निहितार्थ

सही फरमाया संघ प्रमुख ने

संघ प्रमुख मोहन भागवत की यह बात मन को छू गई। रविवार को उन्होंने देश को गुलामी की मानसिकता से मुक्त कराने के लिए ‘बौद्धिक क्षत्रियों’ की जरूरत बताई है। स्पष्ट है कि भागवत का आशय उन भारतीयों से हैं, जो समूचे विश्व और विशेषकर बाहरी सहित भीतरी आक्रांताओं को अपनी जानकारी, सन्दर्भ, वाकक्षमता और मर्यादित आक्रामकता के साथ भारत की महान परंपराओं, गौरवमयी इतिहास, दर्शन आदि की यथार्थपरक और वैज्ञानिक अवधारणाओं के साथ व्याख्या कर सके। संघ प्रमुख के इस विचार से असहमति जताने का कोई आधार नहीं दिखता कि विश्व को भारत का परिचय भारत के नजरिये से ही कराने के लिए ऐसा किया जाना बहुत जरूरी है। दुर्भाग्य से अब तक भारत का जो परिचय दे रहे हैं, उनका खुद का भारत के प्रति ज्ञान उधार का है।

यहां ‘गुलामी की मानसिकता’ पर ठिठककर विचार करने की जरूरत है। यह वह मानसिकता है, जो बेहद पेशेवर और शातिराना तरीके से पनपाई गई है। इसकी शुरूआत को किसी कालखंड में तय नहीं किया जा सकता। हो सकता है ऐसा उन विलायती मास्टरों ने किया हो, जो बरतानिया हुकूमत के दौर में गुलाम भारत के स्कूलों में बच्चों को हिन्दू परम्पराओं के पालन के लिए हिकारत की नजर से देखते थे। तो क्या यह उस समय बढ़ाई गयी इस मानसिकता का ही असर है कि आज भी देश के कई शिक्षण संस्थानों में बच्चों के कलावा पहनने या तिलक लगाने पर रोक है? और ऐसा ज्यादातर उन मिशनरी स्कूलों में होता है, जिनके परिसर से लेकर भवन के भीतर तक मदर मरियम तथा जीसस क्राइस्ट की तस्वीरें या प्रतिमाएं दिख जाती हैं।

फिर आरंभिक कालखंड की तफ्तीश पर लौटें। मुमकिन है कि गुलामी की जड़ों को खाद-पानी उन लोगों की वजह से मिला हो, जो अंग्रेजों का विरोध करने की आड़ में उनके साथ मित्रवत व्यवहार करते रहे। जो खुद नामी वकील थे, मगर उन्होंने शहीदे आजम भगत सिंह का मुकदमा लड़ने में कोई रुचि नहीं दिखाई। जिन्हें जेल के नाम पर ब्रिटिश हुकूमत ने किसी होटल का आरामदायक कमरे जैसा स्थान प्रदान किया। जिस दौर में सत्ता के विरोध पर अनगिनत भारतीय काला पानी के नरक में धकेल दिए गए, उसी समय में अंग्रेजों के मित्र स्वयंभू स्वतंत्रता सेनानियों को ठाठ से जेल में बैठकर खतो-किताबत करने की आजादी प्रदान की गयी थी। तो क्या ये लोग भी गुलाम मानसिकता के पोषक बनकर आज तक देश के दुर्भाग्य की वजह नहीं बने हुए हैं? अंग्रेज-परस्ती की अनेकानेक मिसालें कायम करने के बावजूद ऐसे ही लोग देश की आजादी के मुख्य तत्व बताकर आज भी पूजे जा रहे हैं। गुलामी वाली मानसिकता की और भी जड़ें तलाशी जा सकती हैं। इसके मूल में वे भी हैं, जिनकी हुकूमतों के दशकों वाले दौर में भी यह मुल्क औरंगजेब जैसे आक्रांताओं को समर्पित किए गए स्थानों का नाम बदलने की कोशिश तक नहीं कर पाया।

वो बाजार और विचार भी तो परतंत्रता वाली मानसिकता में लिपटे हुए हैं। जिनके लिए ‘वेलेंटाइन डे’ या फिर ‘फे्रंडशीप डे’, ‘चाकलेट डे’ किन्हीं त्यौहारों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। वो मानसिकता, जिसमें सिर से पैर तक सने अभिभावक बड़े गर्व से यह बात बताते हैं कि उनका बच्चा हिंदी लिख और बोल नहीं सकता। क्या गुलामी की मानसिकता से संघर्ष में वे दुरूह चुनौती नहीं हैं, जो हिंदी फिल्मों में आरंभ से अब तक पुजारियों को लंपट, मंदिरों को भ्रष्ट और किसी मौलवी को महान धार्मिक बताते हैं। चुनौती तब और भी बढ़ जाती है,जब इसका विरोध करने वालों को असहिष्णु कह उनकी घेराबंदी कर दी जाती है। वैसे भी देश में इस समय जिन्हें सबसे ज्यादा असहिष्णुता नजर आती है वे वामपंथी स्वभाव से ही बहुत शक्की और झक्की टाईप के होते हैं। हर तरफ उन्हें षड्यंत्र और विरोधी ही नजर आते हैं। शक शुबह उनके लिए असलियत से भी ज्यादा असली है। चौतरफा प्रतिकूलता सूंघने वाले ऐसे झक्कियों का हो भी क्या सकता है? इनके कल्पनालोक के देव और असुर उन्होंने खुद ही गढ़ रखे हैं। (जारी)

Web Khabar

वेब खबर

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button