मुझे पूरा यकीन है कि यदि टीवी कैमरे (tv cameras) चालू न होते तो नगाड़े बजाने वालों की किराए की भीड़ और नाचते लोगों का ‘प्रायोजित’ समूह उस पूरे आयोजन के दौरान शायद अपना-अपना काम छोड़कर मक्खियां ही मारते रहते। खुशी से रह-रह कर दमकाए जा रहे चेहरे केवल इस होड़ की व्यग्रता से घिरे रहते कि किसी तरह एक बार मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) को चेहरा दिखाकर बधाई दें और खुश होने वालों की फेहरिस्त में अपना नाम जुड़वा लें। क्योंकि जो हुआ, वह तयशुदा था। कई तरह और तरफ से आदेशित था। यदि कोई यह लिख रहा है कि खड़गे को खड़ाऊ मिल गयी, तो इस पर आपत्ति भी नहीं हो रही। आपत्ति की वजह भी तो होना चाहिए ना।
मल्लिकार्जुन खड़गे की उपलब्धि यह कि वह बुने हुए रास्ते से चुने हुए कांग्रेस अध्यक्ष (Congress President) बन गए हैं। चुनाव नतीजे आने से पहले ही राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने मीडिया से कह दिया कि पार्टी में उनकी अगली भूमिका खड़गे तय करेंगे। यह साफ़ संकेत था कि कई संकेतकों के माध्यम से खड़गे का चयन पहले ही सुनिश्चित कर दिया गया था। कुल 7897 जो वोट खड़गे को मिले, उन मतपत्रों को गौर से देख लीजिए। आपको उन कागजों में विचार प्रक्रिया की सक्रियता का कोई चिन्ह तक नहीं मिलेगा। हां, बाध्यता की सिलवटें उनमें से अधिकांश पर जरूर दिख जाएंगी। इससे उलट शशि थरूर को मिले 1072 वोट की समीक्षा की जाए, तो आप पाएंगे कि वह वोट डलवाए नहीं गए, बल्कि डाले गए थे।
सलमान सोज (salman soz) कांग्रेस (Congress) के बड़े नेता हैं। जब वह कहते हैं कि चुनाव प्रक्रिया में निष्पक्षता नहीं बरती गयी, तो पार्टी को इस पर विचार करना होगा। यह सोचना होगा कि ‘बात बाहर क्यों आ गयी?’ थरूर (Shashi Tharoor) ने चुनाव के बीच ही इसकी शुचिता को लेकर आवाज उठाई। आज जब प्रमोद तिवारी इन बातों को ‘हारने वाले के बहाने’ कहते हुए हवा में उड़ाते हैं तो उन्हें ‘जीतने वालों के फ़साने’ सुनाने का भी नैतिक साहस दिखाना चाहिए। मीडिया ने तो खड़गे की उम्मीदवारी घोषित होते ही उन्हें ‘गांधी-नेहरू परिवार की ढाल’ बता दिया था। क्योंकि सब जानते थे कि चुनाव के नाम पर चयन हो रहा है, वह भी आदेशित तरीके से।
आखिर चुनाव के नाम पर क्या हुआ? वह दृश्य याद है, जब थरूर ने पार्टी के वरिष्ठ नेता मधुसूदन मिस्त्री (Madhusudan Mistry) की सामने नामांकन दाखिल किया था। मिस्त्री के हाव-भाव किसी उस ठेठ सरकारी अफसर जैसे दिख रहे थे, जो अपने सामने नामांकन भरने को खड़े प्रत्येक व्यक्ति को उम्मीदवार की तरह ही समान नजर से देखता है। लेकिन यही मिस्त्री महोदय जब खड़गे का नामांकन लेने अपनी तशरीफ़ को कष्ट देकर कुर्सी से उठ खड़े हुए थे, तब भी यह साफ़ था कि वह उगते सूरज को अर्ध्य देने की अपने बाकी सहभागियों की प्रक्रिया को ही आगे बढ़ा रहे हैं। इस समूची ‘औपचारिकता’ के लिए यही पंक्ति सटीक है कि ‘आईना वही रहता है, चेहरे बदल जाते हैं।’
अब शशि थरूर का क्या होगा? नौ हजार में से यदि लगभग आठ हजार प्रतिनिधि अपनी पार्टी की राष्ट्रव्यापी दुर्दशा के बाद भी ऐसी ही कांग्रेस चाहते हैं तो फिर उन्हें तय करना होगा कि थरूर दल में हाशिये से भी बाहर दुर्गति के दलदल में धकेल दिए जाएं। ताकि उनसे सबक लेकर भविष्य में फिर कोई पार्टीजन कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र की मजबूती की बात कहने का दुस्साहस न कर सके। आखिर यह बापू के अनुयायियों की कांग्रेस है और बापू (Bapu) ने ही देश से कांग्रेस को समाप्त करने की आवश्यकता बतायी थी। ऐसा थरूर जैसों को ठिकाने लगाकर ही किया जा सकेगा। इसलिए यदि खड़गे जी को अध्यक्ष पद की बधाई है तो थरूर को भी अग्रिम साधुवाद कि वह बापू के सपने को पूरा करने के लिए आत्मघाती कदम उठाने से नहीं चूके।