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आगे आना ही होगा प्रबुद्ध मुस्लिमों को

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दो घटनाओं के बीच समय और क्षेत्र के हिसाब से जमीन-आसमान का अंतर है, लेकिन दोनों आज एक साथ याद की जा सकती हैं। आरिफ मोहम्मद खान (Arif Mohammad Khan) ने शाहबानो (Shah Bano) मामले में अपनी ही तत्कालीन पार्टी कांग्रेस (Congress) और उसकी सरकार की खुलकर आलोचना की। वह तुष्टिकरण की आड़ में मुस्लिम समाज (Muslim community) में सुधार और बदलाव की नयी बयार को रोकने की कांग्रेस की गलती का विरोध कर रहे थे। परिणाम यह हुआ कि खान को पार्टी में हाशिये पर धकेल दिया गया।

भोपाल (Bhopal) के कोहेफिजा इलाके (Kohefiza locality) में हैदराबाद की मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय (Maulana Azad National Urdu University, Hyderabad) (मानु) एक बैठक हुई थी। उससे जुड़ी एक खबर याद आ रही है। इस बैठक में एकत्र हुए उर्दू के तमाम विद्वानों के बीच ‘मानु (Manu)’ का पाठ्यक्रम तय करने पर विचार होना था। उसमें इंग्लिश के प्रोफेसर भी मौजूद थे, जिनका शुमार भोपाल (Bhopal) के बहुत अधिक पढ़े-लिखे लोगों में सम्मान के साथ होता है। उन सज्जन ने सुझाव दिया कि ‘मानू’ के कोर्स में इंग्लिश भी जोड़ी जाए, ताकि विद्यार्थियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का भी ‘एक्सपोजर’ मिल सके। उनके इतना कहते ही बवाल की स्थिति बन गयी। उन प्रोफेसर को एक सुर में उर्दू का विरोधी और इस भाषा पर अंग्रेजी थोपने की कोशिश करने वाला बता दिया गया। बेचारे प्रोफेसर साहब लगातार यह कहते रहे कि उनका उर्दू के विरोध या उसे कमतर दिखाने जैसा कोई मकसद नहीं है, लेकिन उनकी एक न सुनी गयी। एक अघोषित व्हिप जारी हो गया। इन प्रोफेसर के बाद के हरेक वक्ता ने उनका नाम लिए बगैर अलग-अलग तरीके से इस बात की निंदा की कि कुछ मुस्लिम ही उर्दू की प्रगति में बाधक बन रहे हैं।

उदयपुर (Udaipur) में रियाज और गौस मोहम्मद (Riyaz and Ghaus Mohammad) द्वारा पेशे से दर्जी कन्हैयालाल (Tailor Kanhaiyalal) की नृशंस हत्या (brutal murder) के बाद आरिफ मोहम्मद खान (Arif Mohammad Khan) के एक बयान से ये दो घटनाक्रम याद आए। खान फिलहाल केरल के राज्यपाल (Governor of Kerala) हैं। उन्होंने साफ कहा कि उदयपुर की वारदात मदरसों में दी जाने वाली गलत तालीम का नतीजा है। खान ने कहा कि यदि आप मदरसों में दुश्मन का गला रेत देने वाली तालीम देंगे, तो उसका उदयपुर जैसा बुरा नतीजा ही देखने मिलेगा। राज्यपाल ने कहा कि यदि ऐसा ही हाल रहा तो फिर मुस्लिम बच्चों को मदरसों की बजाय बचपन से ही सीधे स्कूल में भेजा जाए। जाहिर है बचपन से ही जन्नत का लालच और ईमान की रोशनी व्यवहारिक जिंदगी से दूर कट्टरता के अलावा और क्या पैदा करती है।

इसमें कोई शक नहीं कि मदरसा (madarasa) वाली व्यवस्था काफी हद तक बदनामी और शक के दायरे में आ चुकी है। पाकिस्तान सहित उस जैसे कट्टरपंथी देशों में तो मदरसे एक तरीके से आतंकवाद की नर्सरी वाली कुख्याति हासिल कर चुके हैं। यह आरोप अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लगने लगे हैं कि कई मदरसों में मजहब नहीं, बल्कि विनाश की शिक्षा दी जा रही है। इस सबकी रोशनी और उदयपुर की आतंकवादी (terrorist) वारदात के बीच खान के कथन पर विचार आज की बहुत बड़ी आवश्यकता बन गयी है। इसमें सबसे अधिक आवश्यकता मुस्लिम वर्ग के सक्रिय और सक्षम प्रतिनिधित्व की है। इस समुदाय के विचारकों को ही आगे बढ़कर इस विमर्श की कमान थामना होगी और उसे एक समाधानकारक नतीजे तक ले जाना होगा।

मुस्लिमों के प्रबुद्ध वर्ग को ही यह तय करना होगा कि वह रियाज और गौस मोहम्मद जैसे कुछ लोगों की वजह से अपने पूरे समुदाय की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रही बदनामी को रोकें। यह सारी प्रक्रिया उन घातक राजनीतिक मंसूबों से बचाकर की जाना होगी, जो देश ने शाहबानो प्रकरण में देखा था। इस प्रोसेस में मुस्लिम समाज के उन जड़बुद्धि लोगों की कोई भूमिका नहीं होना चाहिए, जिन्होंने भोपाल में उस प्रोफेसर के एक प्रगतिशील आशय को दुराशय में बदलने का काम किया था। मदरसों में अब सबसे ज्यादा तादाद गरीब और अशिक्षित मुसलमानों के बच्चों की होती है। साधन सम्मपन्न और पढ़े लिखे मुस्लिम तो अब अपने बच्चों को कान्वेंट में पढ़ाना पसंद करते हैं।

इन हालात में बदलाव की आप सरकार से कोई उम्मीद नहीं कर सकते। वहां सबका अपना-अपना राजनीतिक एजेंडा तय है। कोई मुस्लिमों में से कट्टरपंथियों को ही अपने लिए टूल की तरह इस्तेमाल करना चाहता है तो किसी की मंशा है कि मदरसों से उपजते ऐसे विपरीत हालात से उपजे ध्रुवीकरण का राजनीति फायदा लिया जा सके। इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि मदरसों पर किसी भी तरह की सरकारी रोक का मुस्लिम समुदाय के कट्टर तबके से ही बड़ा विरोध होगा। वो इसलिए भी होगा कि क्योंकि देश और कई सारे राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। और बड़ा मुस्लिम समुदाय भाजपा (BJP) को अपना राजनीतिक दुश्मन मानता ही है। तीन तलाक पर कानून (law on triple talaq) को अभी भी देश का बड़ा मुस्लिम तबका कहां पचा पा रहा है?

फिर यह भी दुर्भाग्य का ही प्रतीक कहा जाएगा कि मदरसों को आधुनिक शिक्षा से जोड़ने और उनमें राष्ट्रवाद का प्रसार करने की सरकारों की कोशिशों का जमीनी स्तर पर कोई बहुत उत्साहजनक नतीजा प्राय: सामने नहीं आया है। और ऐसा न होने पर ही यह होता है कि असम में मदरसों (Madrasas in Assam) को सरकारी अनुदान बंद कर दिया जाता है। लेकिन ऐसा कड़ा फैसला देश की कितनी सरकारें ले पाएंगी। और मदरसों के लिए ऐसे सख्त कदम यदि जायज लगने लगें तो फिर यह पड़ताल बहुत जरूरी हो जाती है कि वहां की ‘नाजायज’ गतिविधियों को कौन हवा दे रहा है? और यह हवा किस के लिए निजी महत्वाकांक्षाओं की पतंग की उड़ान का रास्ता बना रही है?

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