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भाजपा का सयानापन और कांग्रेस का बचपना

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बचपन में सुनी उस कहानी में सरासर गलती उस साधु की थी, जो जंगल के तोतों को बहेलिए यानी शिकारी का डर दिखाकर केवल यह रटवाता है, ‘शिकारी आएगा, दाना डालेगा, जाल बिछाएगा और तुम्हें पकड़कर ले जाएगा।’ अंत में हुआ यह कि बहेलिए के जाल में फंसे तमाम तोते यही रट्टा लगा रहे थे कि ‘शिकारी आएगा, दाना डालेगा, जाल बिछाएगा और तुम्हें पकड़कर ले जाएगा।’ यदि साधु की नीयत पूरी तरह खरी होती तो वह तोतों को अपने इस कथन का व्यावहारिक स्वरूप बताता, ताकि वे शिकारी से बचना सीख सकते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

यही स्थिति अब एक बार फिर कांग्रेस की दिख रही है। कर्नाटक में पार्टी की जीत के बाद उत्साह से भरे राहुल गांधी मध्यप्रदेश सहित राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जाति आधारित जनगणना के ‘प्रवचन’देते रहे, तब कई बार यही प्रतिध्वनित हुआ कि वह कांग्रेस के वोट बैंक के हिसाब से अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को यही कहकर डरा रहे हैं कि यदि यह जनगणना नहीं हुई तो उनका नुकसान हो जाएगा। राहुल की कोशिश रही कि बिहार में हुई इस जाति आधारित जनगणना के के लिए शेष जगहों पर संभावनाएं मजबूत की जा सकें। नतीजा जो हुआ, वह सामने है।

यहां उस कहानी का चरित्र याद आता है, जो कहता है, ”मेरा विरोधी जो सोचता है, मैं उसे , कर देने में विश्वास रखता हूँ।’ तो हुआ यही। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी ने लगातार एक ही बात ‘सामाजिक समरसता’ की है। इस सोच को प्रत्यक्ष रूप से निशाने पर लिया गया। लेकिन आज क्या हुआ? हुआ यह कि मध्यप्रदेश में डॉ. मोहन यादव के रूप में एक बार फिर ओबीसी वर्ग का मुख्यमंत्री है और ब्राह्मण समुदाय वाले राजेंद्र शुक्ल तथा दलित वर्ग के प्रतिनिधि जगदीश देवड़ा उप मुख्यमंत्री हैं। छत्तीसगढ़ में यदि इस राज्य की सबसे बड़ी आबादी यानी जनजातीय समुदाय के विष्णु देव साय मुख्यमंत्री हैं तो उनके साथ अरुण साव (ओबीसी) एवं विजय शर्मा (ब्राह्मण) उप मुख्यमंत्री बनाए गए हैं। राजस्थान में इधर भजनलाल शर्मा ब्राह्मण मुख्य्मंत्री हैं तो उधर दलित प्रेमचंद्र बैरवा के साथ ही राज्य में आज तक भावनात्मक रूप से असर रखने वाले राजघराने की दीया कुमारी को भी उप मुख्यमंत्री की कमान दी गई है।

इसमें कोई गूढ़ार्थ नहीं है, सादा-सा निहितार्थ है। वह यह कि इस मामले में भी कांग्रेस व्यवहारिकता के हिसाब से मुद्दों के टोटो और उनके नाम पर तोता रटंत की शिकार होकर रह गयी। जबकि भाजपा ने एक बार फिर दिखा दिया कि वह अपने सामाजिक समरसता वाले वाक्य के अनुरूप आगे बढ़ने में ही यकीन रखती है। ऐसा इस मौके पर पहली बार नहीं हुआ है। भाजपा ने देश के सियासी परिदृश्य में स्वयं के लिए, स्वयं के प्रयासों से ‘नया जोश’ वाली मुद्रा में लगभग हर अवसर पर यह कर दिखाया है और देश की सवसे बूढ़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस इस दौड़ में कभी हांफती दिखती थी और आज हांफने के साथ ही किलपने के लिए भी अभिशप्त है। रही-सही कसर में ‘कोढ़ में खाज’ तब साफ दिखाई देती है, जब भाजपा (विशेषकर नरेंद्र मोदी) से लगातार मिल रही असफलताओं से उपजे अंधे विरोध के चलते अपनी वैचारिक दरिद्रता के नाले में वामपंथी विचारधारा के परनाले के मिश्रण का ही सहारा ढूंढ रही है। बचपन की कहानी में यकीनन गलती उस साधु की थी, लेकिन कांग्रेस के इस घोर बचपने की सत्यकथा में किसका दोष है, यह अलग से कहने की आवश्यकता है क्या? खासतौर से तब, जब मुकाबला भाजपा के सयानेपन से हो रहा हो और उसके नतीजे रह-रहकर सामने आते ही जा रहे हैं।

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