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राहुल के ये सत्यम, शिवम, सुंदरम…

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हिंदुत्व पर राहुल गांधी के लिखे लेख को पढकर मुझे तो एक झटके में फिल्म ‘थ्री ईडियट्स’ ‘चतुर रामलिंगम’ और ‘लाइब्रेरियन दुबे जी’ याद आ गए। इसी फिल्म का चरित्र वीरू सहस्त्रबुद्धे इसलिए याद नहीं आया कि मामला थोड़ा-सा अलग है। यहां का ‘लाइब्रेरियन दुबे’ चाहकर भी किसी सहस्त्रबुद्धे से यह नहीं कह सकता कि ‘बोल बाबा रहे हैं, लेकिन शब्द हमारे हैं।’ क्योंकि रील लाइफ का यह दुबे जानता है कि जहां उसने यह बोला, वहां वह एक झटके में ‘डूबे’ वाली स्थिति का शिकार बना दिया जाएगा।

कांग्रेस में राहुल गांधी को चतुर मानने वालों की आज भी कमी नहीं है। लेकिन पार्टी में गांधी-नेहरू परिवार के आभामंडल से कुछ अंश में भी अछूता हरेक व्यक्ति राहुल की क्षमताओं पर पूरा विश्वास रखता है। इसलिए वह यकीन से कह सकता है कि राहुल ने हाल ही में ‘सत्यम, शिवम, सुंदरम’ शीर्षक से जो लेख रचने का दावा किया है, वह दरअसल किसी दूसरे के ज्ञान पर अपना नाम लिख देने की जुगाड़ से अधिक और कुछ भी नहीं है। वैसे सामान्य तौर पर नेता प्रजाति के लिए ये आम बात है।

बहरहाल, ‘लिखे गए’ और ‘लिखवाए गए’ की इस संदर्भ में पूरी तरह निरर्थक बहस से परे कुछ और बात करते हैं। लेख में ‘पूर्वाग्रह तथा भय से मुक्त होकर सत्य एवं अहिंसा के मार्ग पर चलकर सबको आत्मसात करना’ ही हिन्दू होने का एकमात्र रास्ता बताया गया है। तो सवाल यह कि इसी हिंदू धर्म के लड़कों को मंदिर में लड़की छेड़ने के लिए जाने वाला बताना राहुल की पूर्वाग्रही सोच का परिचायक था या नहीं? फिर यह भी कि क्या राहुल उस समय बिलकुल भय-मुक्त थे, जब वह अमेठी की जनता का मूड भांपकर वायनाड चले गए थे और जब जेल की सजा से बचने के लिए उन्होंने ‘चौकीदार चोर है’ वाले नारे के लिए सुप्रीम कोर्ट में बिना शर्त क्षमा याचना की थी?

आप बेशक यह कह सकते हैं कि मुझे इस लेख वाले हिंदू से राहुल को नहीं जोड़ना चाहिए। उनके दादा पारसी थे। उनकी माताजी ईसाई हैं। लेकिन आपके इस तर्क पर मैं एक बात साफ़ कर दूं। वह यह कि मेरी यह बातें उस राहुल के लिए हैं, जिन्हें कांग्रेस ने ही दत्तात्रेय गोत्र वाला ब्राह्मण बताया है और इस आविष्कार के साथ ही वह जनेऊ भी नमूदार हो गया था, जिसे राहुल शायद ब्राह्मण दिखने की जल्दबाजी में कोट के ऊपर से पहन गए थे।

खैर, लेख पर लौटें। राहुल से यह पूछा जाना चाहिए कि उनके पड़नाना के समय से लेकर दादी और पिता के कालखंड तक की कई घटनाएं अब सत्य और अहिंसा की प्रतीक बता दी जाएं? महात्मा गाँधी की हत्या के बाद मुंबई में हजारों चितपावन ब्राह्मण मार दिए गए। क्योंकि वे नाथूराम गोडसे के समुदाय से ताल्लुक रखते थे। तब जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे। आपातकाल के समय विरोधियों के साथ दमन का जो चक्र चला, वह घृणित हिंसा से भी अधिक भयावह था। उस वक्त इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। इंदिरा जी की हत्या के बाद हजारों सिखों का कत्लेआम किया गया, तब उनकी विरासत को संभाल चुके राजीव गांधी ने इस कृत्य के लिए कहा था कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती स्वाभाविक रूप से कांपती है। कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर भगवान राम के अस्तित्व को नकारा। राम सेतु के अवशेष को तोड़ने की मंजूरी दी। यह सब जब हुआ, तब सोनिया गांधी कांग्रेस की सुप्रीमो थीं। तो, हे दत्तात्रेय ब्राह्मण राहुल जी, हिंसा के ऐसे चुनिंदा उदाहरणों की ही रोशनी में क्या आप इस पितृ पक्ष में अपने पितरों को हिंदू मानने का साहस जुटा पाएंगे?

आगे का मामला तो और भी रोचक है। लेख का एक अंश है, ‘एक हिंदू की आत्मा इतनी कमजोर नहीं होती कि वह अपने भय के वश में आकर किसी किस्म के क्रोध,घृणा या प्रतिहिंसा का माध्यम बन जाए।’ तो फिर नेहरू बनाम फिरोज गांधी, इंदिरा जी बनाम मेनका गांधी, सोनिया जी बनाम पीवी नरसिंह राव और दत्तात्रेय ब्राह्मण बनाम गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, ज्योतिरादित्य सिंधिया, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी आदि-आदि विवादों में दिखे एकतरफा क्रोध,घृणा या प्रतिहिंसा के उदाहरणों को क्या कहा जाएगा? इस लेख में तथ्यों के हिसाब से इतने छेद हैं कि उसमें ऐसे असंख्य सवालों के प्रवेश की अनंत संभावनाएं हैं। फिर भी एक और प्रश्न उठाए बगैर मन नहीं मान रहा। वह यह कि ‘लाइब्रेरियन दुबे’ ने यह सब आपको पढ़कर सुनाया था या नहीं? इस सवाल का जवाब बहुत सोच-समझकर दीजिएगा, क्योंकि ‘हां’ या ‘ना’ दोनों ही उत्तर एक बार फिर आपकी समझ के आकार पर सवालिया निशान लगाने वाले साबित होंगे।

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