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महाभारत से पहले की ये रामायण

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यार ये आखिर कैसी चिल्लपों है! उमंग सिंघार गरज-बरस रहे हैं। गुस्सा हैं कि मध्यप्रदेश सरकार आदिवासी इलाकों में रामलीला का आयोजन करने जा रही है। सिंघार इसे आदिवासियों को कांग्रेस से दूर करने की साजिश के रूप में देखते हैं। पूर्व मंत्री और कांग्रेस विधायक सिंघार भी आदिवासी वर्ग से ही आते हैं। इस तबके का ही प्रताप था की उनकी बुआ दिवंगत जमुना देवी राज्य में उप मुख्यमंत्री और खुद वह मंत्री पद तक पहुँचने में सफल रहे थे। जरा सोचिये। यदि आदिवासियों के बीच रामलीला के आयोजन पर सिंघार इतने बिलबिला रहे हैं तो मामला किसी कल्याणकारी योजना वाला होने पर उनकी क्या हालत होती? तब तो शायद वह यह आरोप भी जड़ देते कि भाजपा की सरकार आदिवासियों का भला करके उन्हें कांग्रेस से दूर करने की साजिश रच रही है। दरअसल इस कांग्रेस नेता के साथ एक समस्या है। वह यह कि काफी समय से उन्हें मीडिया में पहले जैसी तवज्जो नहीं मिल पा रही है। वरना तो मंत्री रहते हुए उन्होंने खूब सुर्खियां बटोरी थीं। सीधे दिग्विजय सिंह से उलझकर हेडलाइंस में कई दिन तक छाये रहे थे। मगर अब वह दौर नहीं रहा। इसलिए वैचारिक कब्ज को वे इस तरह से निर्गम का मार्ग दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।

कांग्रेस में सिंघार अकेले आदिवासी नेता नहीं हैं। लेकिन रामलीला के आयोजन पर जो प्रलाप वह कर रहे हैं, उससे यही लगता है कि अकेले उनके समर्थक आदिवासी ही बीजेपी के निशाने पर हैं। वरना क्या वजह है कि पूर्व मंत्री के इस बयान को कांतिलाल भूरिया या उनके चिरंजीव विक्रांत भूरिया सहित इस वर्ग के किसी भी अन्य पार्टीजन का समर्थन नहीं मिला है? आदिवासी तो कांग्रेस के लिए मेरूदंड रहे हैं। दूसरे कार्यकाल के चुनाव में झाबुआ से हार की खबर आते ही दिग्विजय सिंह ने पार्टी की शिकस्त स्वीकार कर ली थी। क्योंकि यह खांटी आदिवासी इलाके झाबुआ में पार्टी का जनाधार बुरी तरह दरकने का पुख्ता संकेत था। आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग के चलते एक समय शिवभानु सिंह सोलंकी ने अर्जुन सिंह की नींद उड़ा थी। वहीं इसी मांग के नाम पर दिग्विजय सिंह को अविभाजित मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए अजित जोगी ने भारी उलझन में डाल दिया था। कहने का आशय यह कि यह तबका कांग्रेस के लिए बहुत महत्व रखता है। इसलिए यदि सिंघार के आरोप में दशमलव एक प्रतिशत का भी दम है तो फिर इस मामले को लेकर कमलनाथ सहित समूची राज्य इकाई को सांप सूंघ जाना चाहिए।

मगर ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि पार्टी ही जानती है कि सिंघार के बयान में कोई दम नहीं है। हाँ, आदिवासियों के बीच रामायण वाली बीजेपी की इस कोशिश में दम न हो, ये भी नहीं कहा जा सकता है। यह उस पार्टी का मामला है, जो इंच-इंच आगे बढ़कर मंजिल तक पहुंचना जानती है। यह रामायण यदि किसी सियासी महाभारत का शुरूआती हिस्सा है तो तय मानिये कि पार्टी ने इसके जरिये कांग्रेस को घेरने के एक और प्रयास कर दिया है। आज सिंघार आदिवासियों के लिए लीडरशिप वाली मुद्रा में आये हैं, कल को यदि उनकी आशंका सही साबित हुई तो फिर पार्टी के इस वर्ग से अन्य नेताओं की भी सक्रियता दिखेगी। ऐसे में कांग्रेस में आदिवासियों के नेताओं के बीच जो वर्ग संघर्ष होगा, वह अंतत: भाजपा के लिए ही लाभकारी साबित होना तय है। तो इस रामायण की महाभारत चाहे भाजपा बनाम कांग्रेस वाली हो या हो कांग्रेसी बनाम कांग्रेसी की, हर हाल में फायदा तो भाजपा का ही होता दिख रहा है।

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