राख के ढेर में शोला है न चिंगारी है

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इस शोर के असर से कोई इंकार नहीं कर सकता। हां, इसके पीछे निहित जोर अपने साथ कई किस्म के प्रश्नवाचक और विस्मयादिबोधक चिन्ह लगाए हुए है। मुगलिया दौर के किसी आक्रांता/शासक के लिए कहा जाता रहा कि वह जहां भी जाते थे, उनका हुक्का उनसे पहले उस जगह पहुंचा दिया जाता था। राहुल गांधी निश्चित ही न तो मुगल हैं और न ही आक्रांता। अपने दादा फिरोज के पोते होने के बाद भी दो तथ्य निर्विवाद रूप से स्वीकार्य हैं। पहला यह कि फिरोज मूलत: पारसी थे और दूसरा यह कि खुद कांग्रेस पानी पी-पीकर यह कसम खाती आई है कि राहुल मूलत: कश्मीरी ब्राह्मण हैं और उनका दत्तात्रेय गोत्र है। भले ही राहुल एक से अधिक समय सोशल मीडिया पर मांसाहार करते या उसे बनाते हुए दिख चुके हों, लेकिन उनकी बहन प्रियंका वाड्रा का एक वीडियो भी ध्यान देने लायक है, जिसमें वह महिलाओं के एक समूह से अपने परिवार (मां सोनिया और भाई राहुल) के लिए यह कह रही हैं कि ‘हम कश्मीरी ब्राह्मण हैं और मांसाहार नहीं करते हैं।’

खैर, जाति और आचार-व्यवहार के इन छोर को समेटने की कोशिश की बजाय फिर ‘शोर’ पर आएं। राहुल एक बार फिर मध्यप्रदेश में हैं। उनकी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के यहां प्रवेश से पहले ही ठीक वैसा समा बांध दिया गया था, जैसे कि किसी का हुक्का उसके आने से पूर्व ही पहुंचा दिया गया हो। गांधी का राज्य में लंबा कार्यक्रम है और बड़ी तैयारी भी। उनका आगमन यहां ग्वालियर-चंबल संभाग में हुआ है। वह स्थान, जो केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया का गढ़ माना जाता है। निश्चित ही इस जगह के चयन के पीछे सोच यह ही है कि सिंधिया को कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने (मूल बात यह कि ऐसा करने के फेर में राज्य में कांग्रेस के सरकार को गिरा देने) के बदले में सबक सिखाया जाए।

राहुल सहित उनकी बहन प्रियंका का इस मामले में सियासी बायोडाटा गौरतलब है। बीते विधानसभा चुनाव के समय भाई-बहन ने सिंधिया को उनके इसी घर में घुसकर सबक सिखाने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। यह बात और कि ऐसी पुरजोर कोशिशों के बावजूद राज्य में न सिर्फ एक बार फिर भाजपा की धमाकेदार तरीके से वापसी हो गई, बल्कि ग्वालियर-चंबल की कई सीटों पर कांग्रेस को जबरदस्त तरीके से मुंह की खाना पड़ गई थी। फिर भी राहुल की तारीफ करना होगी कि वह हरिवंश राय बच्चन की कविता वाली उस चींटी की तरह आगे बढ़ने का कोई प्रयास बाकी नहीं रख रहे, जो चींटी अपने लक्ष्य की दिशा में बार-बार नीचे गिर जा रही है। गांधी की तारीफ यह भी कि उन्हें अतीत का वह प्रेत भी नहीं सता रहा है, जो उनकी भारत जोड़ो यात्रा के समय दिखा था। तब जिस मालवा अंचल में राहुल ने अपनी यात्रा पर फोकस किया था, वहां कांग्रेस की दुर्दशा ‘सूपड़ा साफ होने’ से भी अधिक अधोगति वाली हो गई थी।

अतीत की इस जुगाली का उद्देश्य यह कि आखिर इस यात्रा से राहुल देश सहित प्रदेश में भी अपनी पार्टी की दिशा और दशा में क्या कोई परिवर्तन ला पाएंगे? प्रश्नवाचक चिन्ह इसलिए कि एक बार फिर यह यात्रा कांग्रेस की बजाय गांधी के निजी प्रोपेगंडा से अधिक और कुछ नहीं दिख रही है। जिस समय देश के सभी राजनीतिक दल लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अपने-अपने ‘एपिक सेंटर’ में ताकत जुटाने में लगे हुए हैं, तब राहुल दिल्ली छोड़कर यहां से वहां जा रहे हैं। क्या इसके पीछे कहीं भी कांग्रेस के लिए चिंतन या चिंता की अवधारणा दिखती है? हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार हिचकोले खा रही है। यात्रा का यह पड़ाव शुरू होते साथ ही महाराष्ट्र में दिग्गज नेताओं अशोक चव्हाण और मिलिंद देवड़ा ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा और शिवसेना का दामन थाम लिया। इंडी गठबंधन के नाम पर कभी एक साथ दिखे दल अब राहुल के नाम पर इधर से उधर होते दिख रहे हैं। बिहार में नीतीश कुमार ने एक बार फिर एनडीए का दामन थामकर भाजपा विरोधी गठबंधन की संभावनाओं को पतीला लगा दिया है।

इस सबके बीच राहुल की इस न्याय यात्रा के दौरान क्या एक भी बार ऐसा लगा कि वह किसी कार्यक्रम के साथ आगे बढ़ रहे हैं? नरेंद्र मोदी का अंधा विरोध और भस्मासुर शैली वाले कथन से राहुल एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सके हैं। किसानों को एमएसपी देने का वादा कर रहे हैं लेकिन यह भूल रहे हंै कि स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट को रद्दी में डालने का काम यूपीए की मनमोहन सरकार ने ही किया था। संगठन के तौर पर मध्यप्रदेश को ही लीजिए। कमलनाथ खेमे की पार्टी नेतृत्व के लिए अघोषित बगावत की सुगबुगाहट अभी भी खत्म नहीं हुई है। लेकिन क्या किसी ने भी कहीं पढ़ा या सुना कि बीते चौबीस घंटे से राज्य में विराजमान राहुल ने इस बारे में कोई बात भी की हो? ऐसे हालात के चलते ही मामला पहले हुक्का पहुंचा दिए जाने वाला हो जाता है, फिर भले ही उस हुक्के में आग तो दूर, कोई चिंगारी तक मिल पाना नामुमकिन हो गया हो। राहुल की नाकामियों और अक्षमताओं पर बार-बार बात करने की कोई तुक नहीं है। इनसे जुड़े असंख्य दृष्टांतों के बावजूद जिन्हें भी उनके ताजा सियासी कर्मकांड से कोई उम्मीद है, उनके लिए यही कहा सकता है, ‘ जाने क्या ढूंढती रहती हैं ये आंखें मुझमें, राख के ढेर में शोला है न चिंगारी है।