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घनघोर नहीं घुनखोर कांग्रेसी हैं दिग्विजय सिंह

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प्रकाश भटनागर

दिग्विजय सिंह को किसी समय मैं घनघोर चतुर राजनीतिज्ञों में गिनता था। लेकिन एक अरसा हुआ, जब मेरी यह राय बदलती गई और आज कांग्रेस के इस दिग्गज नेता को भी मैं कांग्रेस के लिए ‘घुनखोर’ सहित ‘धुनघोर’ भी मानने लगा हूं। सिंह ने आम चुनाव के नतीजे आने से पहले और नतीजों का पूवार्नुमान आने के बाद एक बयान दिया है। उनका कहना है कि यदि आम जनता का वोट डला है तो कांग्रेस को कम से कम 295 सीट मिलेगी। वह यह भी कह रहे हैं कि अगर इससे उलट भाजपा को 300 या इससे अधिक सीट मिलीं, तो फिर यह ईवीएम का वोट होगा।

घूम-फिरकर दिग्विजय ने पार्टी लाइन पर चलते हुए एक बार फिर कांग्रेस की संभावित असफलता का दोष अभी से ईवीएम पर मढ़ने की कोशिश शुरू कर दी है। यहीं से घुन और धुन की बात आती है। सिंह का यह बयान खुद उन सहित समूची कांग्रेस और उसके साथी दलों की सोच पर लगी घुन का प्रतिनिधित्व करता है। लंबा समय बीत गया, जब देश के निर्वाचन आयोग ने सभी दलों को खुली चुनौती दी थी कि वे ईवीएम में गड़बड़ी की बात साबित कर दें। बहुत वक्त नहीं बीता है, जब देश की सबसे बड़ी अदालत ने ईवीएम की निष्पक्षता पर मुहर लगाई है। न तो कोई भी दल निर्वाचन आयोग की चुनौती के आगे टिक सका और न ही तमाम दलीलों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट का ईवीएम की सत्यता से विश्वास डिग सका। फिर भी दिग्विजय सिंह या जयराम रमेश जैसे कांग्रेसी जो बातें कह रहे हैं, वह यही बताती है कि कांग्रेस में तेजी से विलुप्त हो रही समझदार नेताओं की प्रजाति पर भी अब पार्टी के अघोषित कर्ताधर्ता राहुल गांधी की हां में हां मिलाने की धुन सवार हो गई है। वह भी इस हद तक कि जनादेश के सम्मान को धता बताने में भी रियायत नहीं की जाएगी।

देश के सबसे बूढ़े राजनीतिक दल की यह दशा शोचनीय है। वरना ऐसा नहीं होता कि कांग्रेस यह कह देती कि उसके प्रवक्ता नतीजे के पूर्व वाले अनुमानों से जुड़ी मीडिया की किसी बहस में शामिल नहीं होंगे। भला हो, उस समूह का, जो किसी तरह पार्टी को मुंह छिपाने वाली इस शर्मनाक ‘हरकत’ से दूर करने में सफल हो गया। वरना तो यह संदेश और ताकत के साथ प्रसारित हो जाता कि पहले ही अपनी दिशा से भटक चुकी कांग्रेस अपनी ऐसी दशा पर कोई बात रखने की स्थिति में भी नहीं रह गई है। अपनी कमजोरी का अवलोकन करने की ईमानदारी से तो आज की कांग्रेस कोसों दूर हो ही चुकी है। इससे एक कदम आगे अब तो वह सियासी युद्ध का नतीजा आने से पहले ही रणछोड़दास बनने की कगार पर आ गई है। फिर जब दिग्विजय जैसे वरिष्ठ नेता भी अपनी सोच के स्तर से कई पायदान नीचे उतरकर पार्टी आलाकमान (आज की कांग्रेस के सन्दर्भ में उसके अपने ‘ हुक्मरान’ लिखना अधिक उचित होगा) के सुर में सुर मिलाने लगें तो समझ लीजिए कि चार जून के निर्णायक स्वरूप लेने के बाद वैचारिक दरिद्रता के ऐसे अनेक नए तथा दुखद प्रहसन सामने आने वाले हैं।

पराजय से बौखलाहट स्वाभाविक है। फिर यह भाव उस समय विस्तार ले लेता है, जब यह परिदृश्य स्पष्ट है कि देश के अधिकांश हिस्सों में अपना सूपड़ा साफ होते देखने की विवशता के बीच केंद्रीय सत्ता में भी ऐसी ही शर्मनाक स्थिति की हैट्रिक बनने के आसार सामने हों। खुद प्रियंका वाड्रा गांधी ने कहा है कि यदि भाजपा चार सौ पार जाने की बात कह रही है तो फिर साफ है कि इस दल ने ऐसा करने के लिए चुनाव प्रक्रिया में पहले ही गड़बड़ी कर दी है। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में से एक होने के लिहाज से दिग्विजय भले ही पार्टी के ‘ दादाजी’ वाले तबके में शामिल हों, लेकिन अब ‘ दीदी जी’ की बात से अलग भला कैसे जाया जा सकता है? ऐसा करने के लिए जो साहस चाहिए, कांग्रेस में आज उसका नितांत अभाव दिख रहा है। दिग्विजय भी इसके अपवाद नहीं रहे हैं। लेकिन इसके लिए समूची लोकतांत्रिक व्यवस्था सहित मतदाता के जनादेश को उथले आरोपों के घेरे में लाने को भला किस तरह स्वस्थ प्रवृत्ति का परिचायक कहा जा सकता है? दिग्विजय सिंह जैसे नेता शायद यह भूल जा रहे हैं कि चरण चुंबन की अपनी निरंतर बढ़ती विवशता के चलते वे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की शुचिता के पांव में बेड़ी डालने के प्रयास जैसा दुस्साहस कर रहे हैं।

शाम ढले एक घर से चीखने-चिल्लाने और मारने-पीटने की आवाजें आ रही थीं। पड़ोसी वहां पहुंचे। उन्होंने देखा कि घर का मालिक अपने बेटे पर बुरी तरह बरस रहा है। उसे निकम्मा बता रहा है। पड़ोसियों ने वजह पूछी तो आदमी बोला, ‘दरअसल कल सुबह मेरे बेटे की परीक्षा का नतीजा आने वाला है और आज रात ही मुझे जरूरी काम से शहर के बाहर जाना पड़ रहा है। इसलिए कल का काम आज ही पूरा कर ले रहा हूं।’ कांग्रेस की भी हालत ऐसी ही दिख रही है। वह अभी से निर्जीव ईवीएम की आड़ में देश के जीवंत जनादेश पर अत्याचार करने पर आमादा हो गई दिखती है। कृपया रहम कीजिए। अपनी सोच की घुन और धुन को अपने तक ही सीमित रखिए। उसका प्रदूषण बाहर न जाने दीजिए। आखिर यह देश आपका भी तो है। अगर जनादेश आपको विपक्ष में ही देखना चाहता है तो कम से कम दमदार और रचनात्मक विपक्ष का दायित्व ही जिम्मेदारी से निभाईए। पहले अपने गिरेहबान में झांकिए। आप सुधरेंगे तो हाथ के हालात सुधरेंगे। आप देश से कहीं नहीं जाएंगे। आज अगर आपका नहीं है तो कल आपका हो सकता है। बस, वापस एक जिम्मेदार राजनीतिक दल बनिए बनिस्बत वामपंथियों का फर्जी क्रांतिकारी झुंड बनने के।

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