकी कास्ट—प्रोसेनजीत चटर्जी, सौरभ शुक्ला और इन्दौरीलाल स्वानंद किरकिरे— ठीक हैं। इनके रोल इतने छोटे हैं कि लगता है इन्हें सिर्फ ट्रेलर में दिखाने के लिए बुलाया गया था! पुलकित का डायरेक्शन ऐसा है जैसे कोई नया शेफ पनीर टिक्का बनाने की कोशिश करे, लेकिन नमक और मिर्च डालना भूल जाए।
फिल्म में कुछ सीन अच्छे हैं, खासकर एक्शन वाले, लेकिन स्क्रीन प्ले लम्बा खींचा हुआ है कि आप सोचने लगते हैं, भाई, ये सीन खत्म करो, मुझे चाय पीने जाना है! सिनेमेटोग्राफी ठीक है, प्रयागराज की गलियां अच्छे से दिखाई हैं, लेकिन फिल्म में राजकुमार को और हीरोइज्म चाहिए था!
यह गैंगस्टर ड्रामा है लेकिन सिर्फ राजकुमार का अभिनय देखने लायक है, बाकी तो पुराना गैंगस्टर ड्रामा !
एक टालनीय फिल्म, जिसे देखना टाल सकते हैं।