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राहुल गांधी का सिंधिया पुराण

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हिंदी फिल्मों के वैश्विक स्तर पर हास्यास्पद बनने में रॉबिन भट्ट का ‘योगदान’ अविस्मरणीय है। फिल्म की कहानी चुराने के अपने चातुर्य का वे पूरे विशेषाधिकार के साथ बखान करते थे। इसी फिल्म जगत के संगीत के साथ खुल्लमखुल्ला और लंबे समय तक नकल के सबक वाली पाठशाला में बप्पी लहरी और अन्नू मलिक कुलाधिपति जैसा ‘सम्मान’ रखते हैं। मामला चुराई गई धुनों को अपना हलुआ बताकर पेश करने की खूबी वाला जो ठहरा। ऐसे घटनाक्रमों के समकालीन दृष्टांत के तौर पर निश्चित ही राहुल गांधी को अपने दिलऔर दिमाग में पूरी जगह दे सकते हैं। कांग्रेस की अब तक हुई दुर्गति और भविष्य में निश्चित तौर पर दिखने वाले और भी हृदयविदारक प्रसंगों का श्रेय राहुल गांधी को बेहिचक किसी पेटेंट की तरह प्रदान किया जा सकता है। कांग्रेस के जहाज को बेड़ागर्क की स्थिति में लाने के लिए राहुल ने अपने भीतर के विशिष्ट गुणों को नियमित रूप से धार प्रदान करने का महायज्ञ जारी रखा हुआ है। तो इसी यज्ञ में राहुल ने सोमवार को एक आहुति और डाली है।

राहुल गांधी ने कहा कि ज्योतिरादित्य सिंधिया यदि कांग्रेस में रहते तो अब तक मुख्यमंत्री बन गए होते। उन्होंने यह भी कहा कि सिंधिया भाजपा में जाने के बाद बैक बेंचर हो गए हैं। रौ में बहते हुए गांधी यह दावा भी कर गए कि सिंधिया को एक दिन कांग्रेस में लौटना होगा। देश के मनोरंजन जगत के लिए यह बहुत बड़ी क्षति है। क्योंकि राहुल गांधी ने जिस कार्यक्रम में यह सब कहा, उसका कोई वीडियो सामने नहीं आ सका है। वरना राजनैतिक गुदगुदाहट के अपने अनगिनत प्रहसनों में गांधी ने एक और विजुअली सक्रिय योगदान दे ही दिया होता। राहुल के इन कथनों का कोई ओर-छोर ढूंढना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। अगले ने पहले तो सिंधिया को लियो टॉलस्टॉय वाला झुनझुना थमाकर मुख्यमंत्री पद की रेस से बाहर कर दिया। इसके बाद वह सिंधिया को घोड़े के आगे बांधी गयी गाजर वाली स्थिति की तरह प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से लेकर राज्यसभा तक के बीच इधर से उधर दौड़ने के लिए मजबूर करते रहे। दिग्विजय सिंह और कमलनाथ जैसे घाघ नेताओं के सामने राहुल की समझ पर वैसे भी सवाल हैं। तो दिग्गजों के आगे उनकी बीन बज नहीं पाई। एक साल से ज्यादा के कमलनाथ सरकार के कार्यकाल के दौरान सिंधिया के लिए उम्मीद की कोई किरण रहने ही नहीं दी गयी थी। लेकिन राहुल का कल वाला कथन सुनो तो ऐसा लगता है, जैसे कि सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाने का ही फैसला किया गया था। अब तक राहुल या कांगे्रस आलाकमान कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेसाध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष जैसे पदों से ही हटने को राजी नहीं कर पाया है।

दु:ख होने की स्थिति में सीने में अरमानों का सुलगना स्वाभाविक है। फिर जब ये सुलगन राजस्थान की रेगिस्तानी गर्मी के भी ‘टच’ पा जाए तो धुंआ कुछ ज्यादा हो जाना है। इसी भूमि में बैठकर प्रेम दीवानी मीरा ने ‘विष का प्याला राणाजी ने भेजा’ लिखा था। इसी मरुभूमि में सचिन पायलट ने भी खून का वह घूंट पिया, जो मूलत: राहुल गांधी ने ही उन्हें भेजा था। पायलट अब पूरी तरह हाशिये पर हैं और यदि उन्होंने बीच में बगावती तेवर न दिखाए होते, तब भी उनका कल्याण होने का कोई स्कोप रहने ही नहीं दिया गया था। अब जब पायलट जैसा उदाहरण सामने हो तो भला किस मुंह से गाँधी की सिंधिया के अब तक मुख्यमंत्री बन जाने वाली बात को गले के नीचे उतारा जा सकता है?

हां, गांधी की एक बात पर विचार किया जा सकता है। सिंधिया भविष्य में यदि कांग्रेस में फिर दिखें तो किसी को हैरत नहीं होना चाहिए। सिंधिया भी अब परिपक्व होते जा रहे हैं लेकिन उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं अभी बाकी हैं और उनके रास्ते में भाजपा के तमाम दिग्गजों के चलते ‘जगह मिलने पर ही साइड दी जाएगी’ जैसी स्थिति बनी हुई है। लेकिन पार्टी में कांग्रेस विधायकों के साथ शामिल हुए सिंधिया से भाजपा ने जो भी कमिटमेंट किए थे, वो बिना किसी झिझक के पूर किए गए। मोदी सरकार में सिंधिया के मंत्री बनने की चर्चा थी। एक साल हो गया है, उन्हें भाजपा में शामिल हुए। ज्योतिरादित्य ने अब तक तो कहीं कोई बेसब्री नहीं जताई। बल्कि वो पूरे इत्मीनान ने अपनी राजनीतिक पारी में शायद पहली बार किसी कॉडर बैस पार्टी के संगठन को समझने की कोशिश करते भी नजर आ रहे हैं। अब सिंधिया के लिए कम से कम कांग्रेस आज तो मजबूरी नहीं है। लेकिन कांग्रेस के लिए सिंधिया लगता है भविष्य में मजबूरी बन सकते हैं।

कांग्रेस में कमलनाथ चुक चुके हैं और दिग्विजय सिंह काफी हद तक बुझ चुके हैं। टिमटिमाते दीयों की मद्धिम लौ के बीच जयवर्द्धन सिंह से लेकर अजय सिंह राहुल, अरुण यादव, उमंग सिंघार, विक्रांत भूरिया और जीतू पटवारी आदि में नेतृत्व लायक वो पोटेंशियल नजर नहीं आता है जो कांग्रेस को मध्यप्रदेश की सत्ता पर फिर से काबिज करवा सके। ऐसे में 2023 तक सिंधिया कांग्रेस की एक बड़ी जरूरत बन सकते हैं। क्या यह कांग्रेस की मजबूरी का प्रतीक नहीं माना जाएगा? यदि गांधी ने यह भी कहा होता कि सिंधिया को अब पार्टी में वापस नहीं लेंगे, तो यह उनकी मजबूती दिखाता, लेकिन इसकी जगह उनकी पार्टी में वापसी की बात कहना गांधी सहित पूरी कांग्रेस की मजबूरी का ही प्रतीक बन गया है। रहा सवाल सिंधिया को तो वे खुद को भाजपा में कितना समाहित कर पाते हैं, यह भविष्य के गर्भ में हैं। सिंधिया में अभी भरपूर संभावनाएं हैं। और भाजपा में किसी भी संभावनावान नेता को उतना तो मिलता ही है, जिसके काबिल वो है। राहुल तो अब भाजपा के लिए कोई चुनौती माने ही नहीं जाते लेकिन सिंधिया के सामने खुद को भाजपा में स्थापित करना अभी भी एक बड़ी चुनौती है।

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