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प्रियंका वाड्रा और कांग्रेस की उम्मीदें….

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उम्मीद बहुत बड़ा तत्व है। ‘आनंद’ फिल्म में नायक आखिरी सांसें गिन रहा है। लेकिन दोस्त उसे छोड़कर एक ऐसी दवा की उम्मीद में चला जाता है, जिसके बारे में सब जानते हैं कि उस दवा से भी नायक बचने वाला नहीं है। कुछ इसी अंदाज में कांग्रेस भी अपने लिए उम्मीदें तलाश रही है। खबर है कि प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) को कांग्रेस (congress) उत्तरप्रदेश (Uttar pradesh) में मुख्यमंत्री (CM) के तौर पर प्रोजेक्ट कर अगला विधानसभा चुनाव (Assembly elections) लड़ने जा रही है।

 

उम्मीदों के मामले में कांग्रेस सदानीरा जैसी हो गयी है। इस आत्मविश्वास की दाद देना होगी। क्योंकि वह तब भी कायम है, जब कोई सियासी कायम चूर्ण भी इस दल को जड़ता वाली कब्ज और वैचारिक घुटन से भरी गैस जैसी समस्या से छुटकारा नहीं दिला पा रहा है। यह पार्टी फिर उम्मीद से है। उसने प्रियंका वाड्रा (Priyanka Vadra) को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए CM पद का दावेदार घोषित करने का फैसला किया है। एक बड़ा फैसला यह भी कि कांग्रेस अपने ही दम पर अकेले विधानसभा चुनाव लड़ेगी। यानि कोई गठबंधन नहीं करेगी। यह निर्णय वर्ष 2019 के आम चुनाव से पहले हुआ होता तो पूरे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लोग खुशी के इतने आंसू बहाते कि संगम (Sangam) की त्रिवेणी (Triveni) से लेकर गोमती (Gomati) और घाघरा नदियों का ओवरफ्लो हो जाना तय था। लेकिन अब ऐसा नहीं रहा। बीते लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने प्रियंका को उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी। नतीजे आये तो पता चला कि यह पार्टी राज्य में अपने पास की दो सीटों में से भी एक गंवा चुकी थी। श्रीमती वाड्रा की सक्रियता के बाद भी राहुल गांधी उस अमेठी सीट से हार गए, जो कांग्रेस का इससे पहले तक गढ़ मानी जाती थी। कांग्रेस ले-देकर भागते भूत की लटकती लंगोटी के रूप में रायबरेली में जैसे तैसे अपनी इज्जत बचा सकी।

 

यूं तो श्रीमती वाड्रा ने वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भी उत्तर प्रदेश में भाई राहुल गांधी के कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग किया था। हालांकि तब समाजवादी पार्टी (SP) के कंधे का सहारा लेने के बाद भी कांग्रेस को विधानसभा में केवल 7 सीट मिल पाई थीं। यह उस राज्य की बात है, जहां कांग्रेस वर्ष 1989 तक सत्रह मुख्यमंत्री दे चुकी थी। उसके बाद से तो कांग्रेस किसी चुनाव में मुख्य विपक्ष दल लायक भी सीटें हासिल नहीं कर सकी। यहां तक कि कांग्रेस पर एक बार फिर सोनिया गांधी से लेकर राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के नियंत्रण के बाद भी यह दल इस राज्य में अपनी खोई जमीन फिर कभी भी नहीं पा सका। वैसे ऐसा अकेले उत्तरप्रदेश में ही नहीं हुआ है, जहां भी जनता को दूसरे विकल्प मिले हैं, वहां से कांग्रेस का पत्ता कटता रहा है। बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल के अलावा दक्षिण के राज्य इसका उदाहरण हैं। इसके अलावा गुजरात (Gujrat), असम (Asam), हरियाणा (Haryana) जैसे राज्य नई कहानी लिख रहे हैं।

 

राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष से लेकर इस पार्टी के सांसद के तौर पर भी घनघोर रूप से असफल साबित हुए हैं। फिर भी वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। यह कांग्रेस की उम्मीद का चरम है या उसके वैचारिक अधोपतन का एक उदाहरण, जो भी हो, है यह काफी दिलचस्प मामला। लेकिन फिलहाल तो ज्यादा दिलचस्पी इस बात में है कि उत्तर प्रदेश में प्रियंका वाड्रा क्या वाकई कुछ ऐसा कर पाएंगी कि कांग्रेस यहां फिर ताकतवर हो जाएगी? पार्टी इस प्रदेश में मुस्लिम और पिछड़े वोटों (Muslim and backward votes) सहित क्रीमी लेयर में भी काफी लोकप्रिय रह चुकी है। लेकिन अब तस्वीर बिलकुल उलटी है। मुस्लिम तथा पिछड़े वोट समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी (BSP) में शिफ्ट हो गए हैं। जो कुछ बचे थे, उन्हें भाजपा (BJP) ने शेष वर्गों के साथ अपनी तरफ खींच लिया है। अब मायावती ब्राह्मण सम्मेलन कर चुकी हैं और ‘अब्बाजान फेम’ अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) भी मंदिरों में माथा टेकने लगे हैं। किसान बाकी चाहे जिसके भी साथ हो, लेकिन वह उस कांग्रेस पर भरोसा करने की स्थिति में नहीं दिख रहा, जिसे राहुल गांधी ने दस दिन में कर्ज माफ करने की जगहंसाई से नवाजा है। असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) भी मुस्लिम मतों की दम पर यहां सियासी जमात बिछा चुके हैं। भाजपा मंदिर की लहर पर सवार है। योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की घोर राष्ट्रवादी छवि से उसे फिर सत्ता मिलने का विश्वास है।

 

इस सारे कोलाहल के बीच श्रीमती वाड्रा भला किस तरह कांग्रेस की बात रखकर पार्टी का पक्ष मजबूत कर पाएंगी? सबसे बड़ा सवाल यह कि वह किस विचारधारा के साथ उत्तरप्रदेश में पार्टी को मुख्य धारा में लाने का सोच रही हैं? कांग्रेस का वामपंथी करण हो चुका है। उसके थिंक टैंक में बुजुर्ग दिग्विजय सिंह (Digvijay Singh) से लेकर युवा कन्हैया कुमार (Kanhaiya Kumar) जैसे घोर वामपंथी विचारधारा (leftist ideology) के लोग हावी हैं। इस श्रेणी के कांग्रेसियों का एक विशिष्ट लक्षण है। वह जब-जब मुंह खोलते हैं, तब-तब अक्सर उनका ऐसा भाजपा के लिए लाभकारी ही साबित होता है। इन दो और इन जैसे कांग्रेसजनों की कथनी और करनी से अक्सर यह बदलाव दिखता है कि संबंधित मामला उस पटरी पर पहुंच जाता है, जहां भाजपा या संघ उसे पहुंचना चाह रहे होते हैं। अब यह कहना तो प्रियंका की क्षमताओं के साथ ज्यादती होगी कि वह अपनी किसी विचारधारा से चमत्कार कर देंगी। इसलिए उन्हें पार्टी पर हावी आयातित वामपंथी विचारधारा की ही जुगाली करना होगी और इससे कांग्रेस को कम से कम किसी भी किस्म का लाभ होने की दूर-दूर तक कोई गुंजाइश नहीं है।

 

फिर भी यदि कांग्रेस को प्रियंका वाड्रा से उम्मीद है तो यह उसने बड़ा दांव खेल दिया है। क्योंकि राज्य में बड़ी सफलता न मिलने की सूरत में फिलहाल कांग्रेस गांधी-नेहरू परिवार (Gandhi-Nehru family) से जुड़ी सारी उम्मीदों को खो देगी। ऐसा होने का खतरा उस समय और भी कई गुना बढ़ जाता है, जब यह फैक्टर साफ है कि आज कि कांग्रेस में उस भाजपा जैसा माद्दा नहीं है, जिसने जनसंघ से आज तक का शानदार राजनीतिक सफर अपने संघर्ष से तय कर लिया है। फिर भी उम्मीद बहुत बड़ा तत्व है। प्रियंका के नेतृत्व में कांग्रेस यदि उत्तरप्रदेश में सरकार बना लेती है तो भारतीय राजनीति 360 डिग्री पलट जाएगी। विधानसभा की पिछली पांच से पच्चीस सीटों तक पहुंच गई तो मान लेंगे कि कांग्रेस संघर्ष के उस दौर में हैं जहां से उसके हमारे बीच रहने की उम्मीदें बंधी रहेंगी। गांधी परिवार के करिश्में की तो अब कोई बात ही नहीं है। लेकिन प्रियंका भी यदि उत्तरप्रदेश में फैल हो गर्इं तो फिर इस कांग्रेंस (Congress) में नेतृत्व के संकट का समाधान लंबे समय तक नहीं होने वाला है। कन्हैया कुमार तो वैसे भी बड़े जहाज को डूबने ने बचाने के लिए कांग्रेस में आएं हैं। बड़ी बात तो यह है ही कि आज भी किसी मुर्दे में जान आ जाने की आस रखने वाले हमारे बीच हैं तो फिर आप ऐसी आशा करने से कांग्रेस को भला कैसे रोक सकते हैं?

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