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शोध का विषय शिवराज का यह सफर

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शिवराज सिंह चौहान से कई सवाल पूछे जा सकते हैं। उनकी राजनीतिक सफलताओं से जुड़े कई तिलिस्मों को तोड़ने की मेरी कोशिशें अब भी नाकाम है। एक बात और। शिवराज के विरोधियों के दिल में झांककर देखने का भी मेरा बड़ा अरमान है। क्योंकि ये सब करने के बाद ही चौहान को समझा जा सकता है। वो भी कुछ हद तक ही। क्योंकि यह खालिस अबूझ व्यक्तित्व वाला मामला है। उस आदमी की पड़ताल है, जो एक लगातार विशाल हो चुके कद के साथ आश्चर्य की शक्ल ले चुका है। एक बात का मैं दावा करता हूं। आग्रह और दुराग्रह को लेकर। आप किसी भी पक्ष में कलम थमा दीजिये। शिवराज के विरोध या समर्थक पक्ष में। शिवराज के कार्यकाल पर उनसे लिखवा लीजिए। समर्थक लाख प्रयास करने के बाद भी खुद को तारीफ के अतिरेक से नहीं बचा पाएगा। विरोधी भी तटस्थता एवं तर्क की पुरजोर कोशिशों के बीच भी खुद के लिखने को पूर्वाग्रही होने के आरोप से नहीं बचा पाएगा।

बात केवल यह नहीं कि हम मध्यप्रदेश में सबसे लंबा कार्यकाल स्थापित करने वाले मुख्यमंत्री की बात कर रहे हैं। यह कार्यकाल इस अबूझ व्यक्तित्व को समझने का एक पहलू हो सकता है। मामला महज यह भी नहीं कि इस मुख्यमंत्री ने यकीनन और लगातार अपार जनसमर्थन हासिल किया है। बात या मामला यह है कि ये अबूझ पहेली से जूझने वाली स्थिति है। चौहान को यूं भी आप लगातार व्यस्तता वाले भाव से अलग नहीं पा सकते। व्यस्तता उनकी सहचरी बन गयी लगती है। इसे उन्होंने स्वत: ही अंगीकार किया है। मुख्यमंत्री के तौर पर लगातार तीन कार्यकाल में उन्होंने ‘आम (जनता) काज कीन्हे बिना मोही कहां विश्राम’ वाली मुद्रा में खुद को हमेशा व्यस्त रखा। राज्य का कोना-कोना नाप लिया। पांव-पांव वाले भैया की पहचान से बहुत आगे उन्होंने खुद को ‘गांव-गांव वाले मुख्यमंत्री’ के रूप में भी स्थापित कर लिया था।




जब पंद्रह महीने के लिए विपक्ष में रहे, तब भी मध्यप्रदेश में ‘जिन्दा टाइगर’ और देश के कई हिस्सों में भारतीय जनता के सदस्यता अभियान प्रभारी के रूप में अपने पैरों में चक्र बने होने का परिचय देते रहे। यह राजनीतिक मंत्र उनका ही दिया है, मों (मुंह) में शक्कर और पांव में चक्कर। चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद की शिवराज की व्यस्तता में कुछ नए सोपान जुड़े। कांग्रेस से आयातित ज्योतिरादित्य सिंधिया खेमे को एडजस्ट करने की चुनौती ने उनकी व्यस्तता में और इजाफा कर दिया था। इसी सघन दिनचर्या के बीच उन्होंने 28 सीटों पर विधानसभा उपचुनाव की वैतरणी पार की। और इस सबके बीच एक बहुत बड़ी तबदीली शिवराज में दिखी है। उनका गुस्सा किलिंग इंस्टिंक्ट वाली बात बन गया है। वह गलत करने वालों को कुचल देने की बात जिस तेजी से कहते हैं, उसी वेग से इस दिशा में काम भी करते जा रहे हैं।

सन दो हजार बीस का मार्च उस कालखंड की शुरूआत थी, जब सारा देश कोरोना जैसी सर्वव्यापी महामारी की चपेट में बुरी तरह आ चुका था। उसी समय मध्यप्रदेश के सत्ता वाले परिदृश्य में बदलाव हुआ और पन्द्रह महीने के छोटे से अंतराल के सत्ता से बाहर रहने वाले शिवराज सिंह चौहान ने एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। हालात और भी अधिक जटिल थे। कोरोना बुरी तरह पैर पसार रहा था और शिवराज के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस वायरस के प्रकोप से राज्य की जनता और यहां से गुजरने वालों को बचाने की थी। कमलनाथ के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने कोरोना को लेकर कोई भी प्रबंध ही नहीं किये थे, इसलिए शिवराज के सामने और बड़ी चुनौती खड़ी थी। चौहान ने इसे प्राथमिकता से लिया।

राज्य की सरकारी मशीनरी का बहुत बड़ा हिस्सा बचाव और राहत के काम में लगा दिया। स्वयं मुख्यमंत्री फील्ड में जाकर हालात पर नजर रखे रहे। या फिर पहली बार ऐसा हुआ होगा कि शिवराज ने वल्लभ भवन में 12-14 घंटे बिताए होंगे। इसी बीच प्रवासी मजदूरों की समस्या देशव्यापी रूप ले चुकी थी। वे अपने घरों को लौट रहे थे और उनके फिर से व्यवस्थापन सहित उनकी रोजी-रोटी का सतत बंदोबस्त भी बड़ी समस्या बन गयी थी। शिवराज ने इस दिशा में भी तेजी से काम किये। उन्होंने इसके साथ ही लॉक डाउन सहित कोरोना की गाइड लाइंस के पालन को सुनिश्चित करने की दिशा में भी ताबड़तोड़ कदम उठाये। कर्जमाफी से धोखा खा चुके किसानों को फसल बीमा का पैसा दिला कर उनका विश्वास फिर अपने में जगाया। एक तरफ जहां कमलनाथ पन्द्रह महीने आर्थिक तंगी का रोना रोते रहे, वहीं प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि में शिवराज ने चार हजार रूपए मध्यप्रदेश सरकार की तरफ से भी जोड़ दिए।




सच कहा जाए तो जितने विपरीत हालात शिवराज के सामने आये, वह उतने ही ज्यादा मजबूत होकर उनसे बाहर निकले हैं। उन्होंने जब उन्तीस नवम्बर दो हजार पांच को पहली बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, तब भी तमाम चुनौतियां उनके सामने थीं। बीजेपी महज दो साल की अवधि में दो मुख्यमंत्री बदल चुकी थी। शिवराज तीसरे सीएम बने। माहौल कुछ ऐसा था कि उनकी सरकार के लिए ‘अब गयी तो तब गयी’ वाले कयास लगाए जा रहे थे। तो ऐसी अस्थिरता के बीच जनता से जुड़े कामकाज हो पाने को लेकर संशय का माहौल बनाना स्वाभाविक था। लेकिन ये शिवराज ही थे जो एक के बाद एक कार्यकाल पूरे करते चले गए और इस पूरे दौर में उन्होंने आम जनता से जुडी समस्याओं और जरूरतों की दिशा मे निरंतर काम किये।

यह उनकी लोकप्रियता का ही कमाल था कि राज्य की जनता ने लगातार उनके नेतृत्व में दो बार भाजपा को स्पष्ट जनादेश देकर राज्य में पूरे पंद्रह साल तक इस दल की सरकार पर भरोसा जताया। एंटी इंकम्बैंसी किसी भी सरकार के लिए भयानक होती है। फिर पंद्रह साल के लगातार कार्यकाल के बाद तो इस भावना का भड़कने की हद तक बढ़ना स्वाभाविक है। इसके बावजूद जब दो हजार अठारह के विधानसभा चुनाव के नतीजे आये तो सभी की आंखें खुली की खुली रह गयीं। क्योंकि शिवराज के नेतृत्व में चुनाव लड़ने वाली भाजपा को भीषण एंटी इंकम्बैंसी और कांग्रेस के किसान कर्ज माफी के वादे के बावजूद कांग्रेस के मुकाबले केवल पांच सीट कम मिली थीं। जनता ने कांग्रेस को भी स्पष्ट बहुमत के लायक ही नहीं समझा था। तो आखिर ऐसा क्या तिलिस्म है कि शिवराज दिग्गज से दिग्गज राजनेता को भी हिला देने वाले एंटी इंकम्बैंसी जैसे फैक्टर के बावजूद जनता के बीच लोकप्रिय बने रहे।

मैं शिवराज से यही पूछना चाहता हूँ कि यह सब हो पाना भला कैसे संभव है? उनसे परास्त विरोधियों से यह जानना है कि क्या ऐसा होने के बाद उनके भीतर किसी अपराजेय योद्धा से सामना होने वाला भाव नहीं पनपा है? शिवराज का राजनीतिक सफर एक विशद शोध का विषय है। इस सफलता के पीछे शिवराज की पाजिटिविटी के अलावा राजनीति के कई सारे नेगेटिव आस्पेक्ट भी जुड़े हुए हैं।

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