दिसंबर के वही दिन थे, जब वर्ष 1938 में प्रख्यात कवि (अब दिवंगत) माणिक वर्मा ने मध्यप्रदेश में जन्म लिया था। दिसंबर के यही दिन हैं, जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी ने भारत न्याय यात्रा शुरू करने का ऐलान किया है। लोकसभा चुनाव सिर पर हैं, इसलिए इसे गांधी के तई व्यक्तिगत रूप से एक बार फिर सियासी प्राकट्योत्सव दिवस जैसी घोषणा माना जा सकता है। वैसे, वर्मा और गांधी के बीच यूं तो कोई सीधा साम्य नहीं है। हां, यह जरूर है कि माणिक भाई हास्य कविताओं के लिहाज से अभूतपूर्व किस्म के रचनाकार थे और हास्य वाले व्यक्तित्व के मापदंड से राहुल का भूतपूर्व से लेकर वर्तमान और भविष्य तक फिलहाल कोई सानी दिखाई नहीं देता है।
तो जब एक खालिस सियासी आयोजन को ‘भारत न्याय यात्रा’ का शीर्षक दिया जाता है तो दिमाग में वर्मा की मशहूर कविता ‘मांगीलाल और मैंने’ का शीर्षक घूम जाना स्वाभाविक है। पहले यह बता दें कि गांधी ने 14 जनवरी से 20 मार्च तक मणिपुर से लेकर मुंबई (महाराष्ट्र) तक यह यात्रा निकालने की घोषणा की है। इसके पड़ाव में नागालैंड, असम, मेघालय, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात भी शामिल होंगे। यानी मामला भारत जोड़ो यात्रा के एक्सटेंशन जैसा ही है। वही यात्रा, जिसमें राहुल के चरण मध्यप्रदेश के जिन-जिन हिस्सों में पड़े, उनमें लगभग सभी जगह पर कांग्रेस का हालिया संपन्न विधानसभा चुनाव में बंटाधार हो गया। विधानसभा चुनाव के दौरान भी गांधी ने राज्य में जिस जगह अपनी पहली सभा ली, वहीं उनकी पार्टी के युवा तुर्क कुणाल चौधरी चुनाव हार गए। इसलिए मामला ‘जहां-जहां पांव पड़े संतन के’ की जगह ‘जहां-जहां पांव पड़े संकट के’ वाला कहना भी न्यायोचित हो सकता है।
लोकसभा चुनावों के मद्देनजर गांधी की आगामी यात्रा और वर्मा की ‘मांगीलाल और मैंने’ के सिरे एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं। वर्मा की इस कविता में बुरी तरह चुनाव हारे एक उम्मीदवार की भड़ास निहित थी और शायद अपनी तमाम एक्सपोज हो चुकी राजनीतिक क्षमताओं के चलते राहुल भी इस यात्रा में ‘भारत न्याय’ की बजाय ‘हाय, मुझसे अन्याय’ वाली पीड़ा के शिकार ही रहेंगे। देश में न्याय और अन्याय का स्तर चाहे जो भी हो, लेकिन आज की तारीख का बहुत बड़ा सच यही है कि गांधी और उनके चलते उनकी कांग्रेस मतदाता के हाथों सर्वाधिक अन्याय की शिकार हुई है। गजब का कंट्रास्ट है। राहुल जब से सियासत में सक्रिय हुए, तब से उनकी पार्टी का जनाधार अक्रियता की जकड़न में आ चुका है। अब तो हालत यह कि देश के हिंदी-भाषी राज्यों में कांग्रेस केवल हिमाचल प्रदेश तक सिमट कर रह गई है। बाकी अन्याय के लिए कितनी और दुहाई दी जाए? कितना याद किया जाए कि किस तरह देश का सबसे बुजुर्ग राजनीतिक दल (कांग्रेस) राहुल के हावी होने के बाद आज क्षेत्रीय दलों के आगे भी किसी अनाथ की भांति घुटने टेकने को मजबूर हो चुका है। उफ! यह कम से कम न्याय तो नहीं ही है कि किसी समय कांग्रेस के आगे कोई भी हैसियत न रखने वाली तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, वामपंथी दल, राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियां आज इस पार्टी को अनिश्चितता के दलदल में अपनी अंगुलियों पर नचा रही हैं।
राजनीतिक चश्मा हटाकर देखें तो राहुल की कई बातें बिना किसी हास्य बोध के भी अपनी तरफ ध्यान खींचती हैं। मसलन, भारत जोड़ो यात्रा में यह दिखा कि राहुल अपने दिमाग से सर्वथा उलट शारीरिक रूप से जबरदस्त फिट हैं। भले ही सियासत के अखाड़े में वह अधिकांश अवसर पर धूल चाटने को अभिशप्त हों, लेकिन इससे बाहर वाले परिवेश में वह पहलवानों के साथ कुश्ती लड़ने से लेकर दौड़ की प्रतियोगिता में जोरदार दम-खम रखते हैं। बकौल, अपनी बहन प्रियंका वाड्रा, प्याज और लहसुन से भी परहेज करने वाले गांधी एक अवसर पर केरल में ओमन चांडी के साथ मछली का लुत्फ लेते और किसी समय लालू प्रसाद यादव के साथ मांसाहारी आहार तैयार करते हुए अपने एक कुशल खानसामा होने का परिचय भी दे चुके हैं। लेकिन मतदाता का कोई क्या करे? उसे तो एक कुशल राजनेता चाहिए और कुश्ती के दांव-पेंच तथा रसोई के गणित से उसे कोई खास सरोकार नहीं रहा। शायद इसीलिए उसने गांधी के अभिनेता वाले स्वरूप को जितना पसंद किया, उसी अनुपात में उन्हें एक नेता के रूप में लगातार खारिज भी कर दिया।
इन और इन जैसे असंख्य उदाहरणों के बीच यह तो तय है कि राहुल निजी तौर पर और अपने कारण अपनी पार्टी के लिए नाकाम साबित हुए हैं। मामला न्याय और अन्याय के बीच बड़े अंतर वाला है। इसीलिए यह सोचने वाली बात हो जाती है कि न्याय यात्रा से आखिर क्या हासिल होगा? नब्बे के दशक के अंतिम दिनों में एक प्रसिद्ध वृत्तचित्र निमार्ता से सुना एक रोचक किस्सा याद आ रहा है। राहुल की दादी इंदिरा गांधी जी उससे कुछ साल पहले मध्यप्रदेश के धार या रतलाम में किसी ठेठ आदिवासी इलाके में आई थीं। उन्हें देखने (हालांकि सरकारी और कांग्रेस के असरकारी तंत्र का दावा ‘सुनने’ के प्रति था) लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। वह सज्जन बाद में उसी इलाके में पहुंचे। उनके अनुसार कई लोगों ने कहा कि वह इंदिरा जी को नजदीक से देखना चाहते थे, क्योंकि उन्होंने सुना था कि इंदिरा की जी नाक प्लास्टिक की है। हालांकि तथ्य यह है कि दिवंगत श्रीमती गांधी की नाक की प्लास्टिक सर्जरी नहीं हुई थी और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के पूर्व प्रमुख के शंकरन नायर की किताब में भी कहा गया था कि इंदिरा जी को डॉक्टरों ने ही यह प्लास्टिक सर्जरी न करवाने की सलाह दी थी।
तो जब, सोशल मीडिया पर राहुल की भीड़ से घिरी तस्वीर के साथ यह मीम चलता है कि ‘कभी वोट भी दे दिया करो, केवल अंग्रेज समझ कर हाथ मिलाने चले आते हो’ तब यही लगता है कि भारत जोड़ो की तरह ही न्याय यात्रा का हश्र भी ‘राहुल का साथ देने’ की बजाय ‘राहुल के साथ चलने भर’ वाला न हो जाए। और इस बार तो सफर वैसे भी बस से है। कांग्रेस के इस वर्तमान कर्णधार ने अपनी पार्टी को कन्धों का सहारा लेने वाली स्थिति में लाने के अलावा और कोई काम नहीं किया है। उनके हिस्से केवल कारनामे ही आए हैं। फिर सोच के मामले में तो गांधी की स्थिति भीषण रूप से शोचनीय है। वह जो बोलते हैं, प्राय: उसका कोई अर्थ नहीं होता और फिर उसका अनर्थ उनकी पार्टी के हिस्से ही आता है। नरेंद्र मोदी के अंधे विरोध के अलावा राहुल का अपना कोई निजी एजेंडा तो दूर, कार्यक्रम तक नहीं दिखता है। इंदिरा जी की नाक निश्चित ही प्लास्टिक की नहीं थी, लेकिन राहुल ने अपने चलते अपनी पार्टी की नाक को पिघली हुई प्लास्टिक से भी बुरी अवस्था में ला दिया है।
खैर, समर्थकों में जोरदार उत्साह है। वह सोच और विवशता, दोनों के दायरे में कैद होकर यही कह सकते हैं कि भारत न्याय यात्रा देश में क्रांति ला देगी। माणिक वर्मा ने अपनी कविता में मतदाताओं को कोसते हुए खुद के लिए ‘मिनी महात्मा गांधी’ के संबोधन का प्रयोग किया था। फिरोज खान के पोते राहुल भले ही मूलत: गांधी न हों, लेकिन प्रचार तंत्र तो उन्हें महात्मा गांधी के समकक्ष ही रखता है। खैर, कांग्रेस के अघोषित माई-बाप और देश के घोषित बापू के बीच तुलना नहीं की जा सकती। गांधी जी की आवाज पर देश एकजुट हो गया था और राहुल की सियासी परवाज का आलम यह कि कांग्रेस टुकड़े-टुकड़े होने की कगार पर आ गई है। फिर भी, उन्हें आगामी यात्रा के लिए शुभकामना। भले ही राहुल अपने विरोधी दलों का मनोभंजन करने की क्षमता न रखते हों, लेकिन उनके भीतर लोगों के मनोरंजन की ताकत कूट-कूट कर भरी हुई है और लोगों का दिल बहलाना भी किसी बड़ी समाज सेवा से कम नहीं है।