राहुल गांधी की भारतीय संस्कृति और सभ्यता को लेकर अपनी कोई समझ नहीं हैं, इस बात से जुड़े सभी संदेह न जाने कब के दूर हो चुके हैं। लेकिन वह निपट मूर्ख हैं, अब यह भी समझ आने लगा है। उन्हें इस बात पर आपत्ति है कि भाजपा ‘श्रीराम’ की जगह ‘सियाराम’ क्यों नहीं बोलती। लगे हाथ उन्होंने इसे सीताजी के अपमान से भी जोड़ दिया है। कोई भी आस्थावान व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता कि भगवान राम और देवी सीता को एक-दूसरे से अलग रखने की कल्पना भी करे।
जहां प्रभु राम हैं, वहां प्राकृतिक रूप से मां सीता भी हैं। क्या यह कहा जा सकता है कि ऊपर वाले ने दो आंखें अलग-अलग दृश्य देखने के लिए बनाई हैं? ठीक यही हिसाब है कि मर्यादा पुरुषोत्तम और माता सीता को पृथक नहीं किया जा सकता। लेकिन पत्थर बुद्धि का कोई भला क्या करे? महात्मा गांधी ने मृत्यु से ठीक पहले ‘हे राम’ कहा था। तो क्या राहुल अब बापू के लिए भी यह सवाल उठाएंगे कि अंतिम सांस से पहले उन्होंने क्यों लिंग-भेद की नीति अपनाई और क्यों नहीं ‘हे सियाराम’ कहा? कल को राहुल यह भी कह सकते हैं कि क्यों नहीं त्रेता युग में पत्थर बनने को अभिशप्त अहिल्या ने इस हालत के बावजूद राम जी के सामने शर्त रख दी कि यदि मुझे नया जीवन देना है तो यह काम आपको सीता जी के साथ ही करना होगा?
राहुल गांधी की सतही बुद्धि का शायद यह विस्तार भी हो जाए कि वन में राम जी की बाट जोहती शबरी भी वस्तुत: लिंग-भेद वाली मानसिकता की ही शिकार थी। गनीमत है कि श्री लक्ष्मणाचार्य जी अब इस दुनिया में नहीं हैं, वरना राहुल उनसे भी सवाल पूछ लेते कि ‘रघुपति राघव राजा राम’ में ‘सीताराम’ शब्द नीचे की पंक्ति में क्यों जोड़ा गया? बेचारे अमीश त्रिपाठी तो शायद राहुल के इस गुस्से के डर से गुफाओं में जा छिपे होंगे, क्योंकि उन्होंने अपने उपन्यास का शीर्षक ‘सीताराम’ की बजाय ‘राम’ और ‘सीता’ को दो पार्ट में रखा। आरएसएस में औरतों के पतलून न पहनने पर भी राहुल को आपत्ति है।
स्त्री की ऐसी चिंता विलक्षण है। क्योंकि इन्हीं राहुल के रहते कांग्रेस के लोगों द्वारा हद दर्जे तक अपमानित की गयी प्रियंका चतुवेर्दी अपनी शिकायत न सुने जाने से आहत होकर पार्टी छोड़ देती हैं। पार्टी की रीति-नीति से नाराज होकर सुष्मिता देव भी यही कदम उठाती हैं। राहुल और कांग्रेस की सोशल मीडिया प्रभारी दिव्या स्पंदना को पिछले कांग्रेस और राजनीति दोनों ही छोड़नी पड़ गर्इं। उनकी पार्टी लाखों मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक की कुप्रथा से मुक्ति दिलाने के प्रयास का विरोध करती है। राहुल के दिवंगत पिता राजीव गांधी ने तो मुस्लिम महिलाओं को उनका अधिकार दिलाने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ही पलट दिया था।
ऐसी पार्टी के अघोषित कर्णधार जब श्रीराम और सीताराम के बीच सुराख पैदा करने की कोशिश करते हैं तो ऐसा लगता है, जैसे कि भोजन करते समय कोई मरा हुआ जीव दिख गया हो। स्त्री जगत की इतनी ही फिक्र है तो क्यों नहीं राहुल गांधी ने अपनी यात्रा के दौरान मध्यप्रदेश में कांग्रेस की दिवंगत नेता सरला मिश्रा को याद किया? क्यों नहीं कांग्रेस विधायक उमंग सिंघार से जुड़े एक औरत की आत्महत्या और एक अन्य के रेप के आरोप पर उन्होंने दो-शब्द कहे? दिल्ली में तो उम्र गुजर रही है राहुल की। तो ऐसा क्यों नहीं हुआ कि तंदूर में जलाई गयी नयना साहनी को लेकर कभी किसी पीड़ा का वह इजहार कर सके? वर्ष 1984 के दंगों में अत्याचार की शिकार हुई हजारों सिख स्त्रियों के सम्मान में वह अपने मुखारविंद से क्यों नहीं कुछ कह पाते हैं? जिस समय राहुल मध्यप्रदेश में थे, तब तो भोपाल की भीषण गैस त्रासदी की बरसी बस एक दिन दूर थी। तब ऐसा कैसे हुआ कि अपनों को खोने वाली असंख्य महिलाओं के हत्यारे वारेन एंडरसन की भारत से सुरक्षित निकासी पर उन्होंने दु:ख नहीं जताया? क्या ऐसा इसलिए कि एंडरसन को अमेरिका वापस भेजने के मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की संदिग्ध भूमिका थी?
भारत में मां सीता से लेकर उमंग सिंघार की ज्यादती से पीड़ित पत्नी तक को सम्मान दिया गया है। यदि इस देश में कहा गया है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:’, तो यह भी कहा गया है कि ‘यत्र तु एता:न पूज्यन्ते तत्रसर्वा: क्रिया: अफला:’ निश्चित ही ऐसी मान्यताओं के क्षरण के मामले सामने आते हैं, लेकिन स्थिति कम से कम इतनी तो नहीं बिगड़ी है कि कोई पुरुषवादी मानसिकता के चलते किसी देवी से ही विभेद करने लग जाए। लेकिन राहुल तो ठहरे राहुल, उनकी अक्लमंदी के बारे में सोचना अपने आप को धोखे में रखना होगा।